उल्लाला छंद शतक ( १५,१३)
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~~~~~~~~~~बाबूलालशर्मा,विज्ञ
*उल्लाला छंद (१५,१३) विधान*
जगण रहित
विषम चरण - १५ मात्रा
सम चरण. - १३ मात्रा
चार चरण का छंद
चरणांत में २१२अनिवार्य,
समकल से चरणारंभ हो
. *उल्लाला छंद शतक*
. १. श्री गणेशाय: नम: ~
गौरी सुत हे शिव के तनय,
जय गणेश भगवान तुम।
कविता लेखन मय कल्पना,
चाहें प्रभु वरदान हम।।
. २. माँ शारदे वंदन ~
हे माता शारद आइए,
उत्तम करिए कर्म सब।
दे दो छंदो का ज्ञान तुम,
निभना है कवि धर्म अब।।
. ३. कलम की सुगंध ~
शाला महकेगी यह सदा,
कविता कलमी गंध भर।
सीखेंगे कविजन छंद यों,
निज श्रम से अनुबंध कर।।
. ४. गुरु वंदन ~
माता शारद की है कृपा,
सम्मानित विख्यात कवि।
सादर वंदन है आपको,
श्री संजय विज्ञात रवि।।
. ५. निज मन मंथन ~
कविताई मेरा कर्म यह,
मानें असि की धार मन।
यह शर्मा बाबू लाल नित,
सीखे नव सुविचार धन।।
. ६. मानव~
मानव जीवन वरदान है,
दुर्लभ प्राकृत साधना।
देवों के मन भी चाह यह,
नर तन मानस कामना।।
. ७. बंधन~
बंधन अच्छा संस्कार का,
मन बंधित कब मानवी।
जीवन जीएँ उन्मुक्त जो,
पशु खग है या दानवी।
. ८. होली~
होली होनी थी सो हुई,
उतरे सारे रंग जब।
पत्ते उतने ही ढाक के,
मानस नर बदरंग अब।
. ९. निर्मल ~
नर्मद यमुना निर्मल बहे,
सरिता पावन जाह्नवी।
नद सर झरने तालाब को,
कर मत दूषित मानवी।।
. १०. करुणा ~
करुणा जीवन में धार कर,
रघुपति गिरधर जानिए।
त्रिशला नंदन,सिद्धार्थ को,
अवतारी नर मानिए।।
. ११. अनुपम~
प्रभु छवि अनुपम जब जानिए,
संगत हो जब जानकी।
लक्ष्मण जब पहरे पर रहें,
सेवा हो हनुमान की।।
. १२. बाबुल~
बाबुल मिथिलापति थे सखी,
पति रघुवर प्रतिपाल थे।
देवर अवतारी शेष के,
क्यों वन में खेले लाल थे।।
. १३. बाती~
बहता पुरुषों में नेह नद,
तिय मन मिल मृगलोचनी।
दीपक बाती मिल तेल से,
तम हर करते रोशनी।।
. १४. कलकल~
कविजन की कमिता कल्पना,
कहती कविता कोकिला।
बहती कलकल कर नाद नद,
मन प्रिय सागर से मिला।।
. १५. उड़ना~
राणा साँगा प्रणवीर जो,
मेवाड़ी सरदार था।
उनका भाई पृथ्वी बड़ा,
उड़ना राजकुमार था।।
. *अथवा*
सीखा उड़ना शिशु बाज ने,
अपनी प्यारी मात से।
छोटी चिड़ियों को मारता,
बचता निज आघात से।।
. १६. भारत~
प्रिय भारत मेरा देश है,
वीरों का शुभ मान है।
नदिया पर्वत मैदान मय,
सागर भी वरदान है।।
. १७. राहें ~
कंटक मय राहें भी भली,
यदि होता हित देश का।
सीमा अपनी रक्षित रखें,
वंदन सैनिक वेश का।।
. १८. कंटक~
कंटक रक्षक है फूल के,
अनुशासन के रूप में।
सँभले राही बढ़ते गए,
कुछ गिरते भव कूप में।।
. १९. चलना~
चलना देखो नित चंद्र का,
नियमित संयम जानिए।
धारा नदियाँ बहती चले,
प्रिय प्रेमिल चित मानिए।।
. २०. बोली ~
भाषा बोली हित मानवी,
जो अनुपम सौगात है।
जो बदले हर परिवेश में,
कोयल कागा बात है।।
. २१. अभिलाषा~
पूरी अभिलाषा कीजिए,
करता हूँ नित कामना।
चाहूँ मरना हित देश के,
सच मेरी मन भावना।।
. २२. पूजन~
साथी चलना सबको अभी,
पूजन सीमा भारती।
अब रक्तिम होली खेलकर,
गाएँ भारत आरती।।
. २३. बीमारी~
बीमारी पाकिस्तान की,
मिटती भारत क्रोध से।
आतंकी दल को मारना,
नव शस्त्रों नव शोध से।।
. २४. मिलकर~
मिलकर रहते हैं धर्म मय,
भारत के भगवान अब।
विपदा आपद का सामना,
करते मिल बलवान सब।।
. २५. सपने~
देखे सपने बस देश के,
मानव का कल्याण हो।
मेरा भारत हो विश्व गुरु,
जन के बसते प्राण हो।।
. २६.शीतल~
तन मन को शीतल रख सखे,
मृदु रखलें व्यवहार हम।
जीवन पथ में हो रोशनी,
छँट जाए भव भार तम।।
. २७. आपस~
आपस में रखना प्रेम से,
त्यागो ईर्ष्या द्वेष जन।
भारत माता के पूत हम,
शुभ रखना परिवेश मन।।
. २८. तुलसी~
जब पंडित आत्मा राम के,
घर में शुभ आभास था।
हुलसी वह हुलसी जन्म दें,
शिशु वह तुलसी दास था।
. २९. परिभाषा~
भाषा परिभाषा कह रहे,
वैज्ञानिक सिद्धांत हैं।
लेखक ढूँढे कविजन बहुत,
फिर भी मानव क्लांत है।।
. ३०. धरती~
धरती माता जैसे हमें,
देती सहती धारती।
अपना मानव कर्तव्य है,
सेवा करलें आरती।।
. ३१. चूड़ी~
चमके हाथों में चूड़ियाँ,
कंगन पहने कामिनी।
पतिमय तिय के तप तेज से,
शर्माए नभ दामिनी।।
. ३२. पायल~
पद घुँघरू पायल सज रहे,
थिरके काया नृत्य हित।
ज्यों साजन सावन में सखी,
खुशियों में तिय दत्तचित।।
. ३३. वेणी~
केशों की वेणी गूँथकर,
बाँधे जूड़ा पुष्प मय।
सजती सोलह शृंगार वह,
संकोची प्रेमिल उभय।।
. ३४. माला~
माला गूँथे नित मालिने,
हर माला पर भिन्न है।
वर माला बन जाती कई,
कुछ शव पर विच्छिन्न है।।
. ३५. काजल~
काजल या काला कोयला,
सम रूपक है कृष्ण तम।
गोरी दृग चूल्हा भट्टियाँ,
कान्हा राधा तृष्ण सम।।
. ३६. माणिक~
माणिक मिलते हैं शैल पर,
मोती गज के शीश में।
सागर जल में ज्यों रत्न हैं,
नर मन है जगदीश में।।
. ३७. गढ़ना~
गढ़ना देखो तुम कुम्भ का,
कर उर ऊपर चोट धर।
सतगुरु चाहे शिष्य में,
गुण हों सारे खोट हर।।
. ३८. थाती~
थाती है भारत देश की,
संस्कृति अरु संस्कार वर।
गुरुजन माँ का सम्मान सच,
जीवन सत आचार पर।।
. ३९. भावी~
जाने कौशिक भावी बने,
सीता पति श्री राम हैं।
लेकर वे अपने साथ में,
पहुँचे मिथिला धाम हैं।।
. ४०. पारस~
मानव पारस को खोज मत,
बन पारस आदित्य तन।
संगति सुधरे सर्वस मिले,
लिख उत्तम साहित्य मन।।
. ४१. गुरुकुल~
वैदिक युग में तब वेद रच,
दी अनुपम सौगात नर।
वंदन ऋषिवर का नित करे,
जन ज्ञानी आभार कर।।
. ४२. गुरुकुल~
गुरुकुल में पढ़ते वेद जो,
कर लेते कंठस्थ सब।
ज्ञानी ऋषि मुनि जन धन्य थे,
वच विद्या मध्यस्थ तब।।
. ४३. रिमझिम~
रिमझिम बरसे घन मेह जब,
सावन साजन नेह द्वय।
सुन्दर लगता घर स्वर्ग से,
नर नारी द्विज देह मय।।
. ४४. पाठक~
पाठक कविता पद छंद के,
आलोचक विद्वान सब।
कविजन लेखक साहित्य के,
रविसम दिनकर मान अब।।
. ४५. चिट्ठी~
चिट्ठी आती पितु मात की,
जब सैनिक के पास में।
बोले जय जय हिन्द वह,
पढ़ता मंगल आस में।।
.
. ४६. विपदा~
विपदा आए परखें सखे,
धीरज मित तिय धर्म को।
मानव जीवनपथ है कठिन,
कर निर्धारित कर्म को।।
. ४७. लीला~
वह लीला श्री यदुनाथ प्रभु,
राधा रुक्मिनि वाम की।
मीरा जैसी सत साधिका,
ढूँढे रज ब्रज धाम की।।
. ४८. गोदी~
जिस गोदी में खेले सुता,
बड़ भागी पितु मात है।
ईश्वर का शुभ वरदान यह,
प्राकृत की सौगात है।।
. ४९. तुलना~
तुलना जन धन की हम करे,
गुण दौलत व्यापार से।
शिक्षा धन या विज्ञान बल,
जीवन धन व्यवहार से।।
. ५०. कीचड़~
जल-कीचड़ में खिलता कमल,
कहते पंकज लोग सब।
सदगुण अपने विकसित करे,
गंधित सुंदर योग अब।।
. ५१.चाकर~
चाकर जो करता चाकरी,
सेवा करता दास चर।
साधक करते तप साधना,
कान्हा करते रास नर।।
. ५२.भरती~
कविता भरती तन तेज मन,
पनिहारी घट नीर नित।
भरती जड़ चेतन भू उदर,
मानस माता धीर हित।।
. ५३.जगती~
धारित तन जग जगती वही,
धरती माता धैर्य धन।
अंबर पावक जल वायु मय,
प्राकृत सविता स्थैर्य जन।।
( स्थैर्य ~ दृढ़ता, स्थिरता )
. ५४. बचपन~
बचपन में चाहें हों युवा,
पाएँ दौलत शक्ति तन।
फिर पचपन में नर चाहते,
बचपन कोई भक्ति मन।।
. ५५. झरना~
हम सब गिरते को देखते,
नर झरना या मेह को।
हे मानव उठकर थाम ले,
गिरती दुर्बल देह को।।
. ५६.वाणी~
वाणी मीठी सच बोलिए,
मिथ्या भाषण भूल कर।
सच्चाई छिपती है नहीं,
बन जाते मिथ शूल नर।।
. ५७.पानी~
पानी भू पर अनमोल है,
जड़ चेतन जग जीव हित।
बहती सरिताओं का रहे,
कलकल का संगीत नित।।
. ५८.माया~
हरि माया जन जगदीश की,
जग जंगम में व्याप्त है।
कुछ मानव दाता है सदा,
जन वंचित कुछ प्राप्त है।।
. ५९.ज्वाला~
जग जगती ज्वाला जन जलन,
दीपक दाहक क्रांतियाँ।
पावक रोशन जय ज्योतिका,
जनजीवन जग भ्रांतियाँ।।
. ६०. पनपे~
पनपे पटु पागल पातकी ,
खल आतंकी चोर जन।
सीमा पर ही मारिए,
बिन सींगों के ढोर तन।।
. ६१.संकट~
संकट भोगे संसार जन,
फैला कैसा रोग यह।
कोविड़ का भारी अब कहर,
तन विपदा संयोग यह।।
. ६२.औषधि~
तुम औषधि लेना पथ्य खा,
रहना हर परहेज से।
नादानी फिर करना नहीं,
जल्दी उठना सेज से।।
. ६३.कड़वी~
कड़वी भाषा नर सीख मत,
कागा जैसे बोलकर।
कोयल खग मैना कीर सम,
वाणी में रस घोल नर।।
. ६४.कलयुग~
कलयुग होता अभियांत्रिकी,
कलियुग द्वापर बाद में।
कल युग बदले फिर सोच लें,
रख कलि सम्वत याद में।।
. ६५.खिचड़ी~
कुंतल खिचड़ी से हो रहे,
झुर्री वाले गाल द्वय।
वृद्धावस्था आसन्न है,
बढ़ते सिलवट भाल वय।।
. ६६. मारुति~
मारुति नंदन के नाम से,
काँपे हर बेताल खल।
भूतों प्रेतों राक्षस सहित,
मिटते मारक चाल बल।।
. ६७.काँसा~
ताँबा पीतल के मेल से,
बनता काँसा योग जब।
थाली बर्तन आहार हित,
मिटते कायिक रोग तब।।
. ६८.पनघट ~
प्यारे पनघट प्यासे हुए,
जल पहुँचा पाताल अब।
गागर मटकी अरु घट घटे,
लख पनिहारी चाल कब।।
. ६९.आँचल~
आँचल माता का थामकर,
शिशु बढ़ चलते पंथ पर।
गुरु बनती जननी पालती,
पढ़ता बढ़ शिशु ग्रंथ हर।।
. ७०.मधुबन ~
मधुवन में मन स्मृतियाँ बसी,
राधा मय यदुनाथ की।
गो गिरि गोपी घनश्याम छवि,
लकुटी मय प्रभु हाथ की।।
. ७१. शुभदा~
माता शुभदा हे शारदे,
दे मति लिख दूँ छंद पद।
पढ़ सामाजिक सद्भाव हो,
हर जन मन के द्वंद मद।।
. ७२. गहरी~
प्रभु में आस्था घर नींव मित,
गहरी रखिए सीख मन।
शिक्षा पोषणमय स्वच्छता,
उत्तम जीवन लीख जन।।
. ७३.भाषा~
हिन्दी भाषा को सीखिये,
भारत का अभिमान हो।
मानव मानस जन एकता,
ऐसा जन अभियान हो।।
. ७४. मंगल~
नित मंगल ग्रह पर खोजते,
जन जीवन की आस हो।
जीवन में मंगल जब रहे,
जल धरती शशि भास हो।।
. ७५.साबुन~
तन वस्त्रों की बहि गन्दगी,
जल साबुन से दूर कर।
मानस आत्मा निर्मल रहे,
सत्संगति भरपूर कर।।
. ७६. यमुना~
यमुना तट गिरि वन जन सखे,
बड़भागी तरु धेनु सब।
कान्हा राधा वे गोपियाँ,
मधुवन कण कण रेनु अब।।
. ७७. रोचक ~
रोचक लीला हरि कृष्ण की,
मधुरिम मुरली तान पर।
ता ता थैय्या नट नृत्य वह,
राधा जी की शान वर।।
. ७८. अंबर~
अंबर को पनघट लिख दिया,
गागर तारक मानिए।
जय शंकर जी रचते उषा,
पनिहारी पहचानिए।।
. ७९. रेखा~
रेखा हाथों की क्या करे,
जीवन की पहचान नर।
संकट श्रम करने से मिटे,
कर्मो से मिथ मान हर।।
. ८०. तीरथ~
तीरथ मंदिर गिरि घाट नद,
पूजित जन विख्यात सब।
वेदों में है विज्ञान यह,
सब जग को विज्ञात अब।।
. ८१. मुखिया~
सूरज सम मुखिया हो सदा,
दल हो या सरकार घर।
जन मत को दे अवसर भले,
पोषण हित आधार पर।।
. ८२. गुड़िया ~
गुड़िया से खेले जब सुता,
तब नित गुड़िया पर्व सम।
जिस घर जन्मे शिशु बालिका,
कर ले उन पर गर्व हम।।
. ८३. रचना~
रचना देखो इस देह की,
तरु जग घर ब्रह्माण्ड भू।
रग रग तन में विज्ञान है,
कण कण से मृद भाण्ड भू।।
. ८४. जननी~
जननी हर शिशु को जन्म दे,
पालन करती मात नित।
विधना जैसा होता पिता,
नर मत कर आघात चित।।
. ८५. सविता~
नव रचना कर सविता बने,
दिनकर बन दिन मान जन।
मानव मानस तन तेज भर,
दीपक सम दिवसान बन।।
. ८६. शोणित ~
युद्धों में शोणित बह गया,
झेली मारी गोलियाँ।
भारत माता की शान हित,
खेले सैनिक होलियाँ।।
. ८७. साधक~
सच्चे कवि साधक छंद के,
रखते मात्रा ज्ञान जब।
अक्षर अक्षर पद जोड़ते,
लिखते देकर ध्यान तब।।
. ८८. नीलम~
नीलम की प्रतिमाएँ पुरा,
बनती अनुपम दिव्यतम।
पूजित हरि मंदिर धाम में,
अब भी लगती नव्यतम।।
. ८९. नवधा~
वर्णन जब नवधा भक्ति का,
करते प्रभु श्री राम हैं।
शबरी सुनती सौभाग्य से,
होकर तब निष्काम है।।
. ९०. काली~
काली दुर्गा शचि शक्तियाँ,
गौरी सीता मात हैं।
लक्ष्मी जैसी हैं सब सुता,
नर कर तिय बल ज्ञात हैं।।
. ९१. भीनी~
भीनी गंधी फुलवारियाँ,
बगिया फल दल से लदी।
मुनि आश्रम पावन वे बने,
तट बहती गंगा नदी।।
. ९२.मानस~
मानस वह तुलसी दास का,
मर्यादा प्रभु राम की।
मानव के हित भागीरथी,
महिमा रघुवर नाम की।।
. ९३.टेसू ~
टेसू केसू परसा सुमन,
किंशुक भी कहते सभी।
खिलते है तरुवर ढाक में,
लगते पावक से कभी।।
. ९४.आतप~
आतप मौसम आए सखे,
पछुआ चलती है पवन।
सूखी धरती पर लू बनी,
झुलसाती है तन बदन।।
. ९५. कारण~
कारण खोजें हर रोग का,
नैदानिक उपचार कर।
औषधि से निर्भर स्वस्थता,
रोगी के व्यवहार पर।।
. ९६. अचला~
अचला दिनकर परि घूमती
घूर्णन करती केन्द्र पर।
चूनर धानी जल हेतु भू ,
निर्भर है देवेन्द्र पर।।
. ~ अथवा ~
अचला घूमें घूर्णन करे,
ज्यों घूमें मनसाज जब।
उल्लाला छंदो का शतक,
लिख पाए कविराज तब।।
. ९७. गुंजन~
गुंजन करते नित छंद नव,
लिखते पद कविवृंद है।
महके गंधित हो कवि कलम,
ऐसी शाला छंद है।।
. ९८. तारा~
ध्रुव तारा-तारक-तारिका,
सोचें जो उपनाम है।
कौशिक-कविजन-कवयित्रियाँ,
शाला में कृतकाम है।।
. ९९. चातक~
चातक जैसे हैं कवि सुजन,
प्रणधारी साहित्य हित।
हिन्दी हित शाला छंद में,
मानित ये आदित्य सित।।
. १००.उल्लाला~
उल्लाला छंदो का शतक,
सुन्दर रचना साज वह।
प्यारे कवियों की कामना,
पूरी होती आज यह।।
. ••••••••••
✍©
बाबू लाल शर्मा,बौहरा,विज्ञ
सिकंदरा, ३०३३२६
जिला- दौसा, राजस्थान
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