आजा वरषा,हँसे जवासा

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""""""""""""""""""""बाबूलालशर्मा
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8 मात्रिक छंद-मुक्तक
*आजा वर्षा*
*हँसे जवासा*
💦💦💦💦
भर चौमासा,
मरू निराशा।
सूखा सावन,
मन है प्यासा।
💧
मेघ न सरसा,
पादप  तरषा।
सदा  रूठनी,
अल्हड़ बरषा।
💧
सदा   पिपासा,
जनमन आशा।
फसल  रूठती,
अमृत   बरसा।
💧
वर्षा💧वर्षा,
दादुर प्यासा।
जल्दी आकर,
सागर   हर्षा।
💧
फड़का   मारे,
फसल बिगारे।
खुद भी मरता,
हमको    मारे।
💧
खेती     सूखे,
पशु वन भूखे।
भटके,पनघट,
रीते     मटके।
💧
सावन    आवन,
कह गय साजन।
लगती     ग्रीषम,
भूल    भुलावन।
💧
पर्व तीज गई,
राखी   आई।
बंधन    भूले,
मेघ   रिसाई।
💧
झाँके  नासा,
बजते ताशा।
ढोल नँगाड़ा,
करें  तमाशा,
💧
आजा  वर्षा,
हँसे जवासा।
वर्षा💧रानी
खेती आशा।
💧
धरा   तृषित है,
कृषि पतित है।
कृषक जोहता,
मनो  दमित है।
💧
तपता  दासा,
चुभते फाँसा।
ऐसा  आतप,
घोर  निराशा।
💧
हँसे     जवासा,
फिर भी आशा।
मत कर   ऐसा,
आजा     वर्षा।
💧
कृषक कृश यथा,
डिगे   यश  वृथा।
अप  यश   होना,
असमंजस    था।
💧
खेला     कैसा,
मनो  पिपासा।
व्याकुल तन है,
गरमी    जैसा।
💧
मोर    हताशा,
हँसे   जवासा।
चातक  कहता,
वरषा💧वर्षा।
💧
तलैया  काल,
नदी  बे हाल।
ताल रिक्त हो,
रुके है  चाल।
💧
रही,जिजिविषा,
मन    जिज्ञासा।
तन   मन   हारे,
देय     दिलासा।
💧
नौका  आशा,
हँसे  जवासा।
गैया      चाहें,
बरसे💧वर्षा।
💧
रूंख विरूखे,
कुएँ  विसूखे।
कृषक बुभुक्षे,
अंतस  चीखे।
💧
मन के मन्शा,
खूब  तलाशा।
झाँसा ,झूँठन,
ग्रीष्म तराशा।
💧
सबकी भाषा,
चलते  श्वाँसा।
आए💧वर्षा,
मिटे  निराशा।
💧
पपिहा  तरषे,
आजा घर से।
हरष जवासा,
नयनन बरसे।
💧
दैव     दुराशा,
शकुनी पासा।
नौबत    बाजे,
होगा  जलसा।
💧
प्राणी   आशा,
हँसे   जवासा।
हर  मन  चाहे,
वर्षा💧बरसा।
💧
वन्यज    हर्षा,
गिरिवर तरषा।
कोयल कुहके,
बरसे💧बरषा।
💧
अच्छा खासा,
इनको हुलसा।
सर्वस💧दीखें,
कौआ प्यासा।
💧
चातक प्यासा,
हँसा  जवासा।
कबतक चीखें,
आजा💧वर्षा।
💧
पान  पताशा,
पूरित आशा।
भोग  लगाएँ,
सर्वस भाषा।
💧
अबहि न आये,
हम  गश खाये।
फिर  का बरसे,
तू💦पछताये।
💧
कहीं प्रलय जल,
हमें  अमर फल।
कहीं आज तक,
हमें  नहीं  कल।
💧
कहीं  बाढ़  है,
बिनाषाढ़   है।
शहर   तलैया,
कहीं खाड है।
💧
सब सम सरसा,
सबको   हरषा।
समझ   सयानी,
बरसो💧वरषा।
💦💦💦
(जवासा=
एक झाड़ी)
🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀
✍©
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"
सिकंदरा,303326
दौसा ,राजस्थान 9782924479
🌴🌴🌴🌴🌴🌴
"""""""""""मुक्तक"8 मात्रिक

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