. " छन्द " छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है ' आह्लादित " , प्रसन्न होना। छंद की परिभाषा- 'वर्णों या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। 'छंद के अंग'- 1.चरण/ पद-,- छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं। हिन्दी में कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि। चरण २ प्रकार के होते हैं- सम चरण और विषम चरण। 2.वर्ण और मात्रा - एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, वर्ण= स्वर + व्यंजन लघु १, एवं गुरु २ मात्रा 3.संख्या और क्रम- वर्णों और मात्राओं की गणना को संख्या कहते हैं। लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं। 4.गण - (केवल वर्णिक छंदों के मामले में लागू) गण का अर्थ है 'समूह'। यह समूह तीन वर्णों का होता है। गणों की संख्या-८ है- यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगण इन गणों को याद करने के लिए सूत्र- यमाताराजभानसलगा 5.गति- छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं। 6.यति- छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर श्वाँस लेने के लिए रुकना पड़ता है, रुकने के इसी स्थान को यति कहते हैं। 7.तुक- छंद के चरणान्त की वर्ण-मैत्री को तुक कहते हैं। (8). मापनी, विधान व कल संयोजन के आधार पर छंद रचना होती है। . ~ बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ
*लावणी छंद* : -- 'लावण्य' शब्द से सम्बद्ध लावणी , मराठा क्षेत्र से प्रचलित हुए लावणी नृत्य शैली से एवं लोक गायन शैली से सम्बद्ध ,भारतीय छंदों में लोक प्रिय है लावणी छंद। लावणी छंद गेयता में सहज सरस व आनंददायी होता है। यह सम मात्रिक , मापनीमुक्त छंद है। कल संयोजन व गेयता का ध्यान रखना आवश्यक है। लावणी छंद के विषम चरण में १६ एवं सम चरण में १४ मात्रा का विधान है। दो दो पद समतुकांत होंने चाहिए एवं चार चरण का एक छंद होता है। पदांत में एक गुरु ( २ ) गा, या बंधनमुक्त रखना ही ठीक रहे। क्योंकि इसी विधान में पदांत में गुरु गुरु (२२) गा गा होने पर कुकुभ छंद और गुरु गुरु गुरु (२२२) गा गा गा होने पर ताटंक छंद बनता है। 'विज्ञ लावणी छंद रस' पुस्तक में - सरस व आनंददायी लावणी छंद, लावणी छंद गीत, व लावणी छंद मुक्तक में उत्तम रचनाओं का पठन मनन कीजिए। सादर -- बाबू लाल शर्मा, बौहरा, 'विज्ञ' ------- . लावणी छंद मात् शारदे... स्तुति
मात् शारदे सबको वर दे, तम हर ज्योतिर्ज्ञान दें। शिक्षा से ही जीवन सुधरे, शिक्षा ज्ञान सम्मान दे।
चले लेखनी सरस हमारी, ब्रह्म सुता अभि नंंदन में। फौजी,नारी,श्रमी,कृषक के मानवता हित वंदन में।
उठा लेखनी, ऐसा रच दें, सारे काज सँवर जाए। सम्मानित मर्यादा वाली, प्रीत सुरीत निखर जाए।
पकड़ लेखनी मेरे कर में, ऐसा गीत लिखा दे माँ। निर्धन,निर्बल,लाचारों को, सक्षमता दिलवा दे माँ।
सैनिक,संगत कृषक भारती अमर त्याग. लिखवा दे माँ। मेहनत कश व मजदूरों का, स्वर्णिम यश लिखवा दे माँ।
शिक्षक और लेखनीवाला, गुरु जग मान, दिला दे माँ। मानवता से भटके मनु को, मन की प्रीत सिखा दे माँ।
हर मानव मे मानवता के, सच्चे भाव जगा दे माँ। देश धरा पर बलिदानों के, स्वर्णिम अंक लिखा दे माँ।
शब्दपुष्प चुनकर श्रद्धा से, शब्द माल में जोड़ू माँ। भाव,सुगंध आप भर देना, मै तो दो 'कर' जोड़ूँ माँ।
मातु कृपा से हर मानव को, मानव की सुधि आ जाए। मानवता का दीप जले माँ, जन गण मन का दुख गाएँ।
कलम धार,तलवार बनादो, क्रूर कुटिलता कटवा दो। तीखे शब्द बाण से माता, तिमिर कलुषता मिटवा दो। . -----
बाबू लाल शर्मा, बौहरा . लावणी छंद . माँ
माँ की ममता त्याग अनोखे, धरती सी धारण क्षमता। रीत सुप्रीत दुलार असीमित, अनुपम उत्तम है समता।
प्राणी जगत समूचा देखो, माँ जैसा सम्बन्ध नहीं। संतति के हित मरें मार दें, मिलता कब अनुबन्ध कहीं।
समझे खतरे प्रसव उठाती, माता संतति चाहत को। कष्ट असीम भोगती तन मन, शिशु अपने की राहत को।
कब सोती कब जगती है वो, क्या कब वह खाती पीती। सदा हारती संतानो से, तो भी लगे सदा जीती।
लगती गोद स्वर्ग से सुन्दर, चरणों में जन्नत का सुख। सप्तधाम सम माँ का तन मन, ईश्वर दर्शन माँ का मुख।
माँ का होना खुशी मंत्र है। माँ के गये बुढ़ापा है। लगे बाद में सभी पराये, माँ तक ही अपनापा है। . ------ बाबू लाल शर्मा,"बौहरा" विज्ञ
. अभिलाषा ( लावणी छंद ) मैं वैज्ञानिक बनू न जाऊँ, चन्द्र,ग्रहों की खोजों पर। नहीं विमान उड़ाना चाहा, सागर गगन फिरोजों पर।
सौंप अभी से दे माँ मुझको, भारत माँ के चरणों में। अभिलाषा है रज बन जाऊँ, सेना के शुभ वरणों में।
कब इच्छा है वीर चक्र या, परम वीर सम्मान मिले। चाह नहीं है ऐसी मुझको, ये उज्ज्वल अरमान मिले।
नहीं चाहता शान बढाने, ऊँचा अफसर बन जाना। सिंहासन, सत्ताधीशों या, राज की नजरों में आना।
ऊँचे ऊँचे पदक जीतकर, सत्ता में पद हथियाना। आरामी के,साज,सजाना, और प्रमादी हो जाना।
चाह नहीं है स्वर्ण संजोये, मै धनपति माना जाऊँ। या फिर मै धरती को घेरूँ, और मही पति कहलाऊँ।
यह भी चाह नहीं मेरी तो, संतति की बगिया झूमूं। वैभव का गुण गौरव गाने, देश, विदेशी, तीरथ घूमूँ।
मेरी तो बस चाह एक माँ, वरण देश के हित मे हो। मै तो माँ सैनिक हूँ , मेरा, मरण देश के हित में हो।
लिपट तिरंगे मे घर आऊँ, यह भी मेरी चाह नहीं। काया कतरा-कतरा बिखरे, इसकी भी परवाह नहीं। अभिलाषा मै रज बन जाऊँ, सेना के शुभ वरणों में। मैं तो सैनिक हूँ, मिल,जाऊं, भारत माँ के चरणों में। . ----- बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ
. बसंत~बहार . (लावणी छंद) चले मदन के तीर शीत में, तरुवर त्यागे पात सभी। रवि का रथ उत्तर पथ गामी, रीत प्रीत मन बात तभी।
व्यापे काम जीव जड़ चेतन, प्राकत नव सुषमा धारे। पछुवा पवन जलद के संगत, मदन विपद विरहा हारे।
बसंत बहार, रीत सृष्टि की, खेत फसल तरु तरुणाई। छवि मन स्वप्न सजे प्रियजन के, मन इकतारा शहनाई।
प्रीत बसंती,नव पल्लव तरु, मन भँवरा इठलाता है मौज बहारें तन मन मनती, विपद भूल सब जाता है।
ऋतु बसंत पछुवाई चलती, मौज बहारें चलती है। रीत प्रीत के बंधन बनते, विरहन पीड़ा पलती है।
बासन्ती ऋतु फाग बहारें, क्या गाती कोयल काली। कुछ दिन तेरी तान सुरीली, ऋतु फिर लू गर्मी वाली।
देख बहारे भरमे भँवरा, समझ रहा क्या मस्ताना। बीतेगी यह प्रीत बहारें, भूल रहा आतप आना।
फूलों पर मँडराती तितली, मधुमक्खी भी मद वाली। भूल रही मकरंद नशे में, गर्मी है आने वाली।
मानव मन भी मद मस्ती में, करें भावि हित मति भूले। गान बसंती फाग बहारें, चंग राग तन मन झूले।
अच्छे लगते कवि मन भाते, बासंती फाग फुहारें। कोयल चातक,तितली भँवरे, अमराई बौर बहारें।
खुशियाँ भी लाती कठिनाई, मन इसका भी ध्यान रहे। आगे गर्मी झुलसे तन मन, झोंपड़ियाँ विज्ञान कहे।
चार दिनों की कहे चंद्रिका, घनी अमावस फिर काली। करें पूर्व तैयारी मानव, मुरझे क्यों कोई डाली।
कहे बसंती यही बहारें, विपद पूर्व तैयारी की। ऋतु बहार में श्रम कर लेना, महक रहेगी क्यारी की।
केवल हमने लूट बहारे, हित धरती का नहीं किया। अपने हित में जीवन जीकर, पर हित कुछ क्यों नहीं दिया।
मानव हैं मानवता के हित, गाएँ गीत बहार सखे। बासंती यह रीत पुरानी, रीत प्रीत सौगात रखें। . ...........
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"
. राष्ट्र प्रेम हाला . (लावणी छंद)
मैं भारत का मूल मनुज हूँ, राम कृष्ण मैं भरत वही। मैने वेद रचे इस भू पर, लिखे हजारों काव्य यहीं। राष्ट्र धरा का रक्षण करता, परवाना खग मतवाला। वतन परस्ती करता हूँ मैं, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
युगों युगों से भारत माँ का, मैने ही अभिमान रखा। भले हलाहल पीया मैने, स्वाद शत्रु पहचान चखा। मै पोरस, शत्रु सिकंदर का, मानस यवन बदल डाला। अड़िग रहा मैं आन मान में, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
मै चाणक्य चन्द्र दोनो ही, राष्ट्र अखंडित नाद दिया। सैल्यूकस से डोला लेकर, एक शक्ति अरमान जिया। अर्थशास्त्र ने नवाचार की, खोली थी नव मधुशाला। जनमत ने ली थी अँगड़ाई, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
पृथ्वी राज, चंद्र वरदायी, मैं हम्मीर हठीला था। रतन सिंह गोरा अरु बादल, पद्मनि जौहर ज्वाला था। तेग बहादुर बन बेटों को, जीवित ही चिनवा डाला। देश धर्म पर प्राण दिए,तब पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
राणा चेतक पूँजा भामा, कब हारा मैं दुश्मन से। पूरा भारत नत मस्तक था, लड़ा अड़ा मैं तब मन से। हल्दीघाटी में मुगलों का, मर्दन करता मैं भाला। आनबान और शान निभाई, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
आर्य भट्ट मैं चरक वाल्मीकि, कालिदास कवि माघ बना। तुलसी मीरा सूर कबीरा, नानक रवि रसखान बना। महावीर अरु बुद्ध बना मैं, लिए धर्म ध्वज जय माला। धर्म मर्म से जन उजियारे, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला। झाँसी रानी , ताँत्या टोपे, मंगल पाण्डे वीर हुआ। मातृ भूमि की आजादी हित, कवि शिक्षक जन धीर हुआ। भगतसिंह आजाद बना मैं, इंकलाब का मद वाला। गोली खाई फाँसी चूमी, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
सैनिक श्रमिक किसान सभी मैं, भारत भाग्य विधाता हूँ। वही मनुज हूँ भारत भू का, कर्ण-दधीचि प्रदाता हूँ। मैने निज जीवन को अर्पित, किया वतन की मधुशाला। जन्म जन्म बलिदान करूँ मैं, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
मैं बापू मैं सत्य अहिंसा, नेहरु पंच शील दाता। लौह पुरुष, मैं ही सेनानी, भारत भू का मतदाता। भीमराव बन मैने ही नव, संविधान भी लिख डाला। सदा देश का चिंतन करता, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
सागर मथ कर रत्न निकाले, नदियों पर पुल बाँधे हैं। नहर निकाली, नदियाँ जोड़ी जन मत के हित साधे हैं। नीर नहर लाया मरु भू पर, वृक्ष लगा कर हरियाला। किया देश को विकसित मैने, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला।
तुम सब आओ मेरे संगत, राष्ट्र प्रेम के मिलन विरह। सबसे बढ़कर वतन प्रेम है, मैं समझाऊँ कठिन जिरह। मिलकर राष्ट्र बड़ा रखना है, तभी पियेंगे मधु प्याला। जीना मरना सर्व समर्पित, पी कर राष्ट्र प्रेम हाला। . RJ-1100/2018 बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ
अब तो... . कोई मीत मिले (लावणी छंद
कोयल जैसा कंठ बना कर, मीठे, सरगम ताल दिये, मै गीतों में मस्त रहा,बस, शिशु वायस ने पाल दिये।
रीति निभाई कुरजाँ जैसी अपने अंडे छोड़ दिए। मन में ही थे भाव प्रबल पर, दूजों के संदेश लिए।
तृष्णा मेरी पिया मिलन सी, जाने क्या क्या प्यास लिए। तृषित रही मनसा पपिहा सी, पावस जल की आस लिए।
चातक जैसी चाहत रहती, स्वाति बिन्दु की चाह लिए। एक बूंद भी पी नहीं पाया, कितने कितने दाव किए।
लिपट मोह में बना पतंगा कितने सारे जलें दिए। एक एक पर उड़ता फिरता दीप शिखा का मोह लिए।
श्रद्धा मेरी शबरी जैसी, राम मिलन की आस लिए। खट्टे मीठे बेर रखें हैं, मन के दृढ विश्वास जिए।
प्रीत बनी चकवे चकवी सी, दिन भर मन, माने मौजे । मन पागल या निशा बावरी, रजनी भर तारे खोजें।
टें..टें.करता रहा जन्म भर टिटहरियाँ सा अंडों पर, बच्चे अब जो बड़े हुए तो, मूक हुआ हथकण्डों पर।
प्रीत रीति सब परख निभाई, रीति प्रीत मन साथ जिए। प्रीति मिली कब रीति बची क्या, जलते जलते बुझें दिए।
प्रीति प्रेत सी भटके तन मन, रीति प्रेम तृष्णा संगत। चाहत ममता मोह चले सब पद धन माया के पंगत।
जीवन हुआ सुदामा जैसा, अब तो कोई मीत मिले। विदुर सरीखा मान फँसा हैं, छिलके खाती प्रीत मिले ।
जीवन बाती टिम टिम करती मन चाहे तन ज्योति जले। तैने दरश दिया कब छलिया, रीति निभा,मत प्रीत छले। --------
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ
लावणी छंद - . अमर शहीद . आजादी के हित नायक थे, . उनको शीश झुकाते हैं। भगत सिह सुखदेव राजगुरु, . अमर शहीद कहातें हैं। भगतसिंह तो बीज मंत्र सम, . जीवित है अरमानों में। भारत भरत व भगतसिंह को, . गिनते है सम्मानों में।
राजगुरू आदर्श हमारे, . नव पीढ़ी की थाती है। इंकलाब की ज्योति जलाती, . दीपक वाली बाती है। सुख देव बसे हर बच्चे में, . मात भारती चाहत है। जब तक इनका नाम रहेगा, . अमर तिरंगा भारत है।
जिनकी गूँज सुनाई देती, . अंग्रेज़ों की छाती में। वे हूंकार लिखे हम भेजें, . वीर शहीदी पाती में। इन्द्रधनुष के रंग बने वे, . आजादी के परवाने। उन बेटों को याद रखें हम, . वीर शहादत सनमाने।
याद बसी हैं इन बेटों की, . भारत माँ की यादों में। बोल सुनाई देते अब भी, . इंकलाब के नादों में। तस्वीरों को देख आज भी, . सीने फूले जाते हैं। उनके देश प्रेम के वादे, . सैनिक आन निभाते हैं।
वीर शहीदी परंपरा को, . उनकी याद निभाएँगे। शीश कटे तो कटे हमारे, . ध्वज का मान बढ़ाएँगे। श्रद्धांजलि हो यही हमारी, भारत माँ के पूतों को। याद रखें पीढ़ी दर पीढ़ी, . सच्चे वीर सपूतों को। . ----- बाबू लाल शर्मा, बौहरा
संघर्षों से... होड़ा-होड़ी ( लावणी छंद )
पीड़ा जिसको मिली विरासत, दुख तो संगत प्रतिपल है। बाधाओं से टकरा कर भी, रखा सत्य को अविचल है।
पग पग पर मैने अवरोधक, संघर्षों को झेला है। रेत घरौंदे बना बना कर, क्षणिक विपद को ठेला है।
विपदाओं में जब तब मैने, मदद माँगली अपनो से। मिला तमाचा मुँह पर ऐसे, ज्यों जागे हों सपनो से।
बन्धु सखा भी ऐसे प्यारे, दुश्मन की दरकार नहीं। कुटुम पड़ौसी हुए अराजक, लगता है सरकार नहीं।
दैव योग ने कमर कसी है, मैने कर ली *होड़ा- होड़ी*। संघर्षों में *सोना* तपना, आपद तू मत होना थोड़ी।
अपनो से भी हार न मानू, गैरों से भी नहीं रुकूँ। देश धरा हित जीना मरना, आतंको से नहीं झुकूँ।
जब तक तन में श्वाँस धौंकनी, आँख मिचौनी सुख दुख की। कलम चलेगी जन हित मेरी, पीर सलौनी कर मन की।
विपदाओं से घबरा कर अब, मन अभिलाषा क्यों छोड़ूँ,। रक्त-प्राण जब तक तन मेरे, डरूँ न दुख से मुख मोड़ू।
मातृभूमि का करके वंदन, मैं अपना तन शीश चढ़ाऊँ। प्रण मेरा है आज जमीं पर, आसमान तक कदम् बढ़ाऊँ।
मैने विपद महा रानी के, खट्टे खारे पट खोले। संघर्षो से उम्मीदें है, राहत मत दे , बम भोले। . ,,,,,,,,,, बाबू लाल शर्मा, बौहरा , विज्ञ
प्रकृति और मानव ( लावणी छंद ) प्यारी पृथ्वी जीवन दात्री, सब पिण्डों में, अनुपम है। जल,वायु का मिलन यहाँ पर, अनुकूलन भी उत्तम है। सब जीवो को जन्माती है, माँ के जैसे पालन भी। मौसम ऋतुएँ वर्षा,जल,का करती यह संचालन भी।
सागर हित भी जगह बनाती, द्वीपों में यह बँटती है। पर्वत नदियाँ ताल तलैया, सब के संगत लगती है। मानव ने निज स्वार्थ सँजोये, देश प्रदेशों बाँट दिया। पटरी सड़के पुल बाँधो से, माँ का दामन पाट दिया।
इससे आगे सुख सुविधा मे, भवन, इमारत पथ भारी। कचरा गन्द प्रदूषण बाधा, घिरती यह पृथ्वी प्यारी। पेड़ वनस्पति जंगल जंगल, जीव जन्तु जड़ दोहन कर। प्राकृत की सब छटा बिगाड़े, मानव ने अन्धे हो कर।
विपुल भार,सहती माँ धरती, निजतन धारण करती है। अन्न नीर,थल,जड़ चेतन का, सब का पालन करती है। प्यारी पृथ्वी का संरक्षण, अपनी जिम्मेदारी हो। विश्व सुमाता पृथ्वी रक्षण, महती सोच हमारी हो।
माँ वसुधा सी अपनी माता, यह शृंगार नहीं जाए। आज नये संकल्प करें मनु, माँ की क्षमता बढ़ जाए। नाजायज पृथ्वी उत्पीड़न, विपदा को आमंत्रण है। धरती माँ की इज्जत करना, वरना प्रलय निमंत्रण है।
पृथ्वी संग संतुलन छेड़ो, कीमत चुकनी है भारी। इतिहासो के पन्ने पढ़लो, आपद ने संस्कृति मारी। प्यारी पृथ्वी प्यारी ही हो, ऐसी सोच हमारी हो। सब जीवों से सम्मत रहना, वसुधा माँ सम प्यारी हो।
माँ काया से,स्वस्थ रहे तो, मनु में क्या बीमारी हो। मन से सोच बनाले मानव, कैसी, क्यों लाचारी हो। माँ पृथ्वी प्राणों की दाता, प्राणो से भी प्यारी है। पृथ्वी प्यारी माँ भी प्यारी, माँ से पृथ्वी प्यारी है।
मानव तुमको आजीवन ही, धरती ने माँ सम पाला। बन, दानव तुमने वसुधा में, तीव्र हलाहल ही डाला। मानव ने खो दी मानवता, छुद्र स्वार्थ के फेरों में। माँ का अस्तित्व बना रहता, आशंका के घेरों में।
वसुधा का शृंगार छिना अब पेड़ खतम वन कर डाले। जल, खनिजों का दोहन कर के, माँ के तन मन कर छाले। मातु मुकुट से मोती छीने, पर्वत नंगे जीर्ण किए। माँ को घायल करता पागल, उन घावों को कौन सिंए।
मातु नसों में सुधा समाहित, सरिता दूषित क्यूँ कर दी। मलयागिरि सी हवा धरा पर, उसे प्रदूषित क्यूँ कर दी । मातृशक्ति गौरव अपमाने, मानव भोले अपराधी। जिस शक्ति को आर्यावृत में, देव शक्ति ने आराधी।
मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्, "वन्य भेड़िये" क्यूँ बनते। अपनी माँ अरु बहिन बेटियाँ, उनको भी तुम क्यों छलते। माँ की सुषमा नष्ट करे नित, कंकरीट तो मत सींचे। मातृ शक्ति की पैदाइश तुम, शुभ्र केश तो मत खींचे।
ताल तलैया सागर,नाड़ी, नदियों को मत अपमानो। क्षितिजल,पावकगगन,समीरा, इनसे मिल जीवन मानो। चेत अभी तो समय बचा है, करूँ जगत का आवाहन। बचा सके तो बचा मानवी, कर पृथ्वी का आराधन।
शस्य श्यामला इस धरती को, आओ मिलकर नमन करें। पेड़ लगाकर उनको सींचे, वसुधा आँगन चमन करें। स्वच्छ जलाशय रहे हमारे, अति दोहन से बचना है। पर्यावरणन शुद्ध रखें हम, मुक्त प्रदूषण रखना है।
छिद्र बढ़ा ओजोन परत में, उसका भी उपचार करें। कार्बन गैस की बढ़ी मात्रा, ईंधन कम संचार करे। प्राणवायु भरपूर मिले यदि, कदम कदम पर पौधे हो। पर्यावरण प्रदूषण रोकें, वे वैज्ञानिक खोजें हो।
तरुवर पालें पूत सरीखा, सिर के बदले पेड़ बचे। पेड़ हमे जीवन देते है, मानव-प्राकृत नेह बचे। गऊ बचे मय पशुधन सारा, चिड़िया,मोर पपीहे भी। वन्य वनज,ये जलज जीव ये, सर्प सरीसृप गोहें भी।
धरा संतुलन बना रहे ये, कंकरीट वन कम कर दो। धरती का शृंगार करो सब, तरु वन वनज अभय वर दो। पर्यावरण सुरक्षा से हम, नव जीवन पा सकते हैं। जीव जगत सबका हित साधें, नेह गीत गा सकते हैं। . ------- बाबू लाल शर्मा 'विज्ञ'
....शेष अभी ( लावणी छंद ) . वक्त जरा चल धीमे धीमे, कर्ज चुकानेे शेष अभी। जीवन के सफर परिश्रम के , फर्ज निभाने शेष अभी।
जन्म लिया है जिस धरती पर, उसका ऋण है शेष सभी। निज मातृभूमि की रक्षा का धर्म निभाया नहीं कभी।
कुछ है अपने पन का बाकी। तन इंसानी यह दर्जा। फर्ज रुहानी शेष रहे कुछ। दर्द सही माँ का कर्जा।
कुछ देश धर्म का कर्जा है, पितृ कर्म भी करना है। पिता धर्म अपनाया है तो, मोह दण्ड भी भरना है।
इस जग के गोरख धन्धो को, खुद सुलझाना शेष अभी। कुछ मुझे सीखना शेष रहा, सबक सिखाऊँ बात सभी।
कुछ शौक,मौज भी करने है, शोक , मौन भी तो रखने। कुछ अपने कुछ कुछ सब के, स्वप्न बचे हो वे चखने।
इन निर्मल मन के लोगो हित , कपटी , दम्भी दुष्टों को। कुछ सबक सिखाने शेष रहे, नेह निभाने पुश्तों को।
जीवन तू भी आहिस्ता चल, कुछ फर्ज निभाने शेष सखे। कर्ज चुकाने अपने सपने, समय चक्र के रहन रखे।
हर कुल मे जन्मी कन्या को, मान दिलाना राह अभी। हर बेटी को सिखलाना है, और कर्ज की चाह अभी।
फिर मूल चुकाना उसका भी, ब्याज चुकाना बाकी है। धीरे चलना मीत समय तुम, कर्ज प्रदाता साकी है। . -------- बाबू लाल शर्मा,बौहरा 'विज्ञ'.
आज लेखनी .... . ....रुकने मत दो . ( लावणी छंद) . एक हाथ में थाम लेखनी, गीत स्वच्छ भारत लिखना दूजे कर में झाड़ू लेकर, घर आँगन तन सा रखना स्वच्छ रहे तन मन सा आंगन, घर परिवेश वतन अपना शासन की मर्यादा मानें सफल रहेगा हर सपना
अपनी श्वाँस थमें तो थम लें, जगती जड़ जंगम रखना जग कल्याणी आदर्शों में तय है मृत्यु स्वाद चखना आदर्शो की जले न होली मेरी चिता जले तो जल कलम बचेगी शब्द अमर कर, स्वच्छ पीढ़ि सीखें अविरल
रुके नही श्वाँसों से पहले मेरी कलम रहे चलती जाने कितनी आस पिपासा इन शब्दों को पढ़ पलती स्वच्छ रखूँ साहित्य हिन्द का विश्व देश अपना सारा शहर गाँव परिवेश स्वच्छ लिख चिर सपने सो चौबारा
आज लेखनी रुकने मत दो, मन के भाव निकलने दो। भाव गीत ऐसे रच डालो, जन के भाव सुलगने दो। जग जाए लहू उबाल सखे, भारत जन गण मन कह दो। आग लगादे जो संकट को, वह अंगार उगलने दो।
सवा अरब सीनों की ताकत, हर संकट पर भारी है। ढाई अरब जब हाथ उठेंगे, कर पूरी तैयारी है। सुनकर सिंह नाद भारत का, हिल जाएगी यह वसुधा। काँप उठें नापाक वायरस, रच दे कवि ऐसी समिधा।
कविजन ऐसे गीत रचो तुम, मंथन हो मन आनव का, सुनकर ही जग दहल उठे दिल, संकटकारी दानव का। जन मन में आक्रोश जगादो, देश प्रेम की ज्वाला हो। मानवता मन जाग उठे बस, जग कल्याणी हाला हो।
(आनव=मानवोचित) . बाबू लाल शर्मा , विज्ञ
वतन (लावणी छंद)
वतन,माप या भू हिस्से के, आकारों का नाम नहीं । सीमा रेखा में शासन का, सरकारों का काम नहीं।
वतन, जनो की व्यस्त बस्तियाँ, बसने का ही धाम नहीं। सत्ता धारी संविधान का, कोरा शुभ गुण गान नहीं।
देश, राष्ट्र या राज्य हमारा, प्यारा "हिन्दुस्तान" वतन। भारत माँ का युगों युगों का संतति हित सम्मान वतन।
महा हिमालय बहती,गंगा, यमुना नद जल धार रतन। सवा अरब की राष्ट्र चेतना, जनमत का वरदान वतन।
सागर चरण पखार, पूजता, 'जग गुरु' का सम्मान वतन। "प्राण जाय पर वचन न जाई" उस थाती का नाम वतन।
"विभिन्नता में रहे एकता" संस्कृति का शुभ नाम वतन। जग कल्याणी सोच पुरा से सनातनी शुभ 'वेद' वतन।
"वसुधैव कुटुम्बी" कहें सदा, पावन यह शुभ सोच वतन। "देश भूमि, जो सोना उगले", गाने, का है मान वतन।
"डाल डाल सोने की चिड़िया" "करे बसेरा" कहते जन। 'स्वर्ण पखेरू' विरुद देश का बौद्ध जैन का मान वतन।
"ऐ मेरे ...... वतन के लोगों",, गाने के ही भाव वतन। "दूध दही की नदियाँ बहती" ऐसा शुभ अरमान वतन।
वंदे मातरं, जन गण मन व भारत माँ का जयकारा। अमर तिरंगा तन से प्यारा, अभिमानी वतन हमारा।
'दिल दिया है जान् भी देंगे' मान तिरंगे करे जतन। "तुम्हारे लिए वतन साथियों" कहती निभती रीत वतन।
रिश्तों, भाषा, धर्मो से भी यह प्यारा अलफाज वतन। निज , जान मान सम्मान शान, सबसे ऊँची, सोच वतन।
गोली,फाँसी काला पानी, इंकलाब जय हिन्द जतन। शीश कटाए हेतु देश के, उन वीरों के नाम वतन।
पन्ना, पद्ममिन , कर्मा, मीरा, झाँसी की लक्ष्मी रानी। तुलसी, दिनकर,सूर कबीरा, गुरु नानक दादू वानी। यही वतन है अपना, भारत, पूज्य प्राण पावन सपना। इसके खातिर जिऐ मरेंं हम, वंदेमातरम् मन जपना।
वतन हमारा जय जवान का, बस कफन तिरंग कमाई । माँ के खत पढ़, शान .से .गाते, "वतन...की...चिट्ठी....आई"।
भरत राम चाणक्य शिवाजी, राणा,गुरु सिख पंथ रतन। भगत सिंह,शेखर,अरु गाँधी, वीर- सपूती धरा वतन।
कदम कदम माँ ,धरती जन्में, हीरे मोती खनिज रतन। राम, कृष्ण की कर्म भूमि यह प्यारा भारत वर्ष वतन।
मंदिर,मस्जिद, गुरु द्वारों, का यह पावन शुभ धाम वतन। पंचशील का प्रबल समर्थक, मेरा भारत वर्ष वतन। ------ बाबू लाल शर्मा, बौहरा
लावणी छंद . बेटी . बेटी है अनमोल धरा पर, उत्तम अनुपम सौगातें। सृष्टि नियंता मात् पुरुष की, ईश जन्म जिससे पाते। बेटी से घर आँगन खिलता, परिजन प्रियजन सब हित में। इनका भी सम्मान करें ये, जीवन बाती परहित में।
बेटी सबकी रहे लाड़ली, सबको वह दुलराती है। ईश भजन सी शुद्ध दुआएँ, माँ बनकर सहलाती हैं। बेटी तो वरदान ईश का, जो दुख सुख को सम साधे। बहिन बने तो आशीषों से, रक्ष सूत बंधन बाँधे।
मात पिता घर रोशन करती, पिय घर जाकर उजियाली। मकानात को घर कर देती, घर लक्ष्मी ज्यों दीवाली। बेटी जिनके घरों न जन्मे, लगे भूतहा वह तो घर। जिस घर बेटी चिड़िया चहके, उस घर में काहे का डर।
मर्यादा बेटी से निभती, बहु बनती है लाड़ो जब। रीत प्रीत के किस्से कहती, नानी दादी मानो तब। दुर्गा सी रण चण्डी बनती, मातृभूमि की रक्षा को। कौन भूलता भारत भू पर, रानी झाँसी,इन्द्रा को।
करे कल्पना अंतरिक्ष की, सच में सुता कल्पना थी। पेड़ के बदले शीश कटाए, उनके संगी अमृता थी। सिय सावित्री राधा मीरा, रजिया पद्मा याद करो। गीत लता आशा अनुराधा, संगत भी आह्लाद भरो।
शिक्षा और चिकित्सा देखो, पीछे कब ये रहती हैं। दिल दूखे तब पूछूँ सबसे, अनाचार क्यों सहती है। जग जननी को गर्भ मारते, हम ही तो सब दोषी हैं। नारिशक्ति को जो अपमाने, पूर्वाग्रह संपोषी है।
बेटी का सम्मान करें हम, नारि शक्ति को सनमाने। विविध रूप संपोषे इनके, सुता शक्ति को पहचाने। इनको बस इनका हक चाहे, लाड़ प्यार अकसर दे दो। आसमान छू लेंगी तय है, बेटे ज्यों अवसर दे दो। . ------- बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ
. दर्पण . ( लावणी छंद )
देखें जन सूरत दर्पण में, खीझ रींझ जन जाते तब। भावुक अपनी सूरत मलते, दर्पण दोष जताते अब।
दर्पण खिलजी ने देखा था, समझ गया रजपूतों को। चित्तौड़ी जौहर ज्वाला मय, आन मान रण दूतों को।
भूल चुके मनु कर्मो को ही मन दीवाने लगते है। मानवता की बात गई सब, परवाने से जलते हैं।
दर्पण क्यों ये साँच छुपाता, काले रँगते बालों का। प्रसाधनों में छिपे हुए उन, झुर्री वाले गालों का।
दर्पण उन्हे दिखादो यारो, श्वेत वेष में कौवे जो। देश सुरक्षक माने जाते नेता सच में हौवे जो।
दर्पण कभी दिखादो उनको, जिनके गोरख धन्धे है। कुत्ते महँगे लगते जिनको भूखे बच्चे मंदे हैं।
दर्पण देखें भ्रष्टाचारी, नेता अरु अधिकारी भी। नारि शक्ति को जो अपमाने, वे बदजात विकारी भी।
लोकतंत्र के प्रहरी बन जो, अधिकारों का हनन करें। झूँठे वादे कर जन ठगते, लाख करोड़ो गवन करे।
सच्चा दर्पण हो तो यारों, हम भी देखें निज सूरत। ठकुर सुहाती तज कविताई, लिख दें निर्बल की मूरत। . -------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" *विज्ञ*
कैसे कह दूँ , साल नई . ( लावणी छंद )
जब किसान की खेती उजड़े, माला माल रहे अफसर। मजदूरों की दशा न बदले, नई साल आती अकसर।
न फसल पकी,न मौसम बदले, धरती बड़ी बदहाल है, बिन मौसम कोयल कब बोले, कैसे कह दूँ साल नई।
इतिहासों को बदल रहे हैं, धन पश्चिम की चाल नई। हाय हलो गुडमोर्निंग कहते, राम श्याम बदहाल कई।
लोकतंत्र का ढोल पीटते, नेता नटवर लाल कई। जनता को सब तरह लूटते, कैसे कह दूँ साल नई साल।
विगत समय मे क्या बदला है, रिक्त नदी सर ताल कई। मात्र कलेण्डर बदला है,फिर कैसे कह दूँ साल नई।
आप मनाओ नई साल को आएगी फिर साल नई। खाँस रहे सर्दी में दुबके, मित्रों बाबू लाल कई। . ------
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ
जुस्तजू (लावणी छंद) माँ मुझको दे तिलक विदाई, सीमाओं पर जाना है। आतंकी अरु शत्रु देश के, नस्ली वंश मिटाना है।
जन्म जुस्तजू तेरे आँचल, अब अभिलाषा सीमा पर। जब तक श्वाँस चलेगी,मेरी, डटा रहूँगा सीमा पर।
वैज्ञानिक बन के क्यों जाऊँ, चन्द्र , ग्रहों की खोजों पर। नहीं विमान उड़ाना चाहूँ सागर पर,नभ मौजों पर।
सौंप-समर्पण दे माँ मुझको, भारत माँ के चरणों में। इच्छा है रजकण बनजाऊँ, सेना के शुभ वरणों में।
नहीं जुस्तजू वीर चक्र या, परम वीर सम्मान मिले । चाह नहीं है यह भी मुझको कुछ ऊँचे अरमान मिले ।
नहीं चाहता शान बढाऊँ, ऊँचा अफसर बन जाना। सिंहासन,सत्ताधीशों या, राज की नजरों मे आना।
ऊँचे ऊँचे पदक जीतकर, सत्ता में पद हथियाना। आरामी के,साज,सजाना और प्रमादी हो जाना।
चाह नहीं है स्वर्ण सींचकर मै धनपति माना जाऊँ। या फिर मै धरती को घेरूँ, और भूमि पति कहलाऊँ।
अभिलाषा है कब मेरी ये, संतति की बगिया झूमूँ। वैभव का गुण गौरव गाते देश,देश तीरथ घूमूँ।
मेरी तो बस चाह एक,यह *वरण देश के हित मे हो।* मै तो माँ सैनिक हूँ , मेरा, *मरण देश के हित में हो।*
दुश्मन को मैं मार भगाऊँ, भू का गौरव गान करूँ। *माँ* बलिवेदी साज सजाऊँ, मातृभूमि सम्मान करूँ।
देश चैन से सोएँ, अपना, जन गण मन के गान करें। खूब विकास करे भारत का, सब मिल जन कल्याण करें।
भारत माँ का अमन चुरा ले, दुश्मन को यह ज्ञात नहीं। माँ की चूनर को जो खींचे, दुश्मन की औकात नहीं।
जिन्दा रहना तेरे खातिर, मरूँ राष्ट्र शुभ आशा में। अमर तिरंगा चमन रहे माँ, जन्म,मरण अभिलाषा में।
लिपट तिरंगे मे घर आऊं, यह भी मेरी चाह नहीं। काया,कतरा-कतरा बिखरे, इसकी भी परवाह नहीं। इच्छा है रजकण बनजाऊँ, सेना के हर वरणों में। मैं तो सैनिक हूँ मिल जाऊँ, *माँ के शुभ आचरणों में।* , '''''''''''''''''''''''' बाबू लाल शर्मा
. शृंगार . ( लावणी छंद ) शृंगार करें प्राकृत ये धानी, मातृभूमि माँ शुभदा का। भारत का शृंगार करें हम, कान्हा राधा यसुदा का।
धरती का श्रृंगार पेड़ हैं, शुद्ध बनाएँ वन आँगन। मातृभूमि के गौरव के हित, शत्रु दमन कर रज पावन।
प्रिय लगता शृंगार तिरंगा, लहर लहर वो लहराए। जन्म भूमि का गीत सुहाना, आओ हम मिल कर गाएँ।
भारत माँ के हम शृंगारी, हिम का ताज अकंटक हो। विन्ध्याचल गिरि रहे मेखला, गंग यमुन निष्कंटक हो।
सागर चरण पखारे इसके, उज्ज्वल चरणों नमन करें। देशधरा की कण कण माटी, आओ मिलकर चमन करें।
खेत किसानी सम्बल पाए, धानी चूनर तब खिलती। सीमा पथ हित संरक्षण से, माँ की थाती बढ़ मिलती।
करना तो शृंगार वतन का, फूले फले अमन छाए। स्वयं लहू का टीका करके, माँ की रक्षा हित जाएँ। . -----
बाबू लाल शर्मा
गणतंत्र . (लावणी छंद)
पुरा कहानी,याद सभी को, मेरे देश जहाँन की। कहें सुने गणतंत्र सु गाथा, अपने देश महान की।
सन सत्तावन की गाथाएँ, आजादी हित वीर नमन। रानी झाँसी नाना साहब, ताँत्या से रणधीर नमन।
तब से आजादी तक देखो, युद्व रहा ये जारी था। वीर हमारे नित मरते थे, दर्द गुलामी भारी था।
जलियाँवाला बाग बताता, . नर संहार कहानी को। भगतसिंह की फाँसी कहती, . इंकलाब की वानी को।
शेखर बिस्मिल ऊधम जैसे, . थे कितने ही बलिदानी। कितने जेलों में दम तोड़े, . कितनों ने काले पानी।
बोस सुभाष गोखले गाँधी, कितने नाम गिनाऊँ मैं। अंग्रेजों के अनाचार के, कैसे किस्से गाऊँ मैं।
गाँधी की आँधी,गोरों के, आँख किरकिरी आई थी। विश्वयुद्ध से सबक मिला था कुछ नरमाई आई थी।
आजादी हित डटे रहे वे, देशभक्त सेनानी थे। क्रांति बीज से फसल उगाते, मातृभूमि अरमानी थे।
आखिर मे दो टुकड़े होके, मिली देश को आजादी। हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़के, खूब हुई थी बरबादी।
संविधान परिषद ने ऐसा, नया विधान बनाया था। छब्बीस जनवरी सन पचास, में लागू करवाया था।
बना देश गणतंत्र हमारा, खुशियाँ के त्यौहार मने। राष्ट्रपति व संसद भारत के मतदाता हर बार चुने।
आज विश्व मे चमके भारत, ध्रुवतारे सा बन स्वतंत्र। करें वंदना भारत माँ की, रहे सखे अमर गणतंत्र।
लोकतंत्र सरताज विश्व में, लिखे शोध संविधान है। लाल किले लहराय तिरंगा, ऐसे लिए अरमान है।
उत्तर पहरेदार हमारा, पर्वत राज हिमालय है। संसद ही सर्वोच्च हमारी, संवादी देवालय है।
आज विश्व में भारत माँ के, घर घर मे खुशहाली है। गणतंत्र पर्व के स्वागत को, सजे आरती थाली है।
सेना है मजबूत हमारी, बलिदानी है परिपाटी। नमन करें हम भारत भू को, और चूमलें यह माटी।
गणतंत्र रहे सम्मानित ही, मेरे प्राण रहे न रहे। ऊँचा रहे तिरंगा अपना, मन में यह अरमान रहे। . ------
बाबू लाल शर्मा
प्यारी पृथ्वी ( लावणी छंद ) प्यारी पृथ्वी जीवन दात्री, सब पिण्डों में, अनुपम है। नीर,वायु का मिलन यहाँ पर, अनुकूलन भी उत्तम है। सब जीवो को जन्माती है, माँ के जैसे पालन भी। मौसम ऋतुएँ वर्षा,जल,का करती यह संचालन भी।
सागर हित भी जगह बनाती, द्वीपों में यह बँटती है। पर्वत नदियाँ ताल तलैया, सब के संगत लगती है। मानव ने निज स्वार्थ सँजोये, देश प्रदेशों बाँट दिया। पटरी सड़के पुल बाँधो से, माँ का दामन पाट दिया।
इससे आगे सुख सुविधा मे, भवन, इमारत पथ भारी। कचरा गन्द प्रदूषण बाधा, घिरती यह पृथ्वी प्यारी। पेड़ वनस्पति जंगल जंगल, जीव जन्तु जड़ दोहन कर। प्राकृत की सब छटा बिगाड़े, मानव ने अन्धे हो कर।
विपुल भार,सहती माँ धरती, निजतन धारण करती है। अन,धन,जल,थल,जड़चेतन का, सब का पालन करती है। प्यारी पृथ्वी का संरक्षण, अपनी जिम्मेदारी हो। विश्व सुमाता पृथ्वी रक्षण, महती सोच हमारी हो।
माँ वसुधा सी अपनी माता, यह शृंगार नहीं जाए। आज नये संकल्प करें मनु, माँ की क्षमता बढ़ जाए। नाजायज पृथ्वी उत्पीड़न, विपदा को आमंत्रण है। धरती माँ की इज्जत करना, वरना प्रलय निमंत्रण है।
पृथ्वी संग संतुलन छेड़ो, कीमत चुकनी है भारी। इतिहासो के पन्ने पढ़लो, आपद ने संस्कृति मारी। प्यारी पृथ्वी प्यारी ही हो, ऐसी सोच हमारी हो। सब जीवों से सम्मत रहना, वसुधा माँ सम प्यारी हो।
माँ काया से,स्वस्थ रहे तो, मनु में क्या बीमारी हो। मन से सोच बनाले मानव, कैसी, क्यों लाचारी हो। माँ पृथ्वी प्राणों की दाता, प्राणो से भी प्यारी है। पृथ्वी प्यारी माँ भी प्यारी, माँ से पृथ्वी प्यारी है।
मानव तुमको आजीवन ही, धरती ने माँ सम पाला। बन,दानव तुमने वसुधा में, तीव्र हलाहल क्यों डाला। मानव ने खो दी मानवता, छुद्र स्वार्थ के फेरों में। माँ का अस्तित्व बना रहता, आशंका के घेरों में।
वसुधा का श्रृंगार छिना अब पेड़ खतम वन कर डाले। जल, खनिजों का दोहन कर के, माँ के तन मन कर छाले। मातु मुकुट से मोती छीने, पर्वत नंगे जीर्ण किए। माँ को घायल करता पागल, उन घावों को कौन सिंए।
मातु नसों में अमरित बहता, सरिता दूषित क्यूँ कर दी। मलयागिरि सी हवा धरा पर, उसे प्रदूषित क्यूँ कर दी । मातृशक्ति गौरव अपमाने, मानव भोले अपराधी। इसी शक्ति को आर्यावृत में, देव शक्ति ने आराधी।
मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्, "वन्य भेड़िये" क्यूँ बनते। अपनी माँ अरु बहिन बेटियाँ, उनको भी तुम क्यों छलते। माँ की सुषमा नष्ट करे नित, कंकरीट तो मत सींचे। मातृ शक्ति की पैदाइश तुम, शुभ्र केश तो मत खींचे।
ताल तलैया सागर,नाड़ी, नदियों को मत अपमानो। क्षितिजल,पावकगगन,समीरा, इनसे मिल जीवन मानो। चेत अभी तो समय बचा है, करूँ जगत का आवाहन। बचा सके तो बचा मानवी, कर पृथ्वी का आराधन।
शस्य श्यामला इस धरती को, आओ मिलकर नमन करें। पेड़ लगाकर उनको सींचे, वसुधा आँगन चमन करें। स्वच्छ जलाशय रहे हमारे, अति दोहन से बचना है। पर्यावरणन शुद्ध रखें हम, मुक्त प्रदूषण रखना है।
छिद्र बढ़ा ओजोन परत में, उसका भी उपचार करें। बढ़ी गैस कार्बन की मात्रा, ईंधन कम संचार करे। प्राणवायु भरपूर मिले यदि, कदम कदम पर पौधे हो। पर्यावरण प्रदूषण रोकें, वे वैज्ञानिक खोजें हो।
तरुवर पालें पूत सरीखा, सिर के बदले पेड़ बचे। पेड़ हमे जीवन देते है, मानव-प्राकृत नेह बचे। बचे संग गो पशुधन सारा, चिड़िया,मोर पपीहे भी। वन्य वनज,ये जलज जीव ये, सर्प सरीसृप गोहें भी।
धरा संतुलन बना रहे ये, कंकरीट वन कम कर दो। धरती का शृंगार करो सब, तरु वन वनज अभय वर दो। पर्यावरण सुरक्षा से हम, नव जीवन पा सकते हैं। जीव जगत सबका हित साधें, नेह गीत गा सकते हैं। . -----
बाबू लाल शर्मा
लावणी छंद . आँसू ये नेत्र मनुज के जन्मों से, सुख दुख दर्श पिपासू है। नयन सेज संचय से बहता, सीकर झरना आँसू है।
मन के पावनतम भावों का, रस कल्पासव आँसू है। खुशियाँ,गम दोनों ले आते, ये जिज्ञासू आँसू है।
उभय वर्गी है जीवन इनका, यौवन जीवन, कुछ पल का। किसी नैन मोती से चमके, यह झरना आतप जल का।
वीर शहादत पर आते हैं, सात समन्दर सम आँसू। अकथ कहानी बने हुए जो, विहग मोर नर्तन आँसू।
राष्ट्र सृजन में प्राण गँवाये, उन्हे नमन् आँसू करते। धरा-पूत गर्दिश मे हो तब, मन वंदन आँसू करते।
मीत मिले मन खुशियाँ झूमें, आँसू राधे श्याम मिलन। बिछुड़न तिक्तसजा है मनकी, विरहा सीता राम मिलन।
करें विदाई जब बेटी की, वज्र पिता के दृग आँसू। बेटे घर से करे पलायन, माँ की आँखे मय आँसू।
मात पिता के इंतकाल में, अश्क छलकते संतति के। संतानो के अंत दर्श फिर, पितर अश्क भव अवगति के।
वृद्धाश्रम में जाकर देखे, मनके अश्क पिरोते वे। घर अनाथ मे जाके देखें, सिंधु नीर सम रोते वे।
दीन हीन दिव्यांग जनों के, अश्क रहन से रहते। सत्जन धीर वीर सतसंगी, अश्रु सहेजे वे रखते।
नयन अश्रु खारा जल होते, सिन्धु बिन्दु,गंगा स्रोते। दुख में अश्रु् स्वाति की बूँदे, सुखमय अश्रु सहज होते।
शिशु के अश्रु सरलतम् होते, पाहन मन वत्सल देते। पुरुष अश्रु पाषाणी होते, जन वीभत्सक सम लेते।
नारी दृग आँसू के सागर, पल में करुणा गागर ये। मिलन जुदाई उभय भावना, बहते करुणा पाकर ये।
राधा रानी गोपी सखियाँ, कृष्ण प्रेम दीवानी थी। मीरा सबके अश्रु पी गई, राधा मन की रानी थी।
सिय के आँसू पावन अमरित, गोद समाए, धरती के प्रायश्चित श्री राम के आँसू, हेतु गमाए,जगती के।
प्रेमी जोड़े लैला मजनूँ, आँसू रोये, धार बहे। प्रबलखार से,उन अश्कों से सप्त सिंधु जल खार रहे। . ------
बाबू लाल शर्मा
,..माँ,.महकाएँ (लावणी छंद) . दिव्य जनों के,देव लोक से, कैसे,नाम भुलाएँगे। कैसे भैया इन्द्रधनुष के प्यारे रंग चुराएँगे। सिंधु,पिण्ड,नभ,हरि,मानव भी उऋण नहीं हो पाएँगें। माँ के प्रतिरूपों का बोलो, कैसे कर्ज चुकाएँगे।
माँ को अर्पित और समर्पित, अक्षर,शब्द सहेजे हैं। उठी लेखनी मेरे कर से, भाव मात ने भेजे है। पश्चिम की आँधी में अपना, निर्मल मन, क्यों बहकाए आज नया संकल्प करें हम, माँ की ऋजुता महकाएँ। ------- मात प्रकृति ब्रह्माण्ड सुसृष्टा, कुल संचालन करती है। सूर्य चन्द्र, नक्षत्र, सितारे, ग्रह,उप ग्रह, सब सरती है। जगमाता का रक्षण वंदन, पर्यावरण सुरक्षा हो। बना रहे ब्रह्माण्ड संतुलन, मन इच्छा है रक्षा हों।
माता प्राकृत,माता जननी, सृष्टि चक्र क्रम चलवाए। आज नया संकल्प करे हम, माँ की समता महकाएँ। ------- विपुल भार माँ धरती सहती, तन पर धारण करती है। अन्न नीर,थल,जड़ चेतन के, जो सम् पालन करती है। इस धरती का संरक्षण तो, अपनी जिम्मेदारी हो। विश्व सुमाता पृथ्वी रक्षण, महती सोच हमारी हो।
माँ,वसुधा सम् अपनी माता, माँ का श्रृंगार न जाए। आज नया संकल्प करें हम, माँ की क्षमता महकाएँ। --------- मात भारती, स्वयं देश की, नित्य आरती करती है। निज संतति के सृजन कर्म से, शुभ सौभाग्य सँवरती है। माँ, बलिवेदी बनी रहेगी, बस इतना अरमान रहे। दुष्ट जनों के आतंको से, मुक्त रहे माँ ध्यान रहे। ---------- भारत माता सी निज माता, माँ के हित सिर झुकजाए। आज नया संकल्प करे हम, माँ की ममता महकाएँ। ------- मात शारदे सबको वर दे, तम हर अक्षर आनन दें। शिक्षा से ही जीवन सुधरे, भाव प्रभाव सुपावन दे। चले लेखनी सतत हमारी, ब्रह्मसुता अभिनंंदन में। सैनिक,कृषक,श्रमिक,माता,के, मानवता के वंदन में।
उठा लेखनी, ऐसा रच दें, सारे काज सँवर जाएँ। आज नया संकल्प करें हम, माँ की शिक्षा महकाएँ। ------- माँ जननी है हर दुख हरनी, प्राणों का जो सृजन करे। सर्व समर्पित करती हम पर, निज श्वाँसों से श्वाँस भरे। माँ के हाथों की रोटी का, रस स्वादन पकवान परे। माँ की बड़ बड़ वाली लोरी, सप्त स्वरों से तान परे।
माँ का आँचल स्वर्गिक सुन्दर, कैसे गौरव गान करें। माँ के चरणों में जन्नत है, क्या,क्या हम गुणगान करें। माँ की ममता मान सरोवर, सप्तधाम सेवा फल है। माँ का तप हिमगिरि से ऊँचा, हम भी उस तप के बल है।
माँ की सारी बाते लिख दे किस की वह औकात सखे। वसुन्धरा को कागज करले, सागर यदि मसिपात्र रखे। और लेखनी छोटी पड़ती, सब वृक्षों को कलम करे। राम,खुदा,सत संत,पीर,जन, माँ के चरणों नमन करे।
उस माँ का सम्मान करें हम, वह भी शुभफल को पाए। सोच समर्पण की रखले तो, वृद्धाश्रम माँ क्यों जाए। मातृशक्ति जन की जननी है, बात समझ यह आ जाए। आज नया संकल्प करें हम, माँ की सत्ता महकाएँ। ---- गौमाता है खान गुणों की, भारत में सनमानी है। युगों युगों से महिमा इसकी, जन गण मन ने मानी है। भौतिकता की चकाचौंध में, गौ, कुपोषित न हो जाएँ अल्प श्रमी हम बने अगर तो, कभी गाय कट क्यों पाए।
निज माता सम् गौ माता हो, भाव भक्ति मय बन पाए। आज नया संकल्प करे हम, माँ की शुचिता महकाएँ । ---- माँ गंगा, यमुना, नद, नर्मद, कावेरी सी सरिताएँ। वसुधा का शृंगार करें ये, खेत सजे वन वनिताएँ। इनका भी सम्मान करें ये, तृषिता कभी न हो पाएँ। सब पापों को हरने वाली, माँ न प्रदूषित हो जाएँ।
सरिताएँ माता सब निर्मल, पावन मानस भा जाएँ। आज नया संकल्प करें हम, *माँ* की कमिता महकाएँ। ----- मैने शब्द सुमन चुन चुन के, शब्द माल में गिन जोड़े। भाव, भावना माँ शारद के, मैने दोनो कर जोड़े। मात् कृपा से हर मानव को, मानवता सुधि आ जाए। आज नया संकल्प करें हम *माँ* वरदानी हो जाए। ----------
बाबू लाल शर्मा
पन्ना धर्म निभाना है (सैनिक को, माँ की पाती) (लावणी छंद) पुत्र तुझे भेजा सीमा पर, भारत माता का दर है। पूत लाडले ,गाँठ बाँध सुन, वतन हिफाजत तुझ पर है। त्याग हुआ है बहुत देश में, जितना सागर में जल है। अमर रहे गणतंत्र हमारा, आजादी महँगा फल है।
आतंकी को गोली,मारो, इसके ही वो काबिल है। दिल्ली को वे तिरछे देखे, यह तो भारत का दिल है। काशमीर की केशर क्यारी, स्वर्गिक मूल धरोहर है। सूर्य पुत्र की रजधानी थी, वह डल पुन्य सरोवर है।
काशमीर के आतंकी तो, बन्दूकों के काबिल है। उनसे सीधे स्वर्ग छुड़ाओ, स्वर्ग सुखों से गाफिल है। चौकस रहना,सीमाओं पर, नींद चुरा कर जगना है। खटका हो तो उसके पीछे, चौकस हो कर भगना है।
मेरी तुम जो याद करो तो, मृदा वतन की रख लेना। घर परिवारी याद सँजोने, कभी पत्र भी लिख देना। पीठ दिखानी नही कभी भी, सीना ताने रखना है। जब तक तन में श्वाँस,तिरंगा, ऊँचा थामे रखना है।
लोकतंत्र की माँ संसद है, संवादी देवालय है। संविधान प्रभुमूरत सा है, लोकतंत्र विद्यालय है। "भारत माटी सोना उगले", बना रहे अफसाना है। विश्वगुरू भारत है जग में, 'सोन चिड़ी' पैमाना है।
सम्प्रभुता मेरे भारत की, सैनिक की मुस्तैदी से। जनगणमन का गान,तिरंगा, भारत माँ बलि वेदी से। मैने तुझको भेज दिया है, भारत माँ की सेवा है। मात भारती अपनी माँ है, सेवा का फल मेवा है।
बेटा अपना शीश कटाकर, वतन बड़ा कर जाना है। पीठ दिखा के बचते,जिन्दा, नहीं लौटकर आना है। सीने पर गोली खा लेना, मान तिरंगा रखना है। लिपट तिरंगे में घर आना, माँ का दूध परखना है।
डरूँ नहीं, क्यूँ आँसू टपके, वीर मात कहलाना है। अंतिम पथ तक पूत लाड़ले, तुझको तो पहुँचाना है। भारत माँ हित,पिता, गये थे, पति का भी परवाना है। तुझको खोकर पूत लाड़ले, 'पन्ना धर्म' निभाना है।
माँ पन्ना ने धाय धर्म हित, सुत चन्दन कुर्बान किया। मैने उस बलिदान रीत को, 'पन्ना धर्म सुनाम दिया।
मैं भी अपना धर्म निभाऊँ, प्यारा वतन बचाना है। करले याद शहीद मात की, सुत का धर्म निभाना है।
कितनी ही अबला सबलाएँ "पन्नाधर्म' निभाती है। उन ललनाओ के संयम पर, आँखें अश्रु बहाती है। जीवन है बस बिन्दु सिंधु सम, मानव फर्ज निभाना है। तू भी पल में जल मिल जाना, कर्जा कोख चुकाना है।
सत्ता धारी अफसर,नेता, मुझे नहीं--कुछ कहना है। देश,देश की जनता को ही, सब खुद ही तो सहना है। खुद समझे सम्मान करे,या, "उत्पीड़न' परिवारो को। मरे वतन हित,गई पीढ़ियों, फौजी पहरेदारों को। मेरा तो पैगाम तुम्हे बस, प्रीत सुरीत निभानी है। देश प्रेम की बुझती लौ में, फिर से आग लगानी है। . ------ बाबू लाल शर्मा
: विश्व बाल मजदूरी निषेध दिवस 12 जून . . बाल मजदूर (लावणी छंद) (अर्थ,कारण,दशा व निवारण)
राज,समाज,परायों अपनों, के कर्मो के मारे हैं। घर परिवारी हुये किनारे, फिरते मारे मारे हैं। आग पेट की सोचे निकले, देखो ये सब दीवाने। बाल श्रमिक है भ्रमित बिचारे, हार हार कर मस्ताने।
भाग्य दोष या कर्म लिखे की, बात नहीं जज्बात नहीं। यह विधना की हमको कोई, हे मनु नव सौगात नहीं। मानव के गत कृतकर्मो का, फल बच्चे भुगते ऐसे। इससे ज्यादा और शर्म की, कोई बात नही कैसे।
याया वर से कैदी से ये, दीन हीन से पागल से। बाल श्रमिक श्रम करते दिखते, लगते जैसे घायल से। पेट भरे कब तन ढकता कब, ऐसे क्या उपकारी हैं। खून चूसने वाले इनके, मालिक अत्याचारी हैं।
ये बेगाने से बेगारी, दास प्रथा अवशेषी है। इनको आवारा मत बोलो, दोषों के अन्वेषी हैं। सत्सोचें सच मे ही क्या ये, सच में सच्चे दोषी है। या मानव की सोचों की यह, सरे आम मद होंशी है।
जीने का हक दे दो इनको, रोटी वस्त्र मुकाम मिले। शिक्षा संग प्रशिक्षण दे कर, फिर अच्छा कुछ काम मिले। आतंकी गुंडे जेलों मे, मौज उड़ाते करे गिले। कैदी-खातिर बंद करें यह, श्रमिकों को धन धान मिले। .---------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" . . बाल मजदूर . ( लावणी छंद)
(अर्थ) जो विधना के घर से रूठे, बिना भाग्य आ जाते है। ऐसे बचपन भूख के मारे, भूख कमाने जातेें है। जिसने बचपन कभी न देखा, नही हाथ वे रेखा हैं। चन्दा उगना भी जिसने तो, आज तलक कब देखा है। जो अपने गैरों के गत कृत, कर्मो से मजबूर बने। जो बच्चे मजबूर रहे है, ....वही बाल मजदूर ठने। (कारण) मन टूटे परिवार टूटते, लिव इन शिप का जोर हुआ। कुछ कारण घोर गरीबी के, महँगाई का शोर हुआ। मजबूरी माँ.. बापों की भी, मजदूरी इन्हें कराती। कुछ तो हम भी दोषी यारों, कुछ राजनीति भरमाती। (दशा) चले ईंट के भट्टे चेजे, होटल-ढाबे बात सुनें। धनवानों के महल सँजोते, वे ही तो कालीन बुनें। कचरे के ढेरों मे देखो, जाने क्या क्या चुनते हैं। पेट भार के बदले देखो, ये सब क्या क्या सुनते हैं। धन की बल की करे चाकरी, भिखमंगे से लगते हैं। रोटी- कपड़े की चिंता में, भूखे नंगे रहते हैं। (निवारण) बाल श्रमिक को खर्चा देकर, शिक्षा संग प्रशिक्षण दो। धर्म,दलों के चंदे रोको, इन बच्चों को रक्षण दो। इनकी खुशियां लौटाने को, दत्तक कर संरक्षण दो। जातिभेद भुला के इनको, जीने को आरक्षण दो। - ****** बाबू लाल शर्मा
लावणी छंद नई साल, नये संकल्प . साल पुराना कहें विदा अब, स्वागत साल नये का हो। कर्मपंथ पर बढ़ो साथियों, शुभ इतिहास गये का हो।
संकल्प नए लेने हमको, परोपकार सदभाव के। देश बनाना हमको मिलकर, सबके मिटा दुर्भाव को।
नव सोपान विकास चढ़े हम, नई साल संकल्पी हो। रोजगार के अवसर पाएँ, शिक्षा सतत विकल्पी हो।
देश नीति परदेश नीति भी, वतन हेतु सुखकारी हो। लोकतंत्र मजबूत बने यह, संवेदक अधिकारी हो।
जय जवान ये जय किसान के, संगत जय विज्ञान कहें। मजदूरों हित सुविधा होवे, बिटिया के अरमान रहे।
माता पिता व वृद्धजनों की, सुविधा व मर्यादा सभी। नारी के सम्मान के खातिर, पीछे हटना नहीं कभी।
संकल्प करें हम मतदाता हैं, नेता अच्छे चुन लाएँ। संसद में जो बैठ सभा में, ठोस विधेयक ला पाएँ।
सवा अरब हम संकल्पी है, आतंकी है लघु जमात। हमे चुनौती दे दे कोई, सोचे पहले वह बिसात।
संविधान का मान बढाएँ, नये साल संकल्प करें। शासन और प्रशासन का हम, मिलकर काया कल्प करें।
नये साल,नव संकल्पों में, नेह प्रीत की रीत पले। संसकार मर्यादा वाले, सत साहित संगीत चले।
सीमित खर्चित आयोजन हो, बदखर्ची से आम बचें। अर्थ व्यवस्था अपनी सुधरे, स्वर्ण पखेरू नाम जँचे। . ------ मिलना.मेरी प्रीत-शुभे .. ( लावणी छंद)
सौम्य सुकोमल मन भावों को, भूल नहीं अब पाऊंगा। जीते जी सब याद रहे फिर, तारों में खो जाऊगाँ। हँसने और देखने का प्रिय, जो अंदाज निराला है। प्रीत प्रेम न्यौछावर करता, रूप रंग मतवाला है।
सुघड़ बदन कजरारी आँखे, मन जिनमें खो जाता है। होंठ,कपोल उरोज नशीले, विरहा तन मन गाता है। भाग्य हमारे साथ तुम्हारा, संभव कैसे हो पाए। कोमल पावन भाव हमेशा, बस जीवन भर तड़पाए।
जीवन मे कितने पगबंधन, कैसे तुमको समझाऊँ। आयु वर्ग के अंतर संगिनि, कैसे इसे लाँघ पाऊँ। मजबूरी जो उभय पक्ष की, तुम भी समझो ,मैं जानूँ। जीवन तो बस कटु औषध है, तुम भी मानो,मैं भी मानूँ।
पर भूलूँ प्रिय कैसे यह सब, प्रीत जन्म भर याद रहे। याद करूँ तो हर लम्हे बस। मन तेरी फरियाद कहे। जीवन भर यादों का मेला, मन के भाव अकेले हैं। जीवन भी क्या जीवन मेरा, बस संकट के रेले हैं।
मन के कोमल भावों के प्रिय, मीठे खारे गीत रचूँ। रहे तराने याद अमर ये, जीवन तन से नहीं बचूँ। कहते हैं जन्मों का नाता, अगले जन्मों रीत निभे। सौम्य सुकोमल भावों वाली, मिलना मेरी प्रीत शुभे। ....मिलना.....मेरी...प्रीत... ............शुभे..।। . ---------
बाबू लाल शर्मा, बौहरा
रिश्ते ...( लावणी छंद)
रिश्ते नाते रीत प्रीत के, खूं का रिश्ता फीका हैं। आभासी रिश्ते निभते अब, मिथ का रिश्ता नीका है।
दूर दूध का रिश्ता अब तो, शीश पटल के दास हुए। पास पड़ोसी अनजाने से, अनजाने जन खास हुए।
भाई - भाई हुए अजनबी, बहने हुई परायी अब। मात पिता पर्वत सम भारी, रिश्तों की मनबात अजब।
देश धरा घर रिश्ते हाँफे, राज नीति गद्दारी है। श्रम सेना कृषिकर्म भुलाए, अय्यासी खुद्दारी है।
स्वार्थ और आकर्षण बनते, अब रिश्तों के पैमाने। सब कुछ भूले भौतिकता में, पद वैभव के दीवाने।
रिश्ता रिसता अब तो माँ का, रक्त और पय का सोता। रिश्ता मातृभूमि का गहरा, त्याग तपस्या का होता।
रिश्ता मान देश से प्यारा, तन मन में पावनता हो। सबसे बढ़कर रिश्ता प्यारे, मानव में मानवता हो। . -------
बाबू लाल शर्मा
(लावणी छंद) याद तुम्ही तो आती हो . जब रिमझिम वर्षा शोर मचे, बूंदे बीन बजाती हो। रीत प्रीत की याद सुनहरी, यादें बहुत सताती हों। गंध सहित शृंगार सभी,ले जगे सपन में आती हो। पुरवाई के संदेशों सँग, याद तुम्ही तो आती हो।
जब ऋतु ये सावन भावन हो, झूले पींग चढ़ाते हो। फसलें खेती मद झूम रहे, मोर पपीह जगाते हों। तन मन बेचैनी मचल उठे, निंदिया भी उड़ जाती हो। घर खाली मन मीत चहे तब, याद तुम्ही तो आती हो।
जब पंछी कलरव केलि करे, श्याम मेघ नभ छातें हों। दामिनी दमकती अम्बर में, तारे भी सो जाते हों। झींगुर की धीमी स्वर लहरी, पायल सी बहकाती हो। उस नीरवता मन व्याकुलता में, याद तुम्ही तो आती हो।
तितली फूलों पर उड़े फिरे, भँवरे गुंजन करते हों। पेड़ लताएँ बलखाए,जब फूल पराग मचलते हों। तब कोयल बैरिन की बोली, हिय में आग लगाती है। विरहा मन भाव हिलोर उठे, तब याद तुम्ही तो आती हो।
धरती की चूनर धानी पर, चंदा तारक चमक रहे। रंग चंग मय फाग बसन्ती, मदन संग सब दमक रहे। प्राकृत भी हर प्राणी पर,जब, मदन रंग सरसाती हो। कब तक धीर धरूँ मन में प्रिय, याद याद तुम आती हो।
जब फसल झूमती दुल्हन सी, प्रिय किसान से तकतें हो। तन मन मदन आग में जलते, ढाक पलाश दहकतें हो। पंछी सब युगल बने गाते, पछुवाई गीत सुनाती हो। होली जो होनी थी सुनलो, याद तुम्ही तो आती हो।
जब मन बहलाने निकलूँ अरु, अमराई बौर लटकते हों। जब पके संतरे देखूँ तो, तन मन अंग कल्पते हों। अमिया,अंगूरी छवि रमणी, दिल को झटका जाती हो, ये मन भाव मचल जाते तब, याद याद तुम आती हो। . ----+
बाबू लाल शर्मा, बौहरा
धरा पुत्र को . उसका हक दें (लावणी छंद) . अन्न उगाए, कर्म देश हित, कुछ अधिकार इन्हे भी दो। मेघ मल्हारें दे न सको तो, मन आभार इन्हे भी दो। टीन , छप्परों में रह लेता, जगते जगते..सो लेता। धूप,शीत,में हँसता रहता, गिरे शीत हिम रो लेता।
वर्षा रूठ रही तो क्या है, वर्ष निकलते रहतें है। फसलें सूखे तो तन सूखे, विवश सिसकते रहतें है। बच्चों की शिक्षा भी कैसी, अन पढ़ जैसे रहतें है। कर्जे ,गिरवी , घर के खर्चे, सदा ठिनकते ..रहतें है।
वही दिगम्बर खेतों का नृप जून दिसम्बर रहा खड़े। हक मांगे तो मिलें गोलियाँ, या नंगे तन बैंत पड़े। फसल बचे तो सेठ चुकेगा, पिछले कर्जे ब्याज धरे। बिजली बिल, अरु बैंक उधारी , मनु , राधा की फीस भरे।
बिटिया के कर करने,पीले माता का उपचार करे। खर्च बहुत राजस्व मुकदमे, गिरते घर पर छान धरे। सब की थाली भरे सदा वह रूखी रोटी खाता है। सब को दूध दही घी देता, बिना छाछ रह जाता है।
रहन रखे अपने खेतों कोे, बैंको में रिरियाता है। सबको अन्न खिलाने वाला, खुद क्यों फाँसी खाता है? धरती के धीर सपूतों की, साधें सच में पूरी हों। आने वाली पीढ़ी को भी, कुछ सौगात जरूरी हों।
इससे ज्यादा धरा पूत को, कब कोई दरकार रहीं। आप और हम नही सुन रहे, सुने राम, सरकार नहीं। धरा पुत्र अधिकार चाहता, हक उसका...खैरात नहीं। मत भूलो इस मजबूरी में, इससे बढ़ सौगात नहीं।
जाग उठे ये भूमि पुत्र तो, फिर - सिंहासन .खैर नहीं। लोकतंत्र की सरकारों के, निर्धारक ये...गैर नहीं। ठाठ बाट अय्याश तम्हारे, होली जला जला देंगे। सत्ता की रबड़ी भूलोगे, मिथ भ्रम सभी गला देंगे।
भू सपूत भगवान हमारे, सच वरदान यही तो हैं। फटेहाल यह जब रहते हो, लगे मशान मही तो है। धरा देश की सोना उगले, गौरव गान किसानी का। सोने की चिड़िया कहलाया, यह, वरदान, किसानी का।
इनके तो पेट रहे चिपके दूध दही तुम. .पीते हों। सबके हित में दुख ये झेलेे, मौज, तुम्ही बस जीते हो। इनके हक, को छीन,छीन कर, ठाठ बाट तुम जीते हो। इनके घर को जीर्ण शीर्ण कर, राज मद्य तुम पीते हो।
वोट किसानी, जीते हो तुम, पुश्तैनी जागीर नहीं। ठकुर सुहाती करे किसी की, कृषकों की तासीर नहीं। सुनो सभी नेता शासन के, भारी अमला सरकारी। अगर किसानो को तड़पाया भूलोगे सब अय्यारी।
परिवर्तन का चक्र चला तो, सुन्दर साज जलेंं वे सब। इनको खोने को क्या, बोलो, कोठी,कार जलेंगे तब।। राज, राम, से हार रहे ये गैरो की औकात नहीं। धरा पुत्र हो दुखी देश में, ....शेष शर्म की बात नहीं।
जयजवान,या जयकिसान के, ... नारों का सम्मान करें। पर ...साकार तभी ये होंगें, कृषकों के.. अरमान सरे। खाद,बीज ,औजार दवाएँ, बिना दाम बिजली दे दो। जीने का अधिकार दिला कर, संगत काम इन्हे दे दो।
पीने और सिँचाई लायक, जल ,की सुविधा दिलवादो। मंदिर, मस्जिद मुद्दों पहले, .....घर शौचालय बनवा दो। हँसते सुबहो, शाम दिखे ये, मन का मान दिला दो जन। बच्चों का पालन हो जाए, नव अरमान दिला दो मन। . . ..........
बाबू लाल शर्मा
. आतंकवाद एक खतरा . ( लावणी छंद ) खतरा बना आज यह भारी, विश्व प्रताड़ित है सारा। देखो कर लो गौर मानवी, मनु विकास इससे हारा।
देश देश में उन्मादी नर, आतंकी बन जाते हैं। धर्म वाद आधार बना कर, धन दौलत पा जाते हैं।
भाई चारा तोड़ आपसी, सद्भावों को मिटा रहे। हो,अशांत परिवेश समाजी, अपनों को ये पिटा रहे।
भय आतंकवाद का खतरा, दुनिया में मँडराता है। पाक पड़ौसी इनको निशदिन, देखो गले लगाता है।
मानवता के शत्रु बने ये, जो खुद के भी सगे नहीं। कट्टरता उन्माद खून में, गद्दारी की लहर बही।
बम विस्फोटों से बारूदी, करे धमाके नित नाशक। मानव बम भी यह बन जाते, आतंकी ऐसे पातक।
अपहरणों की नित्य कथाएँ, हत्या लूट डकैती की। करें तस्करी चोरी करते, आदत जिन्हे फिरौती की।
मादक द्रव्य रखें, पहुँचाए , हथियारों के नित धंधे। आतंकी उन्मादी होकर, बन जाते है मति अंधे।
रूस चीन जापान ब्रिटानी, अमरीका तक फैल रहे। भारत की स्वर्गिक घाटी में, देखें सज्जन दहल रहे।
बने सख्त कानून विश्व में, मारें बिन सुनवाई के। मानवता भू रहे शांति पथ, हित देखो जगताई के।
जेल भरे मत बैठो इनसे, रक्षा खातिर बंद करो। वैदेशिक नीति कुछ बदलो, तुष्टिकरण पाबंद करो।
गोली का उत्तर तोपों से, अब तो हमको देना है। मानवता को घाव दिए जो, उनका बदला लेना है।
गोली मारो फाँसी टाँगो, प्रजा हवाले इन्हे करो। उड़ा तोप से सभी ठिकाने, कहदो अपनी मौत मरो।
जगें देश मानवता हित में, सोच बनालें सब ऐसी। करो सफाया आतंकी का, सूत्र निकालो अन्वेषी।
मिलें देश सब संकल्पित हों, आतंकी जाड़े खोएँ। विश्वराज्य की करें कल्पना, बीज विकासी ही बोएँ। . -------
बाबू लाल शर्मा,, विज्ञ
कामना . (लावणी छंद)
परमेश्वर जादूगर होता, मानव बस कठपुतली है। पर कुछ मानव ऐसें है जो, ईश नयन की पुतली है।
ऐसे भाई सबको प्यारे, साहित राज दुलारे हैं। विपदाओं से कर संघर्षण, आपद से कब हारे हैं।
सत ईमानी कर्मठ लेखक, छंदकार माने कवि हैं। निज भाषा अरु हिन्दी भाषा, दोहो के सच मे रवि है।
मित भाषी हैं बहुकाजी है। श्रमी और उत्साहित है। कभी शिकायत करे नहीं जो, चाहे तन मन बाधित है।
अभिशापों को हँसकर झेले, बदल लिया वरदानो में। विद्या दान करे जो नित ही, मान मिले अनजानो में।
ऐसे जन के शुभ जीवन की, शुभ इच्छा मैं करता हूँ। अनुज सरीखा मानू जिनको, भावों में नित मिलता हूँ।
आशीषों की झड़ी लगादूँ, ऐसे सत इंसान जहाँ। श्रमी शक्ति पर करे भरोसा, मिलता है ईमान कहाँ।
दीर्घ आयु की करूँ कामना, साहित हिन्दी के हित में। स्वस्थ रहे तन मन से भाई, घर परिवार रहे चित में। . .....
बाबू लाल शर्मा, विज्ञ
: आ.श्री बलबीर सिंह करुण की कविता:- "झाँसी की रानी" पर आधारित व प्रेरित रचना.साभार....
बादल आवारा (लावणी छंद )
बादल आवारा, अरु नाला , तुमने क्यों की मनमानी। बिन भीगे ही लौट गये,क्यों, उमड़ घुमड़ की नादानी।
अल्हड़ आवारा हे घोटक, बादल सन सत्तावन के। ओ लक्ष्मीबाई रणचण्डी, घोड़े बादल उस रण के।
बात वही सन सत्तावन की, सुन ओ पागल दीवाने। पीठ बिठा कर,पीठ दिखाई, बादल,अडियल अनजाने।
बादल अश्व तु्म्ही,संगी थे, चण्डी झाँसी रानी के। क्यूँ चूका था लिखते लिखते, अक्षर अमर कहानी के।
रण कौशल उत्तम था तुझमे, अरिदल तूने रोका था। ऐन वक्त यूं अड़ना, बादल, देश धर्म से धोखा था।
बादल, तू थोड़ा दम भरता, नाला कूद - फाँद जाता। मिल जाता पानी से पानी, या, इतिहास बदल जाता।
क्या उस दिन जो पीठ विराजी, सिर्फ छबीली रानी थी। निज पीठ बाँध दामोदर को, केवल रण दीवानी थी।
बादल, क्यूँ भूला उस पल तू, हिन्दुस्तान पीठ पर था। बादल बस यही समझ लेता, सब का भाग्य पीठ पर था।
क्षण भर के मात्र फैसले से, भारत का बदल भाग्य आता। इतना सा करना था, पगले, नाला कूद, भाग जाता।
हे बादल उस घड़ी मात्र, को चेतक, याद किया होता। नाले तट ठिठकी टापों में, कुछ उन्माद नया बोता।
चेतक भी थोड़ा झिझका था, राणा चढ़ा पीठ पर था। चेतक, राणा दोनो घायल, रण सम्मान पीठ पर था।
चेतक तो कूद गया, नाला, स्वामी भक्ति निभानी थी। चेतक-राणा की अमर कथा, स्वर्णिम पृष्ठ लिखानी थी।
तेरी ठिठकन वह अकड़न, कसक आज तक मन में है। जो होनी होती, होती है, चुभन आज भी तन में है।
बादल तू भी करता साहस, नाला कूद गया होता। तेरा होता यश नाम अमर, रण का नाद नया होता।
नाले तूने भी गलती की, पानी क्षणिक सोखना था। पार लगा देता रानी को, होनी को तनिक रोकना था।
तेरा वह नीर सूखना था, जाना था आँखों का पानी। समय चुकाया, पीछे सूखा, क्या पाया मिथ अभिमानी।
नाले तुझको माँ गंगा सा, पावन मान मिला होता। रहता तेरा जल नाम अमर, वह दुर्भाग्य टला होता।
खूब लड़ी मर्दानी, रानी, नाकों चने चबाए थे। हालातों से कैसे जीते, अपने हुए पराये थे।
सुनो, महारानी, कवि.. बातें, रण मस्तानी....मर्दानी। सब संगत विपरीत बने,तब रच देती, भिन्न कहानी।
क्यों,ठिठकी,झिझकी, हे रानी जव वह मौत सामने थी। तुम ही छल्लांग लगा देती, जौहर धार सामने थी।
क्यों भूली रानी रण़चण्डी, जौहर वाली बातों को। पन्ना धाई सुत कुर्बानी, क्षत्राणी प्रतिघातों को।
रानी पद्मनि कर्मवती के, जौहर के जज्बातों को। पानी मे जौहर कर लेती, पतवार बनाती हाथों को।
क्या कहें-आप जीवित रहती, साथ कुँवर भी बच पाता। नाले से पार उतरती तो, भारत भाग्य बदल जाता।
इस ओर रक्त ही था बहना, उस ओर वही नाला बहता। पानी का संबल मिलता तो, कविजन नेह नया कहता।
बादल ,नाले ,रानी, सुन लो, त्रुटियाँ नहीं तुम्हारी थी।. सब कहाँ रहे थे तुम्हे छोड़़, असली चूक हमारी थी।
भारत तो पूरा सुलगा था, साथ नहीं थे, रहे सभी। फूट हमारी हमको भारी, पीछे नब्बे साल तभी। . ---
बाबू लाल शर्मा,बौहरा,
हल्दीघाटी: एकलिंग दीवान..... (लावणी छंद मय गीत)
मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर। मातृ भूमि के रक्षक राणा, मेवाड़ी परवाने पर।। १ चित्रांगद का दुर्ग लिखूँ जब, मौर्यवंश नि: सार हुआ। मेदपाट की पावन भू पर, बप्पा का अवतार हुआ। कीर्ति वंश बप्पा रावल के, मेवाड़ी पैमाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। २ अंश वंश बप्पा रावल का , सदियों प्रीत रीति निभती। रतनसिंह तक रावल शाखा, शान मान हित तन जगती। पद्मा-जौहर, खिलजी- धोखा, घन गोरा मस्ताने पर,। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। ३. सीसोदे हम्मीर गरजते, क्षेत्रपाल-लाखा- दानी। मोकल - कुम्भा - चाचा - मेरा, फिर ऊदा की हैवानी। कला, ग्रंथ निर्माण नवेले, विजय थंभ बनवाने पर, मन करता है गीत लिखूँ मैं, एकलिंग दीवाने पर।। ४. अस्सीे घाव लिखूँ साँगा के, युद्धों के घमसान बड़े। मीरा की हरि प्रीत लिखूँ फिर, वृन्दावन भगवान खड़े।। बनवीरी षड़यंत्र धाय सुत, उस चंदन बलिदाने पर, मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर ।। ५. भूल हुमायू, राखी बंधन, कर्मवती जौहर गाथा। उदय सिंह कुंभलगढ़ धीरज, उभय हेतु वंदन माथा। शम्स खान, फिर शहंशाह के कायर नौबत खाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। ६. जयमल कल्ला, फत्ता ईसर, मुगल कुटिल अय्यार जहाँ। वचन बद्ध घर से जो निकले, चित्तौड़ी लौहार यहाँ । जौहर, साका वाले हर तन, फिर चूँडा सेनाने पर। मन करता है, गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। ७ उदयपोल से झील पिछोला, स्वर्ग सँजोया धरती पर। आन मान अरु शान बचाने। गुहिल जन्मते जगती पर। अकबर के समझौते टाले, फतह किए हर थाने पर। मन करता है,गीत लिखूँ मै, एकलिंग दीवाने पर।। ८. महा प्रतापी राणा कीका, चेतक भील भले साथी। सर्व समाजी साथ लड़ाके, अश्व सवार सधे हाथी। मानसिंह सत्ता अवसादी, शक्तिसिंह नादाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। ९. अकबर से टकराव लिखूँ या , मान सिंह अपघात सभी। वन वन भटकी रात लिखूँ या, घास की रोटी भात कभी।। पीथल पाथल वाली बातें , पृथ्वीराज सयाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १०. एकलिंग उद्घोष लिखूँ,जय, पूँजा शक्ति प्रदाता की। राणा,चेतक शौर्य रुहानी, मान - मुगलिया नाता की। राणा के भाले से बचते, मानसिंह छिप जाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। ११. बदाँयुनी बद हाल लिखूँ,या आसफ खाँ हतभागी को। भू, मेवाड़, सुभागी मँगरी, मान,मुगल दुर्भागी को। चेतक राणा दोनो घायल मन्ना रण बलिदाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं एक लिंग दीवाने पर।। १२. चेतक का तन त्याग लिखूँ या, भू - मेवाड़ी परिपाटी। शक्ति सिंह का मेल प्रतापी, नयन अश्रु नाला माटी। रक्त तलाई , लाल लिखूँ या, बस चेतक मर्दाने पर। मन करता है, गीत लिखूँ मै, एक लिंग दीवाने पर।। १३. भीलों का सह भाग लिखूँ या, पिटते मुगल प्रहारों को। हाकिम खाँ की तोप उगलती, दुश्मन पर अंगारों को। वीर भील वर, रण रजपूते, तोप तीर अफगाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १४. अकबर की मन हार लिखूँ या, मानसिंह जज़बातों को । प्रण मेवाड़ी विजय पताका, शान मुगल आघातों को। भामाशाही धन असि धारी, प्रण पालक धनवाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १५. चावण्ड व गोगुन्दा गढ़ की, मँगरा मँगरा छापों को। महा राणा की सिंह दहाड़े चेतक की हर टापों को। जय जय जय मेवाड़ लिखूँ या मरे मीर मुलताने पर। मन करता है, गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १६. मुगले आजम क्योंकर कह दूँ, चंदन रज़, हल्दी घाटी। नमन रक्त मेवाड़ धरा का, शान मुगल धिक परिपाटी। हल्दी घाटी तीर्थ अनोखा, आड़े गिरि चट्टाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १७. क्या छोड़ूँ क्या सोचूँ लिखना, क्या,भूलूँ क्या, याद करूँ। नमन लिखूँ मेवाड़ धरा को, गुण गौरव आबाद करूँ। नमन वंश बप्पा अविनाशी, हर युग में सनमाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १८. शीश दिए जो हित मेवाड़ी, तपती लौ पर ताप वहाँ। एक बार मैं शीश झुका दूँ, चेतक की थी टाप जहाँ। वीरों की बलिदानी गाथा, गाते भील तराने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। १९. बार बार मैं राणा लिख दूँ चेतक के रण वारों को। लिखते लिखते खूब लिखूंँ मैं, तीर बाण असि धारों को। मुँह लटकाए मुगल शेष जो, प्यासे नदी मुहाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। २०. अमर धाम हल्दी घाटी है, अमर कथा उन वीरों की। चेतक संग सवार अमर वे, अमर कथा रण धीरों की। गढ़ चित्तौड गूँजती गीता, रज पत्थर नर गाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर।। २१. मन करता है लिखते जाऊँ, मातृ भूमि की आन वही। हिन्दुस्तानी वीर शिरोमणि, राणा , चेतक शान मही। शर्मा बाबू लाल बौहरा, कब रुकता थक जाने पर। मन करता है गीत लिखूँ मैं, एक लिंग दीवाने पर ।। . ------- बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ
बिना नीड़ के बया बिचारी ( लावणी छंद गीत)
कटे पेड़ के ठूँठ विराजी, बया मनुज को कोस रही। बेघर होकर, बच्चे अपने, संगी साथी खोज रही। मोह प्रीत के बंधन उलझे, जीवन हुआ क्लेश मेंरा। जैसा भी है,अपना है यह, रहना पंछी देश धरा।
हुआ आज क्या बदल गया क्यों, कुटुम कबीला नीड़ कहाँ। प्रातः छोड़ा था बच्चों को, सब ही थे खुशहाल यहाँ। परदेशी डाकू आए या, देशी दुश्मन वेश धरा। जैसा भी है अपना है यह, रहना पंछी देश धरा।
इंसानी फितरत स्वारथ की, तरुवर वन्य उजाड़ रहे। प्राकृत पर्वत नदियाँ धरती, सबका मेल बिगाड़ रहे। जन्मे खेले बड़े हुए हम, जैसे जिस परिवेश हरा। जैसा भी है अपना है यह, रहना पंछी देश धरा।
जिन पेड़ों से सब कुछ पाया, जीवन भर उपकार लिया। मानव तुमने दानव बन क्यों, तरुवर का अपकार किया। पर्वत खोदे वन्य उजाड़े, स्वारथ का आवेश भरा। जैसा भी है अपना है यह, रहना पंछी देश धरा।
प्रात जगाया मानव तुमको, पंछी कलरव गान किया। छत पर दाना चुगकर हमने, बस बच्चों का मान किया। पेड़ और पंछी को अब क्या, देखोगे दरवेश मरा। जैसा भी है अपना है यह, रहना पंछी देश धरा।
तूने ठूँठ किया तरुवर को, जिस पर नीड़ हमारे थे। इस तरुवर वन मे हमने, जीवन राग सँवारे थे। कैसे भूलें कैसे छोड़ें, रहते मौज प्रदेश खरा। जैसा भी है अपना है यह, रहना पंछी देश में। ....रहना पंछी देश धरा। . ......... बाबू लाल शर्मा, बौहरा ,
मातृशक्ति . (लावणी छंद)
जननी आँचल, धरा धरातल, पावन भावन होता है। मानस करनी दैत्य सरीखी, अहसासो को खोता है। मानव तन को माँ आजीवन, भू ने भी माँ सम पाला। बन,दानव तुमने वसुधा में, तीव्र हलाहल ही डाला।
मानव ने खोई मानवता, छुद्र स्वार्थ के फेरों में। बना हुआ अस्तित्व मात का, आशंका के घेरों में। वसुधा का शृंगार छीन कर, जन, वन पेड़ काट डाले। जल,खनिजों के अति दोहन से, माँ के तन मन पर छाले।
मात् मुकुट से मोती छीने, पर्वत नंगे जीर्ण किए। होती मानव, माता घायल, उन घावों को कौन सिंए। सुधा मात के नस नस बहता, सरिताएँ दूषित कर दी। मलयागिरि सी पवन धरा पर, उसे प्रदूषित भी कर दी।
मातृशक्ति गौरव अपमाने, ओ मन,भोले अपराधी। जिस माता को आर्य सभ्यता, देव शक्ति ने आराधी। मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्, क्यों "वन्य भेड़िये" बनते हो। अपनी माँ अरु बहिन बेटियां, क्यूँ उनको तुम छलते हो।
माँ की सुषमा नष्ट करे नित, कंकरीट से क्यों भींचे। मातृ शक्ति की पैदाइश हो, शुभ्र केश फिर क्यों खींचे। नाड़ी ताल तलैया सागर, नदियों को मत अपमानो। क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा, इनसे मिल जीवन मानो।
माँ तो दुर्लभ अमरित फल है, समझ सको तो कद्र करो। माँ की सेवा सात धाम फल, भव सागर से पार तरो। . ------ बाबू लाल शर्मा
सुन्दर पावन धरा भारती (लावणी छंद) . जहाँ वतन हो प्राण से प्यारा, कफन तिरंगा चाहत है। जगत गुरू की पदवी वाला, स्वर्ण पखेरू भारत है। ज्ञान धर्म संदेश अहिंसा, दूर देश तक जाता है। सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
आओ साथी वंदन करलें, भारत की इस माटी का। देश धरा पर प्राण समर्पित, करती मन परिपाटी का। इंकलाब के गीत जहाँ पर, बच्चा बच्चा गाता है। सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
सूरज पहले किरणे देता, मातुल चन्द्र चमकता है। देश प्रेम मे भरकर सबका, यौवन तेज दमकता है। दिशा दिखाने ध्रुव तारा भी, उत्तर नभ में आता है। सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
सागर चरण वंदना करता, पल पल धोता चरणों को। पावन नदियाँ याद दिलाती, मानव शुभ आचरणों को। धरती गौ नदियों से अपना, माँ से बढ़कर नाता है। सुंदर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
जिस रज को हम चंदन माने, पूजें पर्वत जलधर को। अनदाता हम कह सम्माने, भारत के प्रिय हलधर को। वरुण देव की कृपा जहाँ पर, इन्द्र मेघ बरसाता है। सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
वन वृक्षों का आदर करते, सब जीवों में रब मानें। संसकार मर्यादा अपने, कर्तव्यों को पहचाने। संविधान का मान यहाँ पर, हर अधिकार दिलाता है। सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
वीर नहीं खोते है धीरज, रिपुदल से नहीं घबराते। भरत सरीखे बच्चे इसके, शेरों से भी भिड़ जाते। इस पावन भू पर हर कोई, सच्चा आदर पाता है। सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
देवों को भी खूब सुहाई, , भरतखण्ड की यह धरती। आती यहाँ अप्सरा रहने, रूप सुहागिन का रखती। परमेश्वर अवतार लिए तब, इसी भूमि पर आता है। सुंदर पावन धरा भारती, . वीर सपूती माता है। . ------
बाबू लाल शर्मा,"बौहरा"
कलम नहीं... . ....रुकने वाली . ( लावणी छंद मय गीत ) . कृष्णमुखी शारद वरदानी, . सजग लेखनी मतवाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, . कलम नही रुकने वाली।
साथ भले ही टूटे तन का, कलम टूटने क्यों दूँगा। श्वाँस भले ही टूटे मेरा, भाव छूटने क्यों दूँगा। जब तक भू पर जाग न जाए, यह जनता भोली भाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
तू क्या रोके अत्याचारी, असि से तेज कलम काली। गोली या तलवार न रोके, क्या रोके सत्ता खाली। कलम शक्ति को तू क्या जाने। यह कितनी है दमवाली। हाथ दबाले चाहे जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
विश्व विजेता महा सिकंदर, जब इस भू पर आया था। तब भी मेरी प्रिया कलम ने, पोरस का गुण गाया था। चन्द्रगुप्त,चाणक्य भरोसे, सौंप कलम दी रखवाली, चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
सच को सच ही लिखे लेखनी, देश प्रेम मय प्रीत लिखें। शत्रु अमन के ,गद्दारों को, कब इसने मन मीत लिखे। हर्ष,कनिष्क,अशोक, गुप्त की, स्वर्ण कथा लिखने वाली, चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
महावीर अरु बुद्ध बने थे, इसी कलम से बलशाली। जिनके चरणों मे होती थी, जन जन की थैली खाली। गजनी अरु गौरी की इसने, करतूतें लिख दी काली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
खिलजी अरु मुगलों का इसने, सब काला इतिहास लिखा। मीरा,तुलसी,सूर, कबीरा, साहित्यिक शुभ भास लिखा। तलवारों के आतंको मे, मेवाड़ी पत लिख डाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
छिपा न सूरज जिनके शासन, उन्हे लुटेरे कलम लिखे। झाँसी रानी,ताँत्या टोपे, मंगल पाँडे वतन लिखे। कलम संगठन संघर्षों से, आजादी यह लिख डाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
बोष सुभाष,चन्द्रशेखर वे, भगत सिंह इकबाल लिखे। देश प्रेम के महा विनायक , लाल बाल अरु पाल लिखे। खत्म फिरंगी शासन करने, देशी अलख जगा डाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
पढ़ लेना इतिहास जगत का, पढ़कर खूब समझ लेना। यही कलम इतिहास लिखेगी, कलम शक्ति तू चख लेना। यही कलम है मानवमन में, क्रांति बीज बोने वाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
एक हाथ ही टूटेगा पर, कितने हाथ जन्म लेंगे। सहस्रबाहु बनकर सेनानी, कलमकार बहु पनपेंगे। एक हाथ तलवार उठाये, लड़ेे कलम फिर मतवाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
इसी कलम की ताकत देखो, कितने राज्य बदल डाले। तेरी क्या हस्ती आतंकी, तख्तोताज बदल डालें। रखे रहे तू बम तलवारें, लिख देंगें सूरत काली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
कभी कलम का गला घुटा तो, कुछ पल मौन बसेरा है। अंत शीघ्र है अन्यायी का फिर नव कलम सवेरा है। कलम लिखेगी ,सबकी करनी, कर्म रेख तेरी काली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
सत्ता और लेखनी का यह, पथ टकराव चला आया। मानवता की बात करें हम, तुमको सत्ता मद भाया। सत्ता शासन के आगे यह, कलम नहीं झुकने वाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली। लिखे सदा ही महा लेखनी, देश प्रेम ज्वाला जौहर। तू शासन चाकर जनता का, बन बैठे सत्ता शौहर। सत्य लेखनी मेरी लिखती, तब बागी आदत डाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली।
अमन लिखूँगा,वतन लिखूँगा, मनुजाती हर कर्म लिखूँ। मानव मन की पीर उजागर, प्रीत प्रेम मय धर्म लिखूँ। मन की सारी बात लिखे बिन, श्वाँस नहीं थमने वाली। चाहे हाथ दबाले जालिम, कलम नहीं रुकने वाली। .............
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्
. चार दीयों से खुशहाली . ( लावणी छंद ) . एक दीप उनका रख लेना, तुम पूजन की थाली में। जिनकी सांसे थमी रही थी, भारत की रखवाली में.!!
एक दीप की आशा लेकर, अन्न प्रदाता बैठा है। । शासन पहले रूठा ही था, राम भी जिससे रूठा है।
निर्धन का धर्म नही होता, बने जाति भी बेमानी ।। एक दीप उनका भी रखकर, कर भूले जो नादानी।।
एक दीप शिक्षा का रखकर, आखर अलख जगालो तुम। जगमग होगी दुनिया सारी, खुशियाँ खूब मनालो तुम।
चार दीप सब सच्चे मन से, दीवाली रोशन करना। मन में दृढ़ सकल्प यही हो, देश हेतु जीना - मरना।
और दीप भी खूब जलाना, खुशियाँ मिले अबूझ को। खील बताशे, लक्ष्मी-पूजन, गोवर्धन, भई दूज को। . ------- बाबू लाल शर्मा "बौहरा" सत साहित्य कभी न हारा . (लावणी छंद)
अदरक अच्छी नहीं लगे तो, इसमें अपना दोष नहीं! किलो भाव साहित्य बिके यह, व्यापक जन उद्घोष नहीं!
अनजाने में एक सिरफिरा, हीरे पत्थर सम बेचे! अनजाने में एक दीवाना, प्रेमडोर खुद को खेंचे!
यह है अपना भारत इसमें, वेद अभी तक सादर है! भारत के कोने कोने मे, रामायण का आदर है!
समझ नही साहित्य साधना, काला अक्षर भैंस रखे! अनपढ़ और विधर्मी जन ही, साहित सकते बेच सखे!
पर इसका यह अर्थ नहीं है, कद्र नही है साहित की! आग तापते रहने पर भी, कद्र रहे सूरज हित की!
कुछ लोगों की बेकद्री से, साहित नही मिटा करता। साहित तो आदित्य मान लो, ऐसे नहीं लुटा करता।
सत साहित्य कभी क्या हारा, नही हारने वाला है! युगों युगों तक चलने वाली, बस साहित्यिक हाला है!
वाल्मीकि से अब तक सारे, कविजन का आदर करते! हम भारत के लोग हमेंशा, हर पोथी सादर धरते! . ***
बाबू लाल शर्मा,बौहरा, विज्ञ
(लावणी छंद) मात् शारदे...स्तुति
मात् शारदे सबको वर दे, तम हर ज्योतिर्ज्ञान दें। शिक्षा से ही जीवन सुधरे, शिक्षा ज्ञान सम्मान दे।
चले लेखनी सरस हमारी, ब्रह्म सुता अभि नंंदन में। फौजी,नारी,श्रमी,कृषक के मानवता हित वंदन में।
उठा लेखनी, ऐसा रच दें, सारे काज सँवर जाए। सम्मानित मर्यादा वाली, प्रीत सुरीत निखर जाए।
पकड़ लेखनी मेरे कर में, ऐसा गीत लिखा दे माँ। निर्धन,निर्बल,लाचारों को, सक्षमता दिलवा दे माँ।
सैनिक,संगत कृषक भारती अमर त्याग. लिखवा दे माँ। मेहनत कश व मजदूरों का, स्वर्णिम यश लिखवा दे माँ।
शिक्षक और लेखनीवाला, गुरु जग मान, दिला दे माँ। मानवता से भटके मनु को, मन की प्रीत सिखा दे माँ।
हर मानव मे मानवता के, सच्चे भाव जगा दे माँ। देश धरा पर बलिदानों के, स्वर्णिम अंक लिखा दे माँ।
शब्दपुष्प चुनकर श्रद्धा से, शब्द माल में जोड़ू माँ। भाव,सुगंध आप भर देना, मै तो दो 'कर' जोड़ूँ माँ।
मातु कृपा से हर मानव को, मानव की सुधि आ जाए। मानवता का दीप जले माँ, जन गण मन का दुख गाएँ।
कलम धार,तलवार बनादो, क्रूर कुटिलता कटवा दो। तीखे शब्द बाण से माता, तिमिर कलुषता मिटवा दो। . ------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" (लावणी छंद) स्वच्छ भारत
. स्वच्छ रखें जन मन भावों को, . और स्वच्छ भारत अपना। तन मन स्वच्छ स्वस्थ मानस हो, . तभी फलेगा यह सपना। जन से घर फिर गली मौहल्ला, . गाँव शहर सब स्वच्छ रहे। कचरे का निस्तारण भी हो, . हरित धरा पर वृक्ष रहे। . शस्य श्यामला इस धरती को, आओ मिलकर नमन करें। पेड़ लगाकर उनको सींचे, वसुधा आँगन चमन करें। स्वच्छ जलाशय रहे हमारे, अति दोहन से बचना है। भारत स्वच्छ शुद्ध रखलें हम, मुक्त प्रदूषण रचना है। . छिद्र बढ़े ओजोन परत में, उसका भी उपचार करें। कार्बन गैसें बढ़ी धरा पर, ईंधन कम संचार करे। प्राणवायु भरपूर मिले यदि, कदम कदम पर पौधे हो। पर्यावरण प्रदूषण रोकें, वे वैज्ञानिक खोजें हो। . तरुवर पालें पूत सरीखा, सिर के बदले पेड़ बचे। पेड़ हमे जीवन देते है, मानव-प्राकृत नेह बचे। गऊ बचे अरु पशुधन सारा, . चिड़िया,मोर पपीहे भी। वन्य वनज,ये जलज जीव सब, सर्प सरीसृप गोहें भी। . धरा संतुलन बना रहे ये, कंकरीट वन कम कर दो। धरती का शृंगार करो सब, तरु वन वनज अभय वर दो। पर्यावरण सुरक्षा से हम, नव जीवन पा सकते हैं। जीव जगत सबका हित साधें, नेह गीत गा सकते हैं। .
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"
. गीत/नवगीत . ( लावणी छंद ) स्वेद सुगंधित जग पहचाने . टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता। स्वर दे दो मय भाव सनेही, बह जाए मन की सरिता।
शब्द शब्द को ढूँढ़ ढूँढ़ कर, भाव पिरो दूँ मन भावन। ज्येष्ठ ताप पाठक को भाए, जैसे रमणी को सावन। मानव मानस मानवता हित, छंद लिखूँ भव शुभ फलिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
बात बुजुर्गों के हित चित लिख, याद दिला दूँ बचपन की। बच्चों के कर्तव्य लिखूँ सब, समझ जगा दूँ पचपन की। बेटी बने सयानी पढ़ कर, वृद्धा गाए बन बनिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
लिखूँ गुटरगूँ युगल कपोती, नाच उठे वन तरुणाई। मोर मोरनी नृत्य लिखूँ वन, बाज बजाए शहनाई। नीड़ सहेजे चील बया का, सारस बक संगत चकिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
चातक पपिहा पीड़ा भूले, काग करे पिक से यारी। जंगल में मंगलमय फागुन, शेर दहाड़ें भयहारी। भालू चीता संगत चीतल, रखें धरा को शुभ हरिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
श्रमिक किसानी पीड़ा हर लें, ऐसे भाव लिखूँ सुख कर। स्वेद सुगंधित जग पहचाने, कहें प्रसाधन विपदा कर। बने सत्य श्रम के जन साधक, भाव हरे तन मन थकिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
राजनीति के धर्म लिखूँ कुछ, पावन शासक शासन हो। स्वच्छ बने सत्ता गलियारे, सरकारें जन भावन हो। ध्रुव तारे सम मतदाता बन, नायक चुनलें भल भविता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
प्रीत रीत से पाले जन मन, खिला खिला जीवन महके। कटुता द्वेष भूल हर मानव, मानस मनुज हँसे चहके। रिश्ते नाते निभें पड़ोसी, याद करें क्यों नर अरिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
सोच विकासी भाव जगे भव, भूल युद्ध बन अविकारी। कर्तव्यों की होड़ मचे मन, बात भूल जन अधिकारी। देश देश में जगे बंधुता, विश्व राज्य की मम कमिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
जय जवान लिख जय किसान की, जय विज्ञान लिखूँ जग हित। नारी का सम्मान करें सब, बिटिया को लिख दूँ शुभ चित। गौ धरती जग मात मान लें, समझें जग पालक सविता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता।
सागर नदी भूमि नभ प्राकृत, मानवता के हित लिख दूँ। लिख आभार पंख धर का मैं, कलम शारदे पद रख दूँ। पहले लिख कर निज मन मंशा, भाव जगा माँ शुभ शुचिता। टूटे पंखों से लिख दूँ मैं, बना लेखनी वह कविता। . ------
बाबू लाल शर्मा,बौहरा
सच्चा क्रोध करें . (लावणी छंद)
क्रोध समय पर किया तभी तो, राहू केतू कट जाते। देवों को अमरित मिल जाता, नीलकंठ शिव बन जाते।
क्रोध समय पर किया तभी तो खर दूषण मारे जाते। क्रुद्ध जटायू अमर बने हैं बाली से मारे जाते।
क्रोध समय पर करने पर ही, सागर बाँधा जाता है। दर्प चूर्ण होता लंका का, रावण मारा जाता है।
क्रोध समय पर कर लेते तो, नही गजनवी बच जाता। गजनी, तुर्की तक हम होते, कभी न फिर गौरी आता।
क्रोध समय पर यदि कर लेते, खिलजी राज नहीं जमता। रजिया,बलबन तुगलक सैय्यद, बाबर वंश नहीं चलता।
क्रोध समय पर यदि कर लेते, नादिर, लंग नहीं बचते। तुर्क,फ्रांसिसी और विदेशी क्लाइव,कर्जन क्या जमते।
क्रोध समय पर कर लेते फिर, राज फिरंगी नहीं होते। मातृभूमि परतंत्र न होती, लाखों लाल नही सोते।
क्रोध समय पर होता तो क्यूँ, पंडित कश्मीरी भगते। सवा अरब हम हैं सेनानी, फिर आतंकी क्या करते।
शकुनी दाँव खेलते हो जब, धर्मराज को क्यों भाया। दुष्ट दु:शासन फिरे सुयोधन, चीर हरण भी हो पाया।
धीर वीर जन हम ही थे,वे मौन साध सब चुप क्यों थे। दिशा काँपती जिनके भय से, बोलो वे सब चुप क्यों थे।
शिशू पाल मदमाया था,जब, सौ गाली भी पूरी थी। तभी कृष्ण का चक्र चला फिर, धड़ से सिर की दूरी थी।
इतिहासों का शोध करें,हम, क्यों न समय पर क्रोध करे। बीते यश का करे भान पर, पिछली गलती बोध करें।
क्रोध समय पर नहीं किया तब, महा समर सज जाते है। शांति प्रयास विफल हो जाते, रण - बाजे बज जाते हैं।
तब कान्हा गीता गाते है। रण का नाद सुनाते है। अर्जुन गांडीव उठा लेते, कर हथियार सुहाते है।
भाई के भाई दुश्मन हो, योद्धा मर मर जाते है। कौऐ स्वान शवों को खींचे, गीदड़ पर्व मनाते हैं।
चहुँ ओर विनाशक बोध करे। क्यो न समय पर क्रोध करें।
जब नन्द वंश के वैभव मय, अत्याचारी शासन से। उस महा सिकन्दर की सेना, पुरू राज की दृढता से।
आम्भि नरेश कुटिलता करता, अपनी व्यथित संपदा से। सैल्यूकस की इच्छा क्षमता भारत आई विपदा से।
यह भारत खण्ड विखण्ड करे। क्यो न कोप से क्रोध करे? चाणक्य कहाँ तक करे सहन, क्यो न चन्द्र की खोज करे?
उस नंद वंश का नाश करे, देश अखण्ड विधान करे, हरे मान उस सैल्यूकस का, अर्थशास्त्र का गान करे।
चाणक्य शिखा तब खुलती है। मनमानी जब खलती है। जब जन मन तान बिगड़ जाती। माँ बलिवेदी जलती है।
अंग्रेज़ी फरमानो से जब उनके अत्याचारों से। भारत माँ का अपमान लगे। जन जन क्रांति विचारो से।
घर घर स्वराज का शोर जगे। क्यों न किसी पर कोप बने। मंगल पाण्डे मौन रहे क्यूँ। क्यों न क्रांति का बिगुल बने?
ताँत्या टोपे भरते हों दम, जुल्म फिरंगी करते हों! जब रणचण्डी रण मत्त लगे! भावो में रण भरते हों।
अंग्रेज़ी बंदिश खलती हो! रो रजवाड़ सिसकती थी। जब भगत सिंह उद्घोष करे! ज्वाला क्रांति भड़कती थी।
जब 'इंकलाब' उद्घोष करे! सेनानी सब जोर करे! तब भी क्यूँ कोई रखे मौन ? तब उठ सच्चा क्रोध करे!
फाँसी चूमे, बलिदान करें! देश राज आजाद करे! क्रोधित हो जिन्दाबाद बोल। जन को हम आबाद करें।
*वर्तमान समय मेः*........ जब बेरुजगारी बढ़ती हो। सरकारें कुछ नहीं करती। जब,जब परिवार बिखर जाता, जनता क्रोध नही भरती।
जब आतंकी धमकाते हो। नेता ही भरमाते हों। नित नव करते हो घोटाले। जब मजदूर दुखाते हों।
जब दीन किसान कलपते हों। बाड़ खेत को खाते हो। दिल में तूफान नही थमते। मानस द्रोह मचलते हो।
फिर क्यों न मनो विद्रोह जगे? क्यों न किसी का क्रोध जगे?
पर "शिखा नहीं कौटिल्य नहीं"! कृष्ण नहीं, गांडीव नहीं! तिलक गोखले कहाँ रहे अब? शेखर वीर सुभाष नहीं!
जब न्याय ही दंडित होता हो। क्रोध ही कुंठित होता हो। निर्धनता भारी बोझ लगे। बैठ क्रोध भी रोता हो।
तब हँस हँस के हम ताली दें? इक दूजे को गाली दें? क्रोधित होना बंद करे या? अपने वाद बुलंद करें?
तब सब जन मन विद्रोह करें! मिलकर सच्चा क्रोध करें! . -------- बाबू लाल शर्मा, बौहरा , विज्ञ
कटी पतँग . ( लावणी छंद ) जीवन दिन दिन उड़े पतँग सा, पर, उडते तंग न काटो। सबसे हिल मिल जीवन सजता, सुख बाँटे, अब दुख बाँटो।
जीवन जिनसे जुड़ा हुआ है, ही पतँग की डोरी हैं। बिना डोर के पतँग न उड़ती, बनती पतँग चकोरी है।
कटी पतँग मत झटको फाड़ो, उनको आज सहेजें हम। दीन, हीन, या वृद्ध जनो के, रहते कभी कलेजे हम।
कटी पतँग का बन के संगी, अमन चमन सम्मान रखें, बँधी डोर से छूट रहे जो, उनके भी अरमान रखें।
कटी पतँग को फिर से जोड़ें, आस और विश्वासों से, उनके जीवन मे रस घोलें, सत्य समर्पण श्वाँसों से।
कटी पतँग फट गले न खोए, या कोई भी क्यों लूटे। हम मिल सार सँभाले उनको, कहीं कभी वे क्यों टूटे। -------------
बाबू लाल शर्मा, बौहरा,
गीत/नवगीत जर्जर नौका गहन समंदर (लावणी छंद)
मँझधारों में माँझी अटका, क्या तुम पार लगाओगी। जर्जर नौका गहन समंदर, सच बोलो कब आओगी।
भावि समय संजोता माँझी वर्तमान की तज छाँया अपनों की उन्नति हित भूला जो अपनी जर्जर काया क्या खोया, क्या पाया उसने तुम ही तो बतलाओगी। जर्जर ................... ।।
भूल धरातल भौतिक सुविधा भूख प्यास निद्रा भूला रही होड़ बस पार उतरना कल्पित फिर सुख का झूला आशा रही पिपासित तट सी आ कर तुम बहलाओगी। जर्जर......................।।
पीता रहा स्वेद आँसू ही रहा बाँटता मीठा जल पतवारें दोनों हाथों से खेते खोए सपन विकल सोच रहा था अगले तट पर तुम ही हाथ बढ़ाओगी। जर्जर..................।।
झंझावातों से टकरा कर घाव सहे नासूरी तन चक्रवात अरु भँवर जाल से हिय में छाले थकता तन तय है जब मरहम माँगूगा तुम हँस कर बहकाओगी। जर्जर......................।।
लगे सफर अब पूरा होना श्वाँसों की तनती डोरी सज़धज के दुल्हन सी आना उड़न खटोला ले गोरी शाश्वत प्रीत मौत केवट को तय है तुम तड़पाओगी। जर्जर....................।। . -------
बाबू लाल शर्मा बौहरा 'विज्ञ"
(लावणी छंद) गया साल ये गया गया . . साल गया फिर नूतन आता ऐसा चलता आया है। हम भी कभी हिसाब लगालें, क्या खोया क्या पाया है। ईस्वी सन या देशी सम्वत, फर्क करें बेमानी है। साथ समय के चलना सीखें, बात यही ईमानी है।
साल गया हर साल गया जो, आगे भी फिर जाएगा। गया समय लौट नहीं आता, वह इतिहास कहाएगा। समय कीमती कद्र करो तो, सारे काम सुहाने हो, समय गँवाना जीवन खोना, लगते सब बेगाने हो।
इसीलिए समय संग सीखो, सुर व कदम ताल मिलाना। सतत सजग जीवन में रहना। जग के व्यवहार निभाना। जाने कितने साल बीतते, कोई गया नया आता। कीर्ति बची बस शेष किसी की, बीत गया जो कब पाता।
इतिहास लिखे जाते जिनके, मानव वर्ष कभी होते। शेष वेश जीवन व समय को, मन के वश में ही खोते। इसीलिए सब जतन करो जी, आने वाला साल नया। पीछे पछतावा न कभी हो, गया साल ये गया गया। . -------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ
(लावणी छंद,) .....नमन करूँ
बने नींव की ईंट श्रमिक जो, बहा श्वेद मीनारों में। स्वप्न अश्रु मिलकर गारे में, अरमानी दीवारों में। बिना कफन बिन ईंधन उनका, बोलो कैसे दहन करूँ। श्रम पूजक श्रम जीवी जन के, बहे श्वेद को नमन करूँ।
कायल है जो पद,वैभव के. उन के हित क्यों जतन करूँ। शोषण के साधक है वे सब, उनको क्यों कर नमन् करूँ। गाँठ गठान हथेली में हो, उन हाथों का जतन करूँ। जिनके पैरों छाले पड़ते, उनके चरणों नमन करूँ।
वे जो श्रम के सत् साधक है, कुल जिनके श्रमचोर नहीं। तन के मोह में वतन भुला दें, इतने जो कमजोर नहीं। श्वेद बिन्दु से धरती सींचे, उन्हे सलामे-वतन करूँ। जिनके पैरों फटे बिवाई, उनके चरणो नमन करूँ।
सीमा पर जो शीश कटाते, वे सच्चे अवतारी है। उनके हर परिजन के हम भी, सच्चे दिल आभारी हैं। जिनके रहते,वतन सुरक्षित, उन बेटों को नमन करूँ। जिनके पैर ठिठुरते जलते, उनके चरणों नमन करूँ।
शिक्षा के जो दीप जलाकर, तम को दूर भगाते हैं। सत्साहित् का सृजन करे नित, नूतन देश बनाते हैं । देश प्रेम पावक के लेखक, जन शिक्षक पद नमन् करूँ। जन गण मन की पीड़ा गाते, उनके चरणो नमन करूँ।
सर्दातप को सहा जिन्हौने, जन के खातिर अन्न दिया। तन का रूप रंग सब खोया, नंग बदन भू पूत जिया। भिंचे पेट के उन दीवाने, धीर कृषक को नमन करूँ। जिनके पैरों छाले पड़ते, उनके चरणों नमन करूँ।
जिनके खूं से देश बना है, उनके ढँग का वरण करूँ। देश को गिरवी रखने वाले, बगुला पथ का शमन् करूँ। "लाल" रक्त से संभव हो तो, मुरझे चेहरेे चमन करूँ। जिनके पैरों छाले पड़ते, उनके चरणों नमन् करूँ। . --------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ
निज मन का.... ............रावण मारें . (लावणी गीत) . बहुत जलाए पुतले मिलकर, निज मन का रावण मारे।
जन्म लिये तब लगे राम से, खेले राधा कृष्ण लगे। जल्दी ही वे लाड़ गये सब, विद्यालय में चले भगे। मिल के पढ़ते पाठ विहँसते, शाम सुबह खेले सारे। मन का मैं अब लगा सताने, निज मन का रावण मारें।
होते युवा विपुल भ्रम पाले, खोया समय नेह खींचे। रोजी रोटी और गृहस्थी, कर्तव्यों के फल सींचे। अपना और पराया समझे, सहते करते तकरारें। बढ़ते मन के कलुष कलेशी, निज मन के रावण मारें।
हारे विवश जवानी जी कर, नील कंठ खुद बन बैठे। जरासंधि फिर देख बुढ़ापा, जाने समझे फिर ऐंठे। दसचिंता दसदिशि दसबाधा, दस कंधे मानेे हारे, बचे नही दस दंत मुखों में, निज मन के रावण मारें।
जाने कितनी गई पीढ़ियाँ, सुने राम रावण बातें। सीता का भी हरण हो रहा, रावण सी मन में घातें। अब तो मन के राम जगालें, अंतर मन के पट हारें। कब तक पुतले दहन करेंगे, निज मन के रावण मारें।
रावण अंश वंश कब बीते, रोज सिकंदर नव आते। मन में रावण सब के जिंदे, राम, आज मन पछताते। लगता इतने पुतले जलते, हम ही राम, सदा हारे। देश धरा मानवता हित में, निज मन के रावण मारें।
बहुत जलाए पुतले मिलकर, निज मन के रावण मारें। . ●●●
बाबू लाल शर्मा, बौहरा विज्ञ
नेह संजोती (लावणी छंद गीत)
ऋतु बासंती बगिया फूली सुमनों पर तितली झपटी। भ्रमर भरे आकर्षण दृग में, वेष बसंती तिय लिपटी।।
नेह भरी वे लड़ियाँ झूलें मन की कहती तरुणी से मोर पंख सा वसन छोर है, नयन चमकते हिरणी से गदराई वन पुष्प लता से, नेह सँजोती हिय चिपटी। भ्रमर भरे................।।
कृष्ण ब्याल सी लम्बी वेणी, सिर पर प्राकत मुकुट सजे रूप मनोहर सरल सौम्य तन, प्रेमिल कवि हिय खटक बजे शुभ्र वेष मृदु मोहक तन मन बने भाव अलि मन कपटी। भ्रमर भरे...................,।।
वसन बदन ये पुष्प चूड़ियाँ समवर्णी शुभ दिव्य छटा नयन चकोर मनो आमंत्रण प्राकृत मधुरस रही लुटा मूक अधर बिंदी मन मोहक गंध प्रसरणी नियति नटी। भ्रमर भरे...................।। ---------- बाबू लाल शर्मा, आज लेखनी ... . ...रुकने मत दो (लावणी छंद मुक्तक)
आज लेखनी रुकने मत दो, मन के भाव निकलने दो। भाव गीत ऐसे रच डालो, जन जज्बात सुलगने दो। आए जन खून उबाल सखे, जन गण मन का भारत मे। आग लगादे जो प्राणों में, वह अंगार उगलने दो।
सवा अरब सीनों की ताकत, पाक इरादों पर भारी। ढाई अरब जब हाथ उठेंगे, कर के पूरी तैयारी। सुनकर सिंह नाद भारत का, हिल जाएगी यह वसुधा। काँप उठेंगे नापाकी ये, आतंकी ताकत सारी।
कविजन ऐसे गीत रचो तुम, मंथन हो मन आनव का, सुनकर ही वे दहल उठे दिल, आतंकी जन दानव का। जन मन में आक्रोश जगादो, देश प्रेम की ज्वाला हो। रीत शहीदी जाग उठे बस, धर्म निभे हर मानव का।
(आनव=मानवोचित)
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ
रिश्तों के दो वर्ग दिखें हैं . ( लावणी छंद - मुक्तक ) . खूब मिठाई खाई सबने, अबकी बरस दिवाली में! फुलझड़ियाँ भी खूब चलाई, अबकी बरस दिवाली में! कितना हुआ प्रदूषण खर्चा, आज हिसाब लगाओ तो! कितनों को दी सच्ची खुशियाँ, अब की बरस दिवाली में! . घर चमकाए,दर चमकाए, अबकी बरस दिवाली में! जगमग रोशन और सजावट, अबकी बरस दिवाली में! कितने घर बिन दीप,रोशनी, सहमें बिना मिठाई के! किस किस की है जली झोंपड़ी, अब की बरस दिवाली में! . पाँच दिवस का पर्व मनाया, खुशियों संग दीवाली में! रिश्ते नाते खुशी बधाई, बाँटे लिए दिवाली में! किस किस घर में मातम पसरा, खोज खबर क्या ले ली है! दुर्घटनाएँ भी हुई होंगी, अब की बरस दिवाली में! . बल्ब जलाए गये करोड़ों, भवनों में दीवाली में! खूब खरीदे गये विलासी, सौदे इस दीवाली में! निर्धन बेघर बच्चे डरते, धूम धड़ाक पटाखों से! थोड़ा सोच हिसाब लगालो, अब की बरस दिवाली में! . सबने बर्तन वस्त्र मँगाए, गहने इस दीवाली में! बच्चो की मानी फरियादे, सारी इसी दिवाली में! दादा दादी भूवा फूफे, रहे उपेक्षित देखो तो! रिश्तों के दो वर्ग दिखें हैं, अब की बरस दिवाली में! . ------- © बाबू लाल शर्मा,बौहरा, विज्ञ सिकंदरा,३०३३२६ दौसा,राजस्थान,9782924479
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