बिना नीड़ के बया बिचारी
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~~~~~~~~बाबूलालशर्मा
🤷♀ चित्र मंथन 🤷♀
*बिना नीड़ के बया बिचारी*
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कटे पेड़ के ठूँठ विराजी,
बया मनुज को कोस रही।
बेघर होकर, बच्चे अपने,
संगी साथी खोज रही।
मोह प्रीत के बंधन उलझे,
जीवन हुआ क्लेश में।
जैसा भी है,अपना है यह,
रहना पंछी देश में।
हुआ आज क्या बदल गया क्यों,
कुटुम कबीला नीड़ कहाँ।
प्रातः छोड़ा था बच्चों को,
सब ही थे खुशहाल यहाँ।
परदेशी डाकू आए या,
देशी दुश्मन वेश में।
जैसा भी है अपना है यह,
रहना पंछी देश में।
इंसानी फितरत स्वारथ की,
तरुवर वन्य उजाड़ रहे।
प्राकृत पर्वत नदियाँ धरती,
सबका मेल बिगाड़ रहे।
जन्मे खेले बड़े हुए हम,
जैसे जिस परिवेश में।
जैसा भी है अपना है यह,
रहना पंछी देश में।
जिन पेड़ों से सब कुछ पाया,
जीवन भर उपकार लिया।
मानव तुमने दानव बन क्यों,
तरुवर का अपकार किया।
पर्वत खोदे वन्य उजाड़े,
स्वारथ के आवेश में।
जैसा भी है अपना है यह,
रहना पंछी देश में।
प्रात जगाया मानव तुमको,
पंछी कलरव गान किया।
छत पर दाना चुगकर हमने,
बस बच्चों का मान किया।
पेड़ और पंछी को अब क्या,
देखोगे दरवेश में,
जैसा भी है अपना है यह,
रहना पंछी देश में।
तूने ठूँठ किया तरुवर को,
जिस पर नीड़ हमारे थे।
इस तरुवर वन मे हमने,
जीवन राग सँवारे थे।
कैसे भूलें कैसे छोड़ें,
रहते मौज प्रदेश में।
जैसा भी है अपना है यह,
रहना पंछी देश में।
....रहना पंछी देश में।
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✍©
बाबू लाल शर्मा, बौहरा
सिकंदरा,303326
दौसा,राजस्थान
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