प्रेम विरह के दोहरे

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~~~~~~~~~~~~~~बाबूलालशर्मा,विज्ञ
❤️🌹 *प्रेम - विरह के दोहरे......*🌹❤️
जैसे भी तुम हो जहाँ, खुश रहना मन मीत।
दोष  हमें  देना  नही, मिले  तुम्हे  हर जीत।।
सुप्त करो मन को नहीं, खिलते बनो गुलाब।
प्रीति रीति यों पालिए, कलकल बहे चिनाब।।
बाट देख  कर सो  गया, खिले न  तारे रात।
नेह ढूँढ़  कर खो  गई, यादों  की   बरसात।।
तकता रहूँ चकोर बन, शशिसम तुम को मीत।
मेघ  बीच  में  आ  रहे, निभे  न  दर्शन  प्रीत।।
प्रेम सभी  चाहे  मनुज, हर पल मन सम्मान।
देना  वह  चाहे  नही, प्रेमिल  मन  प्रतिदान।।
प्रेम  प्रेम  सब जन कहें, करे  असंख्यों  लोग।
मनुज निभाते भी बहुत, कुछ समझे यह रोग।।
रूठ रूठ कर प्रेम का, बुनते निश दिन जाल।
मीत स्वयं ही फँस रहे, सहज काल की चाल।।
पड़े  गँठीली  गाँठ बहु, उलझे  मन की डोर।
सुलझाए  सुलझे  नहीं, पचे  रात  हो  भोर।।
प्रीति पुष्प कुम्हले मनुज, खिले न फिर दे गंध।
सत्य समझते  हैं सभी, फिर क्यों  बनते अंध।।
१०
प्रीति ज्ञान शिक्षा सतत, चले निभे तब धर्म।
मिले रुकावट हानि भव, यह यथार्थ है मर्म।।
११
देख देख कर जी रहा, शशि को विहग चकोर।
प्रीत मिलन की आस में, 'विज्ञ' करे कब शोर।।
१२
बाट जोहना  ही सुखद, मधुर  याद  की मीत।
मिलना दुर्लभ देह का, ह्रदय मिलन भवगीत।।
१३
समय और दूरी उभय, मीत  नेह  विपरीत।
प्रीत रहे मन में सदा, निभे भली हिय प्रीत।।
१४
तीन दिवस से स्वास्थ्य का, हाल बड़ा कमजोर।
सो  न  सका  हूँ  रात में, भारित अँखिया कोर।।
१५
मन से  है आभार  जी,  किंतु  समय  प्रतिकूल।
स्वास्थ्य काल अरु भाग्य को, होने दो अनुकूल।।
१६
व्यस्त रहें  दिन में  बहुत, रातों  में  अवसाद।
प्रीति रीति की कल्पना, और विगत की याद।।
१७
अब क्या माँगू आप से, मन चाही  सौगात।
मुश्किल संगी हो रहा, करना मन की बात।।
१८
दर्शन  बस  होते  रहे, बनो  तुम्ही  भगवान।
प्रीति रीति निभती रहे, इतना रखना ध्यान।।
१९
जो हम होते  पास में, साथ बैठ कर मीत।
भूल विगत के घाव सब, रच देते नवगीत।।
२०
दुर्लभ  दूरी  लाँघना, करना  सागर  पार।
कंधों पर  हम तुम लदे, संस्कार का भार।।
२१
किए प्रीत मिलता विरह, तड़प मौन संवाद।
बार  बार  आते  तुम्ही, याद  बसी उर याद।।
२२
आस और विश्वास है, जीवन का आधार।
इन दो  ही  पतवार  से, उतरे भव से पार।।
२३
दे दो तुम आँसू मुझे, लो खुशियाँ मय नेह।
प्रीति रीति निर्वाह कर, पावन कर मनदेह।।
२४
याद  सभी  यादें  रही,  सपनों  में  भी  याद।
किसको कितनी याद है, किसे करें फरियाद।।
२५
अविरल झरना रोककर, और दिशा को मोड़।
नेह  भाव  अवरोध वह, प्रीति  रीति  दे छोड़।।
२६
फिर  कहते  हमसे वही, भूल  गए  मन मीत।
कैसे  समझाएँ  इन्हे, खोया  कल कल गीत।।
२७
हम तो मन से भक्त थे, अब भी हैं  तव भक्त।
कर निराश तुम ही रहे, हम मन मय आसक्त।।
२८
दोष मिले  नर को सदा, यही  पुरातन रीति।
हृदय पुरुष  का हारता,  घायल होती प्रीति।।
२९
चाहा था मन प्राण से, नही छिपे कुछ स्वार्थ।
नेह प्रीति मनभाव का, समझे  कब भावार्थ।।
३०
कली कसमसाती रही, पंथ भटकता भृंग।
हदय नेह चाहे उभय, हर क्षण रहना संग।।
३१
शुद्ध हृदय की प्रीत पर, पहरे रखे समाज।
भ्रष्ट आचरण में सने, भाषण  देते  आज।।
३२
नवराते की  भक्ति में, नहीं  भुलाना  प्रीति।
प्रेम पंथ के हम पथिक, संग निभाना रीति।।
३३
देवी के  नव रूप  में, एक  आपका  वेश।
बासन्ती  प्राकृत  छटा, दैवी दिव्य दिनेश।।
३४
किया  नेह से  मेघ ने, वसुधा  का  शृंगार।
चूनर  धानी  रंग पर, ओस  करे  मनुहार।।
३५
ध्यान भंग तव हो रहा, विचलित होते प्राण।
भटके मग  दो राह में, मिले नहीं  तन त्राण।।
३६
चातक और चकोर सम, हंस हरिण सी प्रीत।
बहुत  पुकारे  मोर बन, मिले न हम को मीत।।
३७
गई  चकोरी  चातकी, मृगी   मराली   वन्य।
बिछुड़ गई  मन मोरनी, मिले न कोई अन्य।।
३८
ढूँढा जग को छान कर, मिली  प्रेयसी  एक।
छोड़ चली वह भी हमें, उसकी चाह अनेक।।
३९
रहे  अकेले  एक  थे, संगी  निभे  न एक।
मीत बनाने के लिए, हम में  कहाँ विवेक।।
४०
टर्राते   दादुर  बने,  हुई   साँझ  से  भोर।
मिली न कोई  संगिनी, रोते  चंद्र चकोर।।
४१
कहते हैं  हमसे  वही, करें  तुम्ही से प्रीति।
मगर समय  देते नहीं, यही  निभाते रीति।।
४२
धरा गगन मिलते नहीं, सच में दुर्लभ मीत।
प्रेम विरह पर्याय द्वय, देखें सकल अतीत।।
४३
आओ तो स्वागत करूँ, फूल सजाकर सेज।
लिखूँ अन्यथा चैन से, विरह  गीत  निस्तेज।।
४४
प्रेम किया  हमने जिसे, मान एक  भगवान।
उसने हमसे  भी किया, प्रेम  पात्र पहचान।।
४५
सुनी कृषक की मेघ ने, भू हित प्रीति पुकार।
नेह  सुधा सम  नीर से, सींचा  भली  प्रकार।।
४६
करो  उपेक्षित  अब  हमें, भूल  पुराने  राग।
नये रचो अध्याय फिर, खेलो मनभर फाग।।
४७
ऊब चुकी हो तुम सखी, हम से बहुत अकाज।
मन से  है शुभ कामना, नव्य  सजाओ साज।।
४८
प्रीति डगर चलना कठिन, दो धारी  तलवार।
लगे सरल प्रारंभ में, फिर तन पल पल क्षार।। 
४९
कहाँ निभाते प्रीति को, मिलते मीत अधीर।
प्रेम रोग दे फिर दिए, हृदय  चीर  दृग नीर।।
५०
संयत  रहते  ही  रहे, समय गँवाया सार।
हार रहे  अब  मीत  से, हार रहे  आचार।।
५१
बिना जले होती नही, मानस मनुज भभूति।
पन्थ चले  अभ्यास बिन, हो कैसे अनुभूति।।
५२
उम्मीदें  पाली  बहुत,  सहा  विरह  भरपूर।
अब तो लगता है सखी, सच में दिल्ली दूर।।
५३
क्यो दिखलाए आस पथ, भर मन में उम्मीद।
छोड़ सार  सुख रह गये, बेच  दृगों  की नींद।।
५४
समय कहाँ है आपको, रहो सदा अति व्यस्त।
हम ठाले  रहते सदा, विगत याद  मन ध्वस्त।।
५५
कुछ बोलूँ तो चुभ रहे, मौन अखरता सत्य।
मीत बताओ क्या करूँ, याद सताती नित्य।।
५६
हो जाऊँ  मैं मौन  यदि, यही तुम्हे स्वीकार।
तंग करूँ  मैं आपको, कह के  मनोविकार।।
५७
नित्य  विरह  सहते  हुए, मन में पले विकार।
लिख के कह के बोल के, निकले कई प्रकार।।
५८
लिखता रहता इसलिए, मन की मौज भड़ास।
बनी हुई है अब तलक, मीत मिलन की आस।।
५९
बुरा लगे तो  कह हमें, लिखना कर दूँ बन्द।
सहता रह लूँगा  सतत, मन में  पलते द्वन्द।।
६०
शरद काल  प्रारम्भ में, सुखद सुहानी भोर।
ओस बिन्दु  मोती सजे, झाँके खड़ा चकोर।।
६१
आस रखो  मन में सदा, रहना  नही  निराश।
जीवन यह अनमोल है, रख निजपर विश्वास।।
६२
सिर्फ स्वयम् पर ही रखो, मीत नित्य विश्वास।
तमस विश्व में व्याप्त है, जुगनू आस उजास।।
६३
हम चाहे  संजीवनी, मिले जो  पावन प्रीत।
इसीलिए  गाते सहज, सदा  मीत के गीत।।
६४.
प्रेम विरह के दोहरे, 'विज्ञ' लिखे हर काल।
बिना  मीत  सहता  रहा, शर्मा  बाबू लाल।।
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✍©
बाबू लाल शर्मा, बौहरा,'विज्ञ'
सिकन्दरा, दौसा, राजस्थान
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