विज्ञ, सरस छंद माला ( बुक )


विज्ञ
सरस छंद माला
.                          बाबू लाल शर्मा बौहरा विज्ञ

 .                 " छन्द "
छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है ' आह्लादित " , प्रसन्न होना।
छंद की परिभाषा- 'वर्णों या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। 
छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है।
'छंद के अंग'-
1.चरण/ पद-,-
छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।
चरण २ प्रकार के होते हैं- सम चरण और विषम चरण। 
2.वर्ण और मात्रा -
एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, वर्ण= स्वर + व्यंजन
 लघु १,  एवं गुरु २ मात्रा
3.संख्या और क्रम-
वर्णों और मात्राओं की गणना को संख्या कहते हैं।
लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं।
4.गण - (केवल वर्णिक छंदों के मामले में लागू)
गण का अर्थ है 'समूह'।
यह समूह तीन वर्णों का होता है।
गणों की संख्या-८ है-
यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगण
इन गणों को याद करने के लिए सूत्र-
यमाताराजभानसलगा
5.गति-
छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।
6.यति-
छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर श्वाँस लेने के लिए रुकना पड़ता है,  रुकने के इसी  स्थान को यति कहते हैं।
7.तुक-
छंद के चरणान्त की वर्ण-मैत्री को तुक कहते हैं।
(8). मापनी, विधान व कल संयोजन के आधार पर छंद रचना होती है।
प्रमुख "वर्णिक छंद"-- ,
-- प्रमाणिका, गाथ एवं विज्ञात छंद (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयात, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी १२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला ( १६ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण)
प्रमुख मात्रिक छंद-
सम मात्रिक छंद : अहीर (११ मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार (२८ मात्रा), हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा)।
अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में - १२ मात्रा, सम चरण में - ७ मात्रा), दोहा (विषम - १३, सम - , सोरठा, उल्लाला (विषम - १५, सम - १३)।
विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला)।

~ बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ


: हिन्दी छंद के लिए- मात्रा ज्ञान 

 भाषा में लेखन व उच्चारण शुद्ध हो -
स्वर-  आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ ये सभी २ गुरु ( गा ) हैं।
 अ,इ,उ,ऋ, १ लघु  ( ल ) है।
व्यंजन - १ लघु मात्रिक- क् ख् ग् .........श् ष् स् ह् ये सभी १ लघु (ल) हैं।
मात्राभार:- अभ्यास के लिए 
(1) अनुनासिक 'चन्द्र-बिंदी' ( ँ ) से वर्ण मात्रा भार में कोई अंतर नहीं आता जैसे- ढँकना ११२
(2) लघु वर्ण पर अनुस्वार ( ं ) के आने से  मात्रा भार २ गुरु हो जाती है। जैसे - गंगा २२ 
(3) गुरु वर्ण पर अनुस्वार( ं ) आने से उसका मात्रा भार पूर्ववत २ ही रहता है जैसे- नींद २१ 
(4).संयुक्ताक्षर :- (क्+ष = क्ष, त्+ र = त्र, ज् +ञ = ज्ञ)  यदि प्रथम वर्ण हो तो उसका मात्रा भार सदैव (लघु) १ ही होता है, जैसे – क्षण ११, त्रिशूल १२१ प्रकार १२१ , श्रवण १११,
(5). संयुक्ताक्षर में गुरु मात्रा के जुड़ने पर उसका मात्रा भार  (गुरु) २  होता है, जैसे–  क्षेत्र २१, ज्ञान २१  श्रेष्ठ २१, स्नान २१, स्थूल २१
(6). संयुक्ताक्षर से पूर्व वाले लघु १ मात्रा के वर्ण का मात्रा भार (गुरु) २ हो जाता है। जैसे- डिब्बा २२, अज्ञान २२१, नन्हा २२,कन्या २२
लेकिन- 'ऋ' जुड़ने पर अंतर नही आता जैसे- अमृत१११,प्रकृति १११, सुदृढ़ १११
(7).संयुक्ताक्षर से पूर्व वाले गुरु २ वर्ण के मात्रा भार में कोई अन्तर नहीं होता है, जैसे-श्राद्ध २१, ईश्वर २११, नेत्र २१,आत्मा २२, रास्ता २२,
(8).विसर्ग ( : ) - लगने पर मात्रा भार २ गुरु हो जाता है जैसे-अत: १२, दु:ख २१,स्वत: १२
(9).अपवाद-
१- यदि 'ह' दीर्घ हो तो-
जैसे-तुम्हारा १२२, कुम्हार१२१, कन्हैया १२२
२. यदि 'ह' लघु हो तो-
कुल्हड़२११, अल्हड़ २११, कन्हड़ २११
~ बाबू लाल शर्मा,  बौहरा, 'विज्ञ'


  .     ~ हरिगीतिका-छंद ~
११२१२,११२१२,११२१२,११२१२
.            ~ ईश वंदन ~
.                    ~~~~~
हर श्वाँस में मन आस ये,
          निभती रहे जग में प्रभो।
मन में प्रभा बन आप की,
         विसवास से तन में विभो।
तन आपके चरणों पड़ा,
         नित  चाहता  पद  वंदनं।
मन की कथा कुछ भिन्न है,
           मम कामना तव दर्शनं।
.                ~~~~~
हर मौज में व्यवहार में,
           प्रभु, आप ही रखवार हो।
हम से न सेवन बंदगी,
            हरि, नाम खेवनहार हो।
हमको करो मत दूर हे,
            हरि ,आप तारनहार हो।
दुख शोक रोग वियोग में,
             हरि,आप पालनहार हो।
.                 ~~~~~
हम दीन हीन अनाथ हैं,
          प्रभु पार तो हमको करो।
नव आस त्राण विधान दें,
          वह मान भी सबको सरो।
जन दास *लाल* तिहार है,
         अवमानना हरि क्यो़ं करो।
तन  तार  दे , मन  मार  दे,
          तम कामना मन की हरो।
.                 ~~~~~
इस लोक में तम नाश हो,
            हरि रोशनी तुम दीजिए।
तव लोक में मम वास हो,
           मम आस पूरण कीजिए।
भव तार दे  मन आस है,
          हरि काज ये मन लीजिए।
हरि "लाल" के तन त्रास भी,
         दुख पीर पय सम पीजिए।
.                ~~~~

बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ

: .           चौपाई
विधान:- सम मात्रिक छंद, १६,मात्रा, मापनी मुक्त 
चार चरण की एक चौपाई 
.              माँ
प्रात नमन माता को करना।
धरती गौ माँ सम आचरना।।
माँ धरती सम धरती माँ सम।
मन से वंदन करलें हरदम।।१

गौ माता है मात सरीखी।
बचपन से ही हमने सीखी।
माँ गंगा है पतितापावन।
यमुना सबको हृदयाभावन।।२

 शारद माता विद्या देती।
तम अज्ञान सभी हर लेती।।
पाँचो पूज्या जैसे माई।
प्रातः लिखी पाँच चौपाई।।३

 प्रथम गुरू कहलाती माता।
ईश्वर तुल्य जन्म नर पाता।।
माँ है त्याग क्षमा की मूरत।
देखी प्रथम उसी की सूरत।।४

माँ तक ही खुशियों का मेला।
माँ जाए मन हुआ अकेला।।
माँ की महिमागान असंभव।
करले सेवा तो सब संभव।।५
.        ---
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

: नमन्
.         (लावणी छंद)
वीणा पाणी, ज्ञान प्रदायिनी,
ब्रह्म तनया माँ शारदे।
सतपथ जन प्रिय सत्साहित,हित
 कलम मेरी माँ तार दे।

मात शारदे नमन् लिखादे,
धरती, फिर नभ मानों को।
जीवनदाता प्राण विधाता,
मात पिता   भगवानों को।

मात शारदे नमन लिखा दे,
सैनिक और किसानों को।
तेरे वरद पुत्र,माँ शारद, 
गुरु, कविजन, विद्वानों को।

मात शारदे नमन लिखा दे,
भू  पर मरने वालों को।
अपना सर्व समर्पण  कर के,
देश बचाने वालों को।

मात शारदे नमन लिखा दे,
संसद  अरु  संविधान को।
मातृ भूमि की बलिवेदी पर,
अब तक हुए बलिदान को।

मात् शारदे नमन् लिखा दे,
जन मन मान कल्याण को।
भारत माँ के सत्य उपासक,
श्रम के पूज्य इंसान को।

मात शारदे नमन लि खादे,
माँ भारती  के  गान को।
मैं तो प्रथम नमामि कहूँगा, 
माँ शारदे  वरदान को।
    ----------
बाबू लाल शर्मा"बौहरा"

.   चौपाई मुक्तक 
(१६ मात्रा मापनी रहित, सममात्रिक छंद)
.         पिता
.          °°
पिता  ईश  सम  हैं दातारी।
कहते  कभी  नहीं लाचारी।
देना ही बस  धर्म पिता का।
आसन ईश्वर सम व्यवहारी।१

तरु बरगद  सम छाँया देता।
शीत घाम सब  ही हर लेता!
बहा पसीना तन जर्जर कर।
जीता मरता  सतत  प्रणेता।२

संतति हित में  जन्म गँवाता।
भले  जमाने  से  लड़ जाता।
अम्बर  सा  समदर्शी  रहकर।
भीषण  ताप  हवा  में  गाता।३

बन्धु सखा  गुरुवर  का नाता।
मीत भला सब पिता निभाता!
पीढ़ी दर  पीढ़ी  दुख सहकर!
बालक तभी  पिता बन पाता।४

धर्म   निभाना  है  कठिनाई।
पिता    धर्म   जैसे  प्रभुताई।
नभ  मे ध्रुव तारा ज्यों स्थिर।
घर हित पिता प्रतीत मिताई।५

जगते  देख  भोर का  तारा।
पूर्व  देख लो  पिता  हमारा।
सुत के  हेतु पिता  मर जाए।
दशरथ  कथा पढ़े जग सारा।६

मुगल काल  में  देखो बाबर।
मरता स्वयं हुमायुँ बचा कर।
ऋषि दधीचि सा दानी होता।
यौवन जीवन  देह गवाँ कर!७

पिता धर्म निभना अति भारी।
पाएँ  दुख  संतति  हित गारी।
पिता  पीत   वर्णी  हो  जाता।
समझ  पुत्र  पर विपदा भारी।८
.            °°°°
बाबू लाल शर्मा

कुण्डलिया छंद
.                      हिन्दी भाषा
.                 १
हिन्दी  हिन्दुस्तान  की, भाषा  मात  समान।
देवनागरी लिपि लिखें, सत साहित्य सुजान।
सत साहित्य सुजान, सभी की है अभिलाषा।
मातृभाष   सम्मान , हमारी  अपनी   भाषा।
सजे भाल पर   लाल, भारती  माँ  के बिन्दी।
भारत  देश  महान, बने   जनभाषा   हिन्दी।
.                २
भाषा संस्कृत  मात से, हिन्दी शब्द प्रकाश।
जन्म हस्तिनापुर हुआ, फैला  खूब प्रभास।
फैला  खूब   प्रभास,  उत्तरी   भारत   सारे।
तद्भव  तत्सम  शब्द, बने   नवशब्द  हमारे।
कहे लाल कविराय, तभी से जन अभिलाषा।
देवनागरी    मान,  बसे   मन  हिन्दी  भाषा। 
.                 ३
भाषा शब्दों का बना, बृहद  कोष  अनमोल।
छंद व्याकरण के बने, व्यापक नियम सतोल।
व्यापक नियम सतोल, सही उच्चारण मिलते।
लिखें पढ़ें अरु बोल, बने अक्षर ज्यों खिलते।
कहे  लाल  कविराय, मिलेगी सच  परिभाषा।
हर   भाषा   से   श्रेष्ठ, हमारी  हिन्दी  भाषा। 
.                 ४
भारत भू  भाषा भली, हिन्दी  हिंद हमेश।
सुंदर लिपि से सज रहे, गाँव नगर परिवेश।
गाँव नगर परिवेश, निजी हो या  सरकारी।
हिन्दी हित  हर कर्म, राग अपनी  दरबारी।
कहे  लाल   कविराय, विरोधी  होंगें गारत।
कर हिन्दी का मान, श्रेष्ठ तब होगा भारत।
.                 ६
 हिन्दी  सारे  देश  की,  एकीकृत  अरमान।
प्रादेशिक  भाषा  भले, प्रादेशिक  पहचान।
प्रादेशिक पहचान, सभ्यता संस्कृति वाहक।
उनका अपना मान, विवादी  बकते  नाहक।
शर्मा  बाबू    लाल , सजे  गहनों  पर बिन्दी।
प्रादेशिक  हर  भाष, देश की  भाषा हिन्दी।
.                 ७
वाणी देवोंं की कहें, संस्कृत संस्कृति शान।
तासु सुता हिन्दी अमित, भाषा हिंदुस्तान।
भाषा  हिंदुस्तान, वर्ण  स्वर  व्यंजन प्यारे।
छंद मात्रिका ज्ञान, राग रस लय भी न्यारे।
गयेे शरण में   लाल, मातु पद वीणा पाणी।
रचे अनेकों ग्रंथ, मुखर कवियों की वाणी।
.                 ८
दोहा   चौपाई    रचे,  छंद   सवैया    गीत।
सजल रुबाई भी हुए, अब हिन्दी मय मीत।
अब हिन्दी मय मीत, प्रवासी जन मन धारे।
कविताई  का  भाव, भरें  ये कवि जन सारे।
हो  जाता है  लाल,  तपे  जब  सोना  लोहा।
तुलसी रहिमन  शोध, बिहारी कबिरा दोहा।
.            
बाबू लाल शर्मा,"

मुक्त छंद
.               दोस्ती/यारी

न करना कृष्ण सी यारी,
       .. *सुदामा को न तड़पाना,
खिलौने आप मिट्टी के,
   ...   *उसी मे खाक मिल जाना।

दोस्ती करना सखे तो ,राम या सुग्रीव सी,
जरूरते पूरी भली हो ,बात यह सब जानते।
दोस्ती  करनी तो  हीरे से, या सोने से,
मिट्टी से करें यारी,अपने ही पसीने से।

जो टूट कर भी दूर न हो अपने सीने से कभी,
करो यारी सदा प्यारे उस उत्तम से नगीने से।

मिले गर कर्ण सा याराँ, तो सीने से लगा लेना,
जाति व धर्म देखे बिन, उसे अपना बना लेना।

भूल संगी जख्म अपने,
             *घाव भरता मीत के,
त्याग अपने स्वार्थ सपने,
            काज सरता मीत के।
जमाने में अगर जीना,
           कभी मितघात न करना
यार के स्वेद के संगत,
     .....   कभी दो बात न करना।

दोस्ती पालनी तुमको तो,
       ..  खुद ही कर्ण बन जाना,
जमाने की नजर लगती,
          सुयोधन साथ लग जाना।

दोस्ती कृष्ण से करना न सुदामा ही कभी बनना,
बड़े  अनमेल  सौदे  है , जमाने संग रंगना है।

भला इससे तो अच्छा है,
           कि झाला मान बन जाना।
बनो राणा तो कीका सा,
       ..  या चेतक अश्व बन जाना।

वतन से प्यार करलो यार,
             इसी के काम आ जाना,
खिलौने आप माटी के
             उसी में खाक मिल जाना।
न करना कृष्ण सी यारी
              सुदामा को न तड़पाना,
खिलौने आप मिट्टी के,
              उसी में खाक मिल जाना।

यारी दु:ख से कर लेना,जन्म भर ये निभाएंगे।
कहाँ है मीत सुख साथी,यही तो साथ जाएंगे।
.          
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

 .       ख्वाहिशें
    .   (१४,१२)       
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है,
तान सीना जो अड़े है, 
वे  बहुत कमजोर हैं।
आज जो बनते फिरे वे ,
 शाह पक्के चोर हैं,
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।

ख्वाहिशें सैनिक दबाए,
 जो बड़ा बेजार है,
जूझ सीमा पर रहा जो,
मौत का बाजार है।
राज के आदेश बिन ही,
 वह निरा कमजोर है,
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।

ख्वाहिशें कृषकों से पूछो, 
स्वप्न जिनके चूर हैं
जय किसान के नारे गाते, 
कर देते मशहूर है।
नंग बदन अन्न का दाता, 
आज भी कमजोर है,
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।

ख्वाहिशें बच्चों से पूछो,
छिन गये बचपन कभी,
रोजगार के सपने देखें,
लगे न पूरे हुएँ कभी।
आरक्षण है भूल भुलैया, 
बेकामी घनघोर है,
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।

ख्वाहिशें गुरुजन से पूछो,
मान व सम्मान की,
संतती हित जो समर्पित,
भग्न मन अरमान की।
मनात्माएँ जीर्ण होते,
व्याधियाँ पुर जोर है,
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।

ख्वाहिशें जनता से पूछो,
वोट देने की जलालत,
चोर सीना जोर होते, 
रोटियाँ ही कयामत।
देशहित जो ये चुने थे,
 भ्रष्ट रिश्वत खोर हैं,
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।

ख्वाहिशें बिटिया से पूछो,
जन्म लगते भार है,
हर कदम बंदिश लगी है, 
खत्म जीवन सार है।
अगले जन्म बेटी न कीजै,
हरजहाँ यह शोर है
ख्वाहिशें हमसे न पूछो,
ख्वाहिशों का जोर है।
.       ------------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

 .        (कलम
.   (१६मात्रिक)
कलम चले यह कालचक्र सी,
लिखती नई  इबारत  सारी।
इतिहासों  को कब  भूलें है,
लिखना देव इबादत  जारी।

घड़ी सुई या चलित लेखनी,
पहिया कालचक्र अविनाशी।
चलते लिखते घूम घूम कर,
वर्तमान- आगे - इतिहासी।

मिटते नहीं  कलम के लेखे,
जैसे  विधना लेख अटल है।
हम तो बस कठपुतली जैसे,
नाचे  नश्वर  जगत पटल है।

शक्ति लेखनी जग पहचाने,
क्रांति  कथानक,सत्ताधारी।
गोली , तोप, तीर , तलवारे,
बारूदी   सत्ता   से  भारी।

कलमकार सिर कलम हुए है,
जब  जब    सत्ताधीशों   से।
नई क्रांति से कलम मिलाती,
कुचली सत्ता नर  शीशो से।

कूँची कलमशक्ति हथिया के,
नई  व्यवस्था  सत्ता  करती।
कलमवीर सिरकलमी न हो,
ऐसी  सोच व्यवस्था करती।

कलम रचाती क्रांति नवेली 
नवाचार हर  क्षेत्र   करेगी।
पौधे कलम  नस्ल बीजों से,
हरित क्रांति कर खेत बरेगी।

सत्य  छाँटती, सतत  लेखनी,
ज्यों दर्पण को कलम काटती।
सामाजिक सद्भाव पिरो कर,
ऊँच  नीच  मतभेद  पाटती।
......
कलम अजर है कलम अमर है
कलम विजय है सर्व समर में।
कलमकार तन  वस्त्र बदलते,
कलम  बचे जग ढहे  सगर में।

वेदों  से  ले  संविधान  तक,
रामायण  ईसा  कुरान तक।
कलम कालगति चलते रहती,
सृष्टिसृजन से प्रलयगान तक।
...   ........

बाबू लाल शर्मा

: ......जिन्दा हूँ
       (१४,१४)
सितारे साथ होते तो,
 बताओ क्या फिजां होती।
  सभी विपरीत ग्रह बैठे,
   मगर मय शान जिन्दा हूँ।

गिराया आसमां से हूँ,
 जमीं ने  बोझ झेला है।
  मिली है जो रियायत भी,
   नहीं,खुद से  सुनिन्दा हूँ।

न भाई बंधु मिलते है,
 सगे सम्बन्ध मेरे तो,
  न पुख्ता नीड़ बन पाया,
   वही बेघर परिन्दा हूँ।

किया जाने कभी कोई,
 सखे सद कर्म मैने भी।
  हवा विपरीत मे भी तो
   मै सरकारी करिंदा हूँ।

न मेरे ठाठ ऊँचे है,
 न मेरी राह टेढी है।
  न धन का दास हूँ यारों,
   गरीबों में  चुनिंदा हूँ।

सभी तो रुष्ट हैं मुझसे,
 भला राजी किसे रखता।
  सभी सज्जन हमारे प्रिय
   असंतो हित दरिंदा हूँ।

न बातों में सियासत है,
 न सीखी ही नफ़ासत है।
  न तन मन में नज़ाकत है,
   असल गाँवइ वशिन्दा हूँ।

नहीं विद्वान भाषा का,
 न परिभाषा कभी जानी।
  बड़े अरमान कब सींचे,
   विकारों का पुलिन्दा हूँ।

सभी कमियाँ बतादी हैं,
 मगर कुछ बात है मुझमें।
  कि जैसा भी जहाँ भी हूँ,
   वतन का ही रहिन्दा हूँ।

 हमारे देश की माटी,
  शहीदी शान परिपाटी।
   सपूतों की विरासत हूँ,
     तभी तो आज जिन्दा हूँ।

मरे ये देश के दुश्मन
हमारे भी पराये भी।
  वतन पर घात जो करते,
   उन्हीं हित लोक निन्दा हूँ।

मुझे क्या जाति से मेरी,
 न मजहब से किनारा है।
  पथी विश्वास से हटकर,
   विरागी मीत बंदा हूँ।

वतन है जान से प्यारा
 हिफ़ाजत की तमन्ना हूँ।
  करे जो देश से धोखा 
   उन्हें,फाँसी व फंदा हूँ।

समझ लेना नहीं कोई 
 वतन को तोड़ देने की।
  वतन मजबूत है मेरा,
    नुमाइंदा व जिन्दा हूँ।
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बाबू लाल शर्मा,बौहरा, विज्ञ

.  समझ ले वर्षारानी
१३ मात्रिक मुक्तक
.   (वर्षा का मानवीकरण)

बरस अब वर्षा रानी,
बुलाऊँ  घन दीवानी।
हृदय की देखो पीड़ा,
मान मन प्रीत रुहानी।

हितैषी विरह निभानी,
स्वप्न निभा  महारानी।
टाल मत प्रेम पत्रिका,
याद कर प्रीत पुरानी।

प्राण  दे  वर्षा रानी।
त्राण दे बिरखारानी।
सूखता हृदय हमारा,
देह से नेह  निभानी।

तुम्ही जानी  पहचानी,
वही तो  बिरखा रानी।
पपीहा   तुम्हे  बुलाता,
बनो मत यूं अनजानी।

हार कान्हा से  मानी,
सुनो हे  मन दीवानी।
स्वर्ग में तुम रहती हाँ,
तो हम भी रेगिस्तानी।

सुनो  हम राजस्थानी,
जानते आन निभानी।
समझते चातक जैसे,
निकालें रज से पानी।

भले करले मनमानी,
खूब करले  नादानी।
हारना हमें  न आता,
हमारी यही निशानी।

मान तो मान सयानी,
यादकर पुरा कहानी।
काल दुकाल सहे पर,
हमें तो प्रीत निभानी।

तुम्हे वे रीत निभानी,
हठी तुम जिद्दी रानी।
रीत  राणा की पलने,
घास की रोटी खानी।

जुबाने हठ मरदानी,
जानते तेग चलानी।
जानते कथा पुरातन,
चाह अब नई रचानी।

यहाँ इतिहास गुमानी।
याद करता रिपु नानी।
हमारी  रीत  शहादत,
लुटाएँ  सदा  जवानी।

सतत  देते  कुर्बानी,
हठी   हे  वर्षा रानी।
श्वेद से नदी बहाकर,
रखें  माँ चूनर धानी,

प्रेम की ऋतु पहचानी,
लगे यह ग्रीष्म सुहानी।
याद बाते सब  करलो,
करो  मत  यूँ  शैतानी।

निभे  कब  बे ईमानी,
चले  ईमान  कहानी।
आन ये शान निभाते,
समझते पीर भुलानी।

बात की  धार बनानी,
रेत इतिहास बखानी।
तुम्ही से  होड़ा- होड़ी,
मेघ प्रिय सदा लगानी।

 व्यर्थ रानी अनहोनी,
खेजड़ी यों भी रहनी।
हठी,जीते कब हमसे,
साँगरी हमको खानी।

हमें, जानी  पहचानी,
तेरी छलछंद कहानी।
तुम्ही यूँ मानो सुधरो,
बचा आँखों में पानी।

जँचे  तो आ मस्तानी,
बरसना चाहत  पानी।
भले भग जा  पुरवैया,
पड़ी सब जगती मानी।

याद कर प्रीत पुरानी,
झुके तो बिरखारानी।
सुनो हम मरुधर वाले,
रहे तो  रह अनजानी।

मान हम रेगिस्तानी,
बरसनी  वर्षा रानी।
मल्हारी मेघ चढ़े हैं।
समझ ले वर्षा रानी।
-----------
बाबूलाल शर्मा,

.        प्रीत पुरानी
       १६ मात्रिक मुक्तक

थके नैन रजनी भर जगते,
रात दिवस तुमको है तकते
चैन बिगाड़ा, विवश शरीरी,
विकल नयन खोजे से भगते।

नेह हमारी जीवन धारा।
तुम्हे मेघ मय नेह निहारा।
वर्षा भू सम प्रीत अनोखी,
मन इन्द्रेशी मोर पुकारा। 

पंथ जोहते बीते हर दिन,
तड़पें तेरी यादें गिन गिन। 
साँझ ढले मैं याद करूँ,तो,
वही पुरानी आदत तुम बिन।

यूँ ही परखे समय काल गति।
रात दिवस नयनों की अवनति।
तुम्ही  हृदय हर श्वाँस हमारी,
आजा वर्षा मत कर भव क्षति।

बैरिन रैन कटे बिन सोये।
जागत सपने देखे खोये।
इन्तजार के इम्तिहान में,
कितने हँसते,कितने रोये।

प्रातः फिर अपने अवलेखूँ।
रात दिवस भव सपने देखूँ।
आजा अब तो निँदिया वर्षा,
तेरी  यादें  निरखूँ  बिलखूँ।

धरा प्राण दे वर्षा रानी।
जीव त्राण दे हे दीवानी।
प्रीत  पुरानी, यादें  वादे,
पूरे करिये मन मस्तानी।

जग जानी पहचानी,धानी।
वही वही भू बिरखा रानी।
तुम मन दीवानी,अलबेली,
तो हम भी जन रेगिस्तानी।
-------------
बाबू लाल शर्मा,बौहरा,'विज्ञ'

: नव उम्मीदें,
      .     नया आसमां
.         ककुभ छंद
.    (१६,१४...... चरणांत.२२)
.            
नव उम्मीदें,नया आसमां,
   यही  विकासी सपना है।
जागृत  हुआ गौर से देखा,
      सारा भारत अपना है।
.          
साहित्यिक सेवा भी करनी ,
.      सत्य  विरासत होती है।
नव उम्मीद..रूपमाला  के,
    .  हम तुम सच्चे मोती हैं।
.             
हर मोती की कीमत होती,
.   सच ही यह सच्चाई  है।
सब मिल जाते माला बनती,
  .  अच्छी यह अच्छाई है।
.            
बनकर  अच्छे  मीत  प्रलेखूँ
    .  सुन्दर माला का मोती।
जन गण मन की पीर लिखूँ जो,
  .    भारत माता को होती।
.           
नव उम्मीदें,नया आसमां,
  .  तब नव आयाम रचेंगे।
काव्य कलम मुखरित हो जाए,
.   फिर नव साहित्य सजेंगे।।
.               
नव उम्मीदें, नया आसमां,
.  सुधिजन रचनाकारों का।  
सबके सब मिलके कर देंगे,
.  युग को नव आकारों का।
.             
चाहे जितनी  बाधा आए,
.  कवि का धर्म निभाना है।
नई  सोच  से  नव उम्मीदें,
.  नव पथ भी दिखलाना है।
.            
मुक्त परिंदे बन के हम तो,
.   नित फिर आसमान नापें।
नव उम्मीद भरेंगें मिलकर,
.    बाधाओं से क्या काँपें।
.             
निज नीड़ों को क्यों भूलें हम,
.  भारत की संस्कृतियों   को।
पश्चिम की  आँधी  को  रोकें
.   मिलकर सब विकृतियों को।
.              
हिन्दी के हित नव उम्मीदें,
.   देश,धरा मानवता की।
नया आसमां हम विचरेंगे,
.  कविता गाने सविता की।।

बाबू लाल शर्मा "बौहरा"  विज्ञ

: खरी...खरी
.      ( १६ मात्रिक )
भगत सिंह तो हों भारत में,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
शेखर,सुभाष ऊधम भी हो
पर मेरा लाल नहीं हो वह।

क्रांति स्वरों से धरा गुँजा दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
सरकारों की नींद उड़ा दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।

संसद पर भी बम फोड़ दे, 
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
फाँसी  के  फंदे  से  झूले,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।

देश धरा पर कुरबानी दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
आतंकी से लड़े मरण तक
पर मेरा लाल नहीं हो वह।

अपराधी का खूँ पी जाए,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
दुष्कर्मी का गला घोंट दें,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।

चोर,डकैतों से भिड़ जाए,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
इंकलाब के नारे गाए,
पर मेरा लाल नही हो वह।

 लाल हमारा मौज करे बस,
नेता, अफसर बन जाए।
लाल शहीद और के होंए
फाँसी,गोली कुछ भी खाएँ।

ऐसी जब सोच हमारी हो,
फिर हाल वतन के क्या कहना।
इंसानी फितरत ऐसी हो,
फिर हाल चमन के क्या कहना।

जब नाक गड़ा कर रहना है,
फिर तौबा तौबा क्या पढ़ना।
जब हृदय नहीं हो पत्धर हो,
मेरा  कविताई  क्या गढ़ना।

बहिन बेटियाँ खतरे में,हों 
तो गीत अहिंसा क्या गाना।
जब रोज अस्मतें लुटती हों,
जीना कैसे धीरज आना।

जब रहना घोर अँधेरों मे,
जलसों को रोशन क्या करना।
जब नेत्र पट्टियाँ बाँध रखी,
तो क्रांति मार्ग पग क्या धरना।

जब लोहू पतला पड़ जाए,
   कवियों को कविता क्या कहना।
जब आँखो का जल मर जाए,
   फिर गंगा  यमुना  क्या बहना।
.       _______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा 'विज्ञ'

 .         दोषी
( १६,१४ ताटंक छंद )

सामाजिक ताने बाने में,
पिसती सदा बेटियाँ क्यों?
हे परमेश्वर कारण क्या है,
लुटती सदा बेटियाँ क्यों?

मात पिता पद पूज्य बने हैं,
सुत को सीख सिखाते क्या?
जिनके सुत मर्यादा भूले,
पथ कर्तव्य बताते क्या?

दोष तनय का, यह तो तय है,
मात - पिता  सच, दोषी है।
बेटों को सिर नाक चढ़ाया,
यही महा  मदहोंशी है।

बेटी को दोयम दर्जा दे,
क्षीण बनाकर खेते हैं।
बेटों के फरमान सींच कर,
शेर बनाकर सेते हैं।

संतति के पालन पोषण में,
भेद भाव ही दोषी है।
जिनके औलाद निकम्मी है,
मात-पिता सच दोषी है।

दुष्कर्मी को दंड मिले पर,
यह तो बस मजबूरी है।
मात-पिता को सजा मिले,
यह अब बहुत जरूरी है।

बिटिया का सम्मान करें हम,
नैतिक, जिम्मेदारी है।
जाति धर्म से परे बेटियाँ,
तनया,नर-महतारी है।
.        ______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा,

: हथियार उठाने बाकी है
.      (१६,१६ )
हे काल चक्र  धीमें  चलना
कुछ फर्ज निभाने बाकी है।
सुता जन्म अभिशाप बना यह
कालिख  धोने बाकी है।

जन को समझाना शेष अभी,
सरकार समझना बाकी है।
हे समय चक्र थम कर चलना
नासूर पिघलना बाकी है।

हर कुल में जन्मी बेटी को,
अधिकार दिलाना बाकी है।
इस जग में कैसे जीना है,
सुत को सिखलाना बाकी है।

नारी का चेतना शेष अभी,
जनमत का चेतन बाकी है।
सरकार रहे हर बार मूक,
जग जाग जगाना बाकी है।

निर्मल तन की हर बेटी हित,
जो बने हुए नापाकी हैं।
पाबन्दी करना शेष अभी,
कुछ सजा दिलाना बाकी हैं।

खुले विचरते हिंसक, मानुष,
इन जरख,सियार,दरिन्दों को।
औकात बताना शेष अभी,
हर काले गोरे द्वंदों को।

इस जग के गोरख धन्धों से,
बिटिया की रक्षा शेष अभी।
कुछ मुझे सीखना शेष रहा ,
औरों के ज्ञान विशेष सभी।

बिटिया के कर मजबूत करे,
फिर निडर बनाना बाकी है,
काली ,दुर्गा, झाँसी.....जैसे,
हथियार उठाना बाकी है।
.हे काल चक्र  .....
.        _________
बाबू लाल शर्मा, बौहरा *विज्ञ*

 .               मन
.           (१६,१६)

मानव तन में मन होता है,
        जागृत मन चेतन होता है,
अर्द्धचेतना मन सपनों मे,
         शेष बचे अवचेतन जाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन के भिन्न भिन्न भागों में,
         इड़, ईगो अरु सुपर इगो में।
मन मस्तिष्क प्रकार्य होता,
         मन ही भटके मन की माने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन करता मन की ही बातें,
        जागत सोवत सपने  रातें।
मनचाहे दुतकार किसी का,
          मन,ही रीत प्रीत सनमाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन चाहे मेले जन मन को,
           मेले में एकाकी पन को।
कभी चाहता सभी कामना,
            पाना चाहे खोना जाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन चाहे मैं गगन उड़ूँगा,
        सब तारो से बात करूँगा।
स्वर्ग नर्क सब देखभाल कर,
            नये नये इतिहास रचाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

सागर में मछली बन तरना,
         मुक्त गगन पंछी सा उड़ना।
पर्वत पर्वत चढ़ता जाऊँ,
          जीना मरना मन अनुमाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन ही सोचे जाति पंथ से,
           देश धरा व धर्म ग्रंथ से।
बैर बाँधकर लड़ना मरना,
         कभी एकता के अफसाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन की भाषा या परिभाषा,
        मन की माने,मन अभिलाषा।
सच्चे मन से जगत कल्पना,
          अपराधी मन क्योंकर माने,
मन की गति मन ही पहचाने।
.          __________
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" *विज्ञ*

 .       बादल
.     (१६,१६)

बादल घन हरजाई पागल,
सुनते होते तन मन घायल।
कहीं मेघ जल गरज बरसते,
कहीं  बजे  वर्षा की पायल।
इस  माया  का  पार न पाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

मैं  मेघों  का  भाट नहीं  जो,
ठकुर सुहाती  बात  सुनाऊँ।
नही अदावत रखता घन से,
बे मतलब  क्यों बुरे  बताऊँ।
खट्टी  मीठी  सब  जतलाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

पर  मन मानी करते बदरा,
सरे आम सच सार कहूँगा।
मैं क्यों मरूँ निवासी मरु का,
सत्य बात मन भाव लिखूँगा।
मेघ छाँव क्यों थकन मिटाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

किस  बादल पे गीत सुनाऊँ,
मेरे   समझ  नहीं  आता है। 
कहीं तरसती धरा मरुस्थल,
कहीं मेघ  ही फट जाता है।
मन  की  मर्जी  तुम्हे  बताऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

उस पर क्यों मैं गीत रचूँ जो,
विरहन  को नित्य रुलाता हो।
कोयल   मोर   पपीहा  दादुर,
चातक   को   कल्पाता   हो।
निर्दोषों  को  क्यों   भरमाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

वह भी बादल ही था जिसने,
नल राजा  बेघर  कर डाला।
सत्  ईमान सभी खतरे कर,
दीन  हीन दर  करने  वाला।
इस  पर  कैसा  नेह निभाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

वह  पागल  बादल ही होगा,
माटी  कर  दी  सिंधू   घाटी।
मोहन जोदड़  और  हड़प्पा,
नहीं  बची   कोई   परिपाटी।
अब   कैसे  विश्वास  जताऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

बादल घन घन श्याम कहें वे,
छलिया कृष्ण याद आ जाते।
माखन  चोरी   गोपिन  जोरी,
मेघ, याद  गिरि धारण आते।
फिर क्यों महासमर रचवाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

मेघनाद की  बात  करे, हम,
तुलसी का मानस  याद करें।
तरघुवर  के   कष्ट  हरे  होते, 
घन राम अनुज से घात करे।
अब  बजरंग  कहाँ  से लाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

आन  मान  राजा  पोरस का,
बादल ने ही ध्वस्त किया था।
यवनो की  सेना  के सम्मुख।
हाथी दल को पस्त किया था।
फिर क्योंकर  मैं तुम्हे सराऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

बिरखा बादल याद  करुँ तो,
भेदभाव ही मुझको दिखता।
कहीं  तबाही   करता बादल, 
मरु में जल घी जैसे मिलता।
लखजन्मों क्या प्रीत निभाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

सम्वत  छप्पन  के बादल को, 
शत शत पीढ़ी  धिक्कार करें।
राज   फिरंगी,  वतन   हमारे,
जो  छप्पनिया का काल़ करे।
भूली बिसरी वे  याद दिलाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

सन सत्तावन  का वह बादल,
इतिहासी     पृष्ठों   में   बैठा।
झाँसी  रानी  का   समर अश्व,
नाले  तट  पहुँच  अड़ा  ऐंठा।
उस गलती पर अब पछताऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

क्योंकर  भूलें  हम    नादानी,  
अब  उस बादल आवारा की।
समय  बदलने  वाली   घटना,
पर   उसने   हार  गवाँरा  की।
इतिहासों  को  क्या दोहराऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

यह भी तय है बिन बादल के,
भू,  कब  चूनर  धानी  होती।
कितने भी  हम  तीर चलालें,
पेट  भराई  भी  कब   होती।
बहुत  जरूरी   मेघ   बताऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

प्यारे  बादल  तुम हठ त्यागो,
समरस होकर बस बरसो तो।
कृषक हँसे, अरु खेती महके,
कृषक संग तुम भी हरषो तो।
मैं  भी  तन  मन से  हरषाऊँ,
क्यों बादल बिरुदावलि गाऊँ।

कृषकों के  हित कारज बरसे,
ताल  तलैया  नद जल भर दे।
मेघा   बदरा   बादल  जलधर,
'विज्ञ' नमन तुमको भी कर दे।
फिर  मै  सादर  तुम्हे  बुलाऊँ।
तब बादल  बिरुदावलि  गाऊँ।
_______________
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" *विज्ञ*

.  मीत देश वंदन की ख्वाहिश
.            (१६,१६)

धरती पर पानी जब बरसे
मनभावों की नदियाँ हरषे।
नमन्  शहीदों को ही करलें,
छोड़ो सुजन पुरानी खारिश।
मीत देश वंदन की ख्वाहिश।

आज नेत्र  आँसू गागर है,
यादें करगिल से सागर है।
वतन हितैषी फौजी टोली, 
कर्गिल घाटी नेहिल बारिश,
मीत देश वंदन की ख्वाहिश।

आतंकी  हमलों को रोकें,
अंदर के घपलों को झोंके।
धर्म-कर्म अनुबंध मिटा कर,
जाति धर्म पंथांत सिफारिश,
मीत देश वंदन की ख्वाहिश।

राष्ट्र सुरक्षा करनी हमको,
भाव शराफ़त भरने सबको।
काय नज़ाकत ढंग भूलकर,
बाहों में भर लें सब साहस,
मीत देश वंदन की ख्वाहिश।
.             _________
बाबू लाल शर्मा "बौहरा *विज्ञ*

 .     वर्षा-विरहातप
(१६ मात्रिक मुक्तक )

कहाँ छिपी तुम,वर्षा जाकर।
चली कहाँ हो दर्श दिखाकर।
तन तपता है  सतत वियोगी,
देखें क्रोधित हुआ दिवाकर।

मेह विरह में सब दुखियारे,
पपिहा चातक मोर पियारे।
श्वेद अश्रु  झरते नर तन से,
भीषण  विरहातप के मारे।

दादुर कोकिल निरे हुए हैं,
कागों से  मन  डरे हुए हैं।
तन मन मेरे दोनो व्याकुल,
आशंकी  घन  भरे हुए है।

बालक सारे हुए विकल हैं।
वृक्ष लगाते, भाव प्रबल हैं।
दिनभर  कैसे  पंखा  फेरूँ।
विरहातप के भाव सबल हैं।

धरती तपती  गैया भूखी।
खेती-बाड़ी बगिया सूखी।
श्वेद- अश्रु  दो  साथी मेरे,
रीत-प्रीत की झाड़ी रूखी। 

सर्व सजीव चाह काया को,
जीवन हित वर्षा-माया को।
मैं हर तन मन  ठंडक चाहूँ,
याद करे सब ही छाँया को।
.        ____________
बाबू लाल शर्मा, 'बौहरा' *विज्ञ*

 हित टकराए खामोशी
( १६,१४ ताटंक छंद २२२)

भगत सिंह तो हों घर घर में,
निज सुत हो तो खामोशी।
शेखर,सुभाष ऊधम भी हो,
अपने  हो तो  खामोशी।

क्रांति स्वरों से धरा गुँजा दे,
 नाम सुने निज खामोशी।
सरकारों  की नींद उड़ा दे,
हित टकराए खामोशी।

संसद पर भी बम्म फोड़ दे, 
नाम लिए सुत, खामोशी।
चाहे फाँसी  फंदे  झूले,
नाम लिए निज खामोशी।

देश धरा पर कुरबानी दे,
परिवारी हो, खामोशी।
आतंकी से लड़़ शहीद हो,
भ्रात हुए तो खामोशी।

अपराधी का खूं पी जाए,
जाति बंधु हो , खामोशी।
दुष्कर्मी का गला घोंट दें,
धर्म पंथ के , खामोशी।

चोर,डकैतों से भिड़ जाए,
बगले झाँके , खामोशी।
इन शीशपटल,कवि धंधों से,
  घर घर  छाई खामोशी।

संचालक के दौरे हो तब।
काव्य पटल पर खामोशी।
गलती पर छोटे भय भुगते,
 बड़े करे फिर,खामोशी।

बहु की गलती , झगड़े भुगते,
बिटिया की हो , खामोशी।
सास बींनणी,  घर के झगड़े,
  बेटे के मन  खामोशी।

भ्रष्टाचारी बात चले तो,
खुद के हित मे, खामोशी।
आरक्षण की चर्चा करते,
खुद के हित फिर खामोशी।

जाति धर्म के झगड़े होते,
 सरकारो की, खामोशी।
खामोशी तो अवसरवादी,
अवसर आए खामोशी।
.         ________
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, *विज्ञ*

 .        सच्चे मीत
.       (१६,१६)
आओ सच्चेे मीत बनाएँ,
एक एक हम वृक्ष लगाएँ।
बचपन में ये सुन्दर होते ,
नेह स्नेह के भाव सँजोते।

पालो पोषो गौरव होता।
मधुर भाव हरियाली बोता।
आज एक पौधा ले आएँ,
आओ सच्चे मीत बनाएँ।

यौवन मे छाँया दातारी,
मीठे खट्टे फल खग यारी।
चिड़िया,मैना पिक शुक आए,
मधुर सरस संगीत सुनाए।

सुन्दर नीड़,बसेरे सजते।
पावन पंछी कलरव बजते।
प्राण वायु हमको मिल जाए,
आओ सच्चे मीत बनाएँ।

वृद्ध अवस्था कठिन दौर है।
सोचो फिर तुम कहाँ ठौर है।
मीत बिना फिर कहाँ रहोगे?
किससे मन की बात करोगे?

किससे मन के भाव सुनोगे?
दुख सुख पीड़ा किसे कहोगे?
किसकी बाहों में मरना है?
किसके संग तुम्हे जलना है?

सोच,एक पौधा ले आएँ।
आओ सच्चे मीत बनाएँ।
.          
बाबू लाल शर्मा, बौहरा *विज्ञ*

: नन्हा मुन्ना करे सिफारिश
.       ( १६ मात्रिक )

मैं इधर खड़ा,तुम उधर खड़े।
सब अपने स्वारथ किधर अड़े।
भावि सुरक्षक बनूँ वतन का,
नन्हा मुन्ना करे सिफारिश,
आज नमन की है ख्वाहिश।

वतन आपका मेरा भी है,
निज हित चाहे,उनका भी है।
नही करे जो बात वतन की,
उनमे कब है सच यह साहस,
आज नमन की है ख्वाहिश।

चाहूँ मिलके नमन करें हम,
करलें याद शहीदों के गम।
रक्षक अरु पहरेदारों की।
मिले दूर कर दें हर खारिश,
आज नमन की है ख्वाहिश।

सब भूले अपने मतलब में,
धन वैभव में या मजहब में।
हम दो दो मिल गाएँ साथी,
कर दें मनभावों की बारिश,
आज नमन की है ख्वाहिश।
.             ____
बाबू लाल शर्मा बौहरा

: ....           गीत
.           (१६,१६)

अब के सब कर्जे भर दूँगा,
बिटिया की शादी कर दूँगा।।

खेत बीज कर करी जुताई,
अब तो होगी बहुत कमाई।
शहर भेजना, सुत को पढ़ने।
भावि जीवनी उसकी गढ़ने।
गिरवी घर भी छुड़वा लूँगा,
बिटिया की शादी कर दूँगा।।

फसल बिकेगी,चारा होगा,
दुख हमने तो सारा भोगा।
अब वे संकट नहीं रहेंगे,
सहा खूब,अब नहीं सहेंगे।
दो  भैंस दुधारू ला दूँगा,
बिटिया की शादी कर दूँगा।।

पका, बाजरा खूब बिकेगा,
छाछ मिलेगी, दूध बिकेगा।
घर खर्चो में रख तंगाई ।
घर वर देखूँ, करूँ सगाई।
फिर कमरा भी बनवा लूँगा,
बिटिया की शादी कर दूँगा।।

आस दिवाली मौज मनाऊँ,
सबको ही कपड़े दिलवाऊँ।
फसल पकेगी खूब निरोगी।
मौसम आए नहीं कुयोगी।
गृहिणी को झुमके ला दूँगा,
बिटिया की शादी कर दूँगा।।
.           _________
बाबू लाल शर्मा "बौहरा",  विज्ञ

: .......क्या क्या जतन करें
(विष्णुपद छंद १६,१० 
चरणांत गुरु,आधारित गीत)
.              °°°°
तुम्ही बताओ राधा रानी,
 क्या क्या जतन करें।
मन मोहन गिरधारी  छलिया, 
काहे नृतन करे।

गोवर्धन को उठा कन्हाई, 
गिरधर नाम किये।
उस पर्वत से  भारी जग में,
 बेटी  जन्म लिये।
बेटी के  यौतक  पर्वत सम, 
कैसे  पिता  भरे।
आज बता  हे  नंद  दुलारे, 
चिंता  चिता जरे।
तुम्ही...........

लाक्षागृह से बचवाकर तू, 
जग को भ्रमित कहे।
घर घर में लाक्षा गृह सुलगे, 
क्या वे विवश दहे।
महा समर लड़वाय कन्हाई, 
रण  मे नृतन  करे।
घर-घर में कुरु क्षेत्र बने अब, 
रण के सत्य भरे।
तुम्ही..................
 
इक शकुनी की चाल टली कब?
नटवर स्वयं बने।
अगनित नटवरलाल बने अब,
 शकुनी स्वाँग तने।
मित  अर्जुन  का  मोह  मिटाने,
 गीता कहन करे।
जन-मन मोहित माया भ्रम में,
 समझे मथन करे।
तुम्ही बताओ.........

नाग फनों पर नाच  कन्हाई, 
हर  फन कुचल दिए।
नागनाथ कब साँपनाथ फन,
छल बल उछल जिए।
अब धृतराष्ट्र,सुयोधन घर पथ,
 सच का  दमन करे।
भीष्म,विदुर,सब मौन हुए अब,
 शकुनी  करन सरें।
तुम्ही बताओ.........

एक कंस हो  तो हम मारे,
 इत उत कंस यथा।
नहीं पूतनाओं की गिनती,
तम पथ दंश कथा।
मानव  बम्म  बने  आतंकी,
 सीमा  सदन भरे।
अन्दर बाहर  वतन शत्रु अब,
 कैसे  पतन करें।
तुम्ही बताओ..........

इक मीरा को बचा लिए थे, 
जिस से गरब थके।
घर घर मीरा घुटती मरती, 
कब तक रोक  सके।
शिशू पाल  मदमाते  हर  पथ,
 कैसे  शयन करे।
कुन्ती  गांधारी   सी   दुविधा, 
 पट्टी  नयन  धरे।
तुम्ही............

विप्र सुदामा मित्र बना कर,
 तुम उपकार कहे।
बहुत सुदामा, विदुर घनेरे, 
लाखों  निबल रहे।
जरासंध  से  बचते  कान्हा,
 शासन सिंधु करे।
गली गली में  जरासंध है, 
हम कित  कूप परे।
तुम्ही बताओ.........
मन मोहन गिरधारी छलिया,
 काहे नृतन करे।
.                    _______
बाबू लाल शर्मा

 .     समय
.          गीत(१६,१६)

कठिन काल करनी कविताई!
कविता संगत प्रीत मिताई!!

समय सतत चलता है साथी,
समय कहे मन त्याग ढ़िठाई।
वक्त सगा नहीं रहा किसी का,
वन वन भटके थे रघुराई।
फुरसत के क्षण ढूँढ करें हम
कविता संगत प्रीत मिताई।

समय चक्र है ईष्ट सत्यता,
वक्त सिकंदर,वक्त कल्पना।
वक्त धार संग बहना साथी,
मत देखे मन झूठा सपना।
कठिन कर्म,पर्वत कर राई।
कविता संगत प्रीत मिताई।

समय देश सुविकास करेगा,
मातृभाष सम्मान करें जब।
हिन्द हितैषी सृजन साधना,
मन में मीत हमारे हो तब।
समय मिले मान तरुणाई,
कविता संगत प्रीत मिताई।

वक्त मिले तो सीख व्याकरण,
भाषा सुन्दर हो जाएगी।
छंद मुक्त अरु छंदबद्ध सब
कविता प्यारी बन गाएगी।
समय मिले तब बैण सगाई।
कविता संगत प्रीत मिताई।

समय नाव ही डुबा तराए,
वक्त नदी है समय समंदर।
वक्त बने तो क्या से क्या हो,
मानव बना, क्रमिक था बंदर।
समय संग तो सोचो भाई,
कविता संगत प्रीत मिताई।

वक्त क्षमा कब करे किसी को,
कृष्ण,पाण्डवों से बलशाली।
वक्त मार से हुए सुदामा,
हमने जानी सब बदहाली।
फुरसत मरे मिलेगी भाई,
कविता संगत प्रीत मिताई।
.              ______
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

: .     बाल भिक्षु
( विधाता छंद मुक्तक)

झुकी पलके निहारें ये,
रुपैये को प्रदाता को।
जुबानें बन्द दोनो की,
करें यों याद माता को।
अनाथों ने,भिखारी नें,
तुम्हारा क्या बिगाड़ा है,
दया आती नहीं देखो,
निठुर देवों विधाता को।

बना लाचार जीवन को,
अकेला छोड़ कर इनको।
गये माँ बाप जाने क्यों,
गरीबी खा गई जिनको।
सुने अब कौन जो सोचे,
पढाई या ठिकाने की,
मिला खैरात ही जीवन,
गुजर खैरात से तन को। 

गरीबी मार ऐसी है,
कि जो मरने नहीं देती।
बिचारा मान देती है,
परीक्षा सख्त है लेती।
निवाले कीमती लगते,
रुपैया चाक के जैसा,
विधाता के बने लेखे,
करें ये भीख की खेती।

अनाथों को अभावों का,
सही यों साथ मिल जाता।
विधाता से गरीबी का,
महा वरदान जो पाता।
निगाहें ढूँढ़ती रहती,
कहीं दातार मिल जाए,
व्यथा को आज मैं उनकी,
सरे बाजार में गाता।

किये क्या कर्म हैं ऐसे,
सहे फल ये बिना बातें।
न दिन को ठौर मिलती है,
नही बीतें सुखी रातें।
धरा ही मात है इनकी,
पिता आकाश वासी है,
समाजों की उदासीनी,
कहाँ मनुजात जज्बातें।
.          _______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा

 विश्व बाल दिवस पर विचार करें...

दोहा:-
बाल दिवस पर विश्व में,
.        हों जलसे भरपूर!
बच्चों  का  अधिकार है,
.    बचपन  क्यों हो दूर!!१
कवि , ऐसा साहित्य रच,
.       बचपन  हो साकार!
हर बालक को मिल सके,
.        मूलभूत अधिकार!!२
बाल श्रमिक,भिक्षुक बने,
.       बँधुआ सम मजदूर!
उनके  हक  की  बात  हो,
.      जो बालक  मजबूर!! ३

दर्द न जाने कोय.....   बाल भिक्षु
.           (विधाता छंद मुक्तक)
झुकी पलकें  निहारें ये,
रुपैये  को  प्रदाता को।
जुबानें  बन्द दोनो  की,
करें यों याद  माता को।
अनाथों ने, भिखारी  नें,
तुम्हारा क्या बिगाड़ा है,
दया  आती  नहीं  देखो,
निठुर देवों विधाता को।

बना  लाचार  जीवन को,
अकेला छोड़ कर इनको।
गये  माँ  बाप  जाने क्यों,
गरीबी  खा  गई जिनको।
सुने अब  कौन  जो सोचें,
पढाई   या   ठिकाने  की,
मिला  खैरात  ही  जीवन,
गुजर  खैरात  से तन को। 

गरीबी   मार   ऐसी   है,
कि जो  मरने नहीं देती।
बिचारा  मान   देती  है,
परीक्षा  सख्त  है  लेती।
निवाले   कीमती  लगते,
रुपैया  चाक   के  जैसा,
विधाता  के   बने   लेखे,
करें  ये  भीख  की खेती।

अनाथों  को  अभावों  का,
सही यों साथ मिल जाता।
विधाता   से   गरीबी   का,
महा  वरदान   जो   पाता।
निगाहें      ढूँढ़ती     रहती,
कहीं  दातार   मिल   जाए,
व्यथा को  आज मैं उनकी,
सरे ... बाजार    हूँ   गाता।

किये  क्या   कर्म  हैं  ऐसे,
सहे  फल  ये  बिना  बातें।
न दिन को ठौर मिलती है,
नही   बीतें    सुखी   रातें।
धरा  ही  मात  है   इनकी,
पिता  आकाश   वासी  है,
समाजों    की   उदासीनी,
कहाँ  मनुजात   जज्बातें।
.     
पिंजरे के पंछी से..... बाल मजदूर
.          (लावणी छंद मुक्तक)
राज, समाज, परायों अपनों, के कर्मो के मारे हैं!
घर परिवार  से  हुये किनारे, फिरते मारे  मारे हैं!
पेट की आग बुझाने निकले, देखो तो ये दीवाने!
बाल भ्रमित मजदूर बेचारे,हार हारकर नित हारे!
__
यह भाग्य दोष या कर्म लिखे,
.                     ऐसी  कोई  बात   नहीं!
यह विधना की दी गई हमको,
                      कोई  नव  सौगात नहीं!
मानव के गत कृतकर्मो का, 
                    फल बच्चे ये क्यों भुगते!
इससे ज्यादा और शर्म... की,
                        यारों  कोई  बात नही!

यायावर  से  कैदी  से  ये ,दीन हीन  से  पागल से!
बालश्रमिक मेहनत करते ये, होते मानो घायल से!
पेट भरे न  तन ढकता  सच ,ऐसी क्यों लाचारी है!
खून चूसने वाले इनके, मालिक होते  *तायल  से!

ये बेगाने से  बेगारी से, ये दास  प्रथा  अवशेषी है!
इनको आवारा न बोलो, ये जनगणमन संपोषी हैं!
सत्सोचें सच मे ही क्या ये, सच में ही सचदोषी है!
या मानव की सोचों की ये, सरे आम  मदहोंशी है!
__
जीने का  हक तो  दें देवें ,रोटी कपड़े  संग मुकाम!
शिक्षासंग प्रशिक्षण देवें,जो दिलवादें अच्छा काम!
आतंकी   गुंडे   जेलों  मे,  खाते  मौज   मनाते  हैं!
कैदी-खातिर बंद करें ये, धन आजाए इनके काम!
           .                           (तायल=गुस्सैल) 
                .                             
कोई लौटा दे खोया बचपन..... बाल श्रमिक
.            (लावणी छंद)
अर्थ
जो दाता के घर से मानो, भाग्य हीन आ जाते है!
ऐसे बचपन  भूख के मारे, भूख कमाने  जातेें  है!
जिसने बचपन देखा कब  है, नही हाथ वे रेखा हैं!
चंद्रोदय भी जिसने मानें, जीवन  में नहीं देखा है!
जो अपने   गैरों के गत कृत, कर्मो से मजबूर हैं!
जो  बच्चे  मजबूर  हुए है , वही  बाल मजदूर है!
कारण--
परिवार टूट,लेते तलाक,ये लिविनशिपका जोर है!
कुछ कारण घोर गरीबी के,व महँगाई का शोर है!
मजबूरी  माता.. बापों  की, धंधा  इन्हें  कराती है!
सोचें हम सारे दोषी हैं,  राज नीति भरमाती है!
दशा--
बने ईंट  के  भट्टे  चेजे  , होटल - ढाबे  बात  सुनें!
धनवानों के महल सँजोते ,वे ही  तो  कालीन बुनें!
कचरे के  ढेरों मे  देखो, जाने  क्या क्या  चुनते हैं!
उदर भार के बदले देखो, बच्चे  क्या क्या सुनते हैं!
धन पद बल की करे चाकरी,भिखमंगे से लगते हैं!
रोटी -  कपड़ों  की  चिंता  में , भूखे  नंगे  रहते हैं!
निवारण--
बालश्रमिक के खर्चे शिक्षा,संगी सभी प्रशिक्षण दो,
धर्म, दलों के  चंदे  रोको, इन बच्चों को  रक्षण दो!
इनकी खुशियां लौटाने को, दत्तक कर संरक्षण हो!
जाति भेद को भूलो इनको, जीने को आरक्षण दो!

दोहा:-
बाल दिवस पर सब करें,
.        ऐसा सत संकल्प!
बच्चों  को  बचपन मिले,
.     सोचें  सत्य विकल्प!!१
विकसित मानव सभ्यता,
.       लगे सहज साकार!
सब  देशों  में  मिल  सकें,
.    बच्चों  को अधिकार!! २
.               ----------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

उड़ जाए यह मन
(१६ मात्रिक)

यह,मन पागल, पंछी जैसे,
मुक्त गगन में  उड़ता  ऐसे।
पल मे देश विदेशों विचरण,
कभी रुष्ट,पल मे अभिनंदन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल में अवध,परिक्रम करता,
सरयू जल  मन गागर भरता।
पल  में  चित्र कूट  जा  पहुँचे,
अनुसुइया  के  आश्रम पावन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल  शबरी के  आश्रम जाए,
बेर, गुठलियाँ मिलकर खाए।
किष्किन्धा हनुमत से मिलता,
कपिदल,संगत यह करे जतन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल में सागर तट पर जाकर,
रामेश्वर  के  दर्शन   पा  कर।
पल मे लंक,अशोक वाटिका,
मिलन विभीषण,पहुँच सदन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल में  रावण दल से लड़ता, 
राक्षसवृत्ति शमन मन करता।
अगले  पल  में रघुवर  माया,
सियाराम  के भजन समर्पण,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल मे हनुमत संगत जाता,
संजीवन   बूटी  ले  आता।
मन यह पल मे रक्ष  संहारे,
पुष्पक बैठे अवध आगमन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

राजतिलक से राम राज्य के,
सपने देखे कभी सुराज्य के।
मन पागल या  निशा बावरी,
भटके मन घर सोया रह तन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

मै  सोचूँ  सपनों  की  बातें,
मन की सुन्दर, काली रातें।
सपने में तन सोया लेकिन,
रामायण  पढ़  करे   मनन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

मेरा मन इस तन से अच्छा,
प्रेम - प्रतीत रीत में सच्चा। 
प्रेमी,बैरी, कुटिल,पूज्यजन,
मानव आनव को करे नमन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।
,            ___________
बाबू लाल शर्मा, बौहरा , विज्ञ

.         सुख-दुख
     .  ( १६ मात्रिक )
      
मैने तो हर पीड़ा झेली,
   सुख-दुख की बाते बेमानी।

दुख ही मेरा सच्चा साथी, 
       श्वाँस श्वाँस मे रहे संगाती।
मै तो केवल दुख ही जानूं,
      प्रीत रीत मैने कब जानी,
सुख-दुख की बाते बेमानी।

साथी सुख केवल छलना है,
      मुझे निरंतर पथ चलना है।
बाधाओं से कब रुक पाया,
      जब जब मैने मन में ठानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।

अवरोधक है सखा हमारे,
      संकट बंधु पड़ोसी सारे।
इनकी आवभगत कर देखे,
      कृत्य सुकृत्य हितैषी मानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।

विपदाएँ ही अच्छी लगती,
      मेरा एकाकी पन हरती।
स्वाँस रक्त दोनों ही मैने,
      देशधरा की सम्पद जानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।
  
मन में सुख-दुख का जोड़ा है,
      दुख ज्यादा है सुख थोड़ा है।
दुख में नई प्रेरणा मिलती,
     सुख की सोच मान नादानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।
__________
बाबू लाल शर्मा,बौहरा

बरस मेघ,
.       खुशहाली आए
.          (१६ मात्रिक )

बरसे जब बरसात रुहानी,
धरा बने यह सरस सुहानी।
दादुर, चातक, मोर, पपीहे,
फसल खेत हरियाली गाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।

धरती तपती नदियाँ सूखी,
सरवर,ताल पोखरी रूखी।
वन्य जीव,पंछी हैं व्याकुल,
तुम बिन कैसे थाल सजाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।

कृषक ताकता पशु धन हारे,
भूख तुम्हे अब भूख  पुकारे,
घर भी गिरवी, कर्जा  बाकी,
अब ये खेत नहीं बिक जाए,
बरस  मेघ, खुशहाली आए।।

बिटिया की करनी है शादी,
मृत्यु भोज हित बैठी दादी।
घर के खर्च  खेत  के  हर्जे,
भूखा भू सुत ,फाँसी  खाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।

कुएँ बीत कर बोर रीत अब,
भूल पर्व  पर रीत गीत सब।
सुत के ब्याह बात कब कोई,
गुरबत घर लक्ष्मी कब आए,
बरस  मेघ, खुशहाली आए।।

राज  रूठता, और  राम  भी,
जल,वर्षा बिन रुके काम भी।
गौ,किसान,दुर्दिन वश जीवन,
बरसे  तो भाग्य  बदल  जाए,
बरस  मेघ, खुशहाली  आए।।

सागर में जल नित बढ़ता है,
भूमि नीर प्रतिदिन घटता है।
सम  वर्षा  का  सूत्र  बनाले ,
सब की मिट बदहाली जाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।

कहीं बाढ़ से नदी उफनती,
कहीं धरा बिन पानी तपती।
कहीं डूबते जल मे धन जन,
बूंद- बूंद  जग  को  भरमाए,
बरस  मेघ ,खुशहाली आए।।

हम भी निज कर्तव्य निभाएं,
तुम भी आओ, हम भी आएं,
मिलजुल कर हम पेड़़ लगाएं,
नीर  संतुलन  तब  हो  जाए,
बरस मेघ , खुशहाली आए।।

पानी सद उपयोग करे हम,
जलस्रोतो का मान करे  तो।
धरा,प्रकृति,जल,तरु संरक्षण,  
सारे साज-- सँवर तब जाए,
बरस, मेघ खुशहाली आए।।
______________
बाबू लाल शर्मा,विज्ञ

: .       मेरे गांव में.......
.         ( १६,१३ )
अमन चैन खुशहाली बढ़ती ,
           अब तो मेरे गाँव में,
हाय हलो गुडनाइट बोले,
          मोबाइल अब गाँव में।

टेढ़ी ,बाँकी टूटी सड़कें
        धचके खाती कार  में,
नेता अफसर डाँक्टर आते,
           अब तो कभी कभार में।

पण्चू दादा हुक्का खैंचे,
          चिलम चले चौपाल मे,
गप्पेमारी ताश चौकड़ी,
          खाँप चले हर हाल में।

रम्बू बकरी भेड़ चराता,
          घटते लुटते खेत में,
मल्ला काका दांव लगाता
          कुश्ती दंगल रेत में।

पनघट एकल पाइंट, बने
          नीर गया ...पाताल़ मे,
भाभी काकी पानी भरती,
         बहुएँ रहे मलाल... में।

भोले भाले खेती करते
      रात ठिठुरे पाणत रात में।
मजदूरों के टोल़े मे भी 
         बात चले  हर बात में।

चोट वोट मे दारु पीते,
          लड़ते मनते गाँव में,
 दुख, सुख में सब साझी रहते,
         अब ...भी मेरे गाँव में।

नेताओं के बँगले कोठे
             अब तो मेरे गाँव में,
रामसुखा की वही झोंपड़ी
         कुछ शीशम की छाँव में।

कुछ पढ़कर नौकर बन जाते,
             अब तो मेरे गाँव मे,
शहर में जाकर रचते बसते,
         मोह नही फिर गाँव में।

अमरी दादी मंदिर जाती,
           नित तारो की छाँव में,
भोपा बाबा झाड़ा देता ,
           हर बीमारी भाव मे।

नित विकास का नारा सुनते 
         टीवी या अखबार से,
चमत्कार की आशा रखते,
        थकते कब सरकार से।

फटे चीथड़े गुदड़ी ओढ़े, 
         अब भी नौरँग लाल है,
स्वाँस दमा से पीड़ित वे तो,
           असली धरती पाल है।

धनिया अब भी गोबर पाथे,
          झुनिया रहती छान मे,
होरी अब भी अगन मांगता,
          दें  कैसे ...गोदान में।

बीमारी की दवा न होती,
         दारू मिलती गाँव में,
फटी जूतियाँ चप्पल लटके,
        शीत घाम निज पाँव में।

गाय बिचारी दोयम हो गई,
        .     चली डेयरी चाव में,
माँगे ढूँढे छाछ न मिलती ,
,       मिले न घी अब गाँव में।

अमन चैन खुशहाली बढ़ती ,
       अब तो मेरे गाँव में,
हाय हलो गुडनाइट बोले
       मोबाइल अब गाँव में।
            ------------
बाबू लाल शर्मा,बौहरा

आइए आपको 
हमारे यहाँ दौसा की सैर 
करवादें 
मेरा जिला,मेरी बोली,
मेरा गाँव ,संस्कृति,रीति,
पर्यटन,इतिहास,फसल
सब से रुबरू.....
 ..तो आइए

दौसा दर्शन
( १६  मात्रिक  छंद मय )
.           °°°°°°
आओ सैर कराँ दौसा की,
नामी बड़गूजर धौंसा की।
सूप सो किलो  दौसा माँई।
शिवजी नीलकंठ प्रभुताई।
गाँवा  कस्बावाँ  शहराँ की,
आओ सैर कराँ दौसा की।

यातो जिलो बड़ो ही  नामी,
ईंका माणस  भी सर नामी।
पचपन याद करै बचपन नै,
भूलै  सहज नही  छप्पन नै।
मनसां पढ़ बा लिख बा की।
आओ सैर................

देखो  लालसोट  अल बेलो,
छतरी ख्यालन् को छै हेलो।
मंडावरी  गजब  की, नगरी।
पपलज माता परबत पधरी।
डूँगर    रेल  सुरंग  हवा की,
आओ सैर ...............

बसवा  रही   पुरानी पूँजी,
डाइट,भांडा,दरगाह गूँजी।
राणा सांगा  प्रण  संरक्षण।
बाबर संग  लड़ाई तत्क्षण।
रेलाँ   बाँदीकुई  सब  देखी,
गजबण आभानेरी  चोखी।
टोळी देश विदेश जणा की,
आओ सैर...............

या सिकराय भाग्य सूँ नामी,
हिँगलज माताजी जनजामी।
घाटा   मेंहदी पुर     दरबार,
लागै  भगताँ  भीड़  अम्बार।
सिकंदरो   अरमान   समूचो,
पत्थर नक्काशी  दर  ऊँचो।
लकड़ी  सौड़  रजाई  बाँकी,
आओ सैर..... ......... 

महुवा पाटोली को लेखो।
होळी  मनै पावटा  देखो।
महुवा गढ़ री  देवी माता।
पाछै मण्डावर जुग बातां।
बाला हेड़ी  बरतन नगरी।
मंडी  लोहा  मींडा बकरी।
गाढ़ी भू खेती  करषाँ की,
आओ सैर.............  

तहसिल नई लवाण नवेली,
खादी  दरियाँ  याँ गो भेळी।
नाहन   पाटन   नीचै  दाबी,
अब तो  नई नाथ पै  चाबी।
दरशन  नाचै  भाभी काकी,
आओ सैर.......... .... 

दौसा तहसिल  देवगिरी मैं,
शिवजी पाँच पंच सा जीमैं।
होटल भाँडरेज गढ  वाळी,
बजै गिर्राजधरण कै ताळी।
सड़काँ ,रेलाँ  घणी सवारी,
बसन्ती पवन चलै मेळा री।
कामना डोवठा  खाबा की,
आओ सैर कराँ..........

मोदक गीजगढ़ का खाओ,
डूँगर  किलो घूम नै आओ।
झाझी राम पुरा मैं    न्हावो,
भोजन साँवलिये दर पावो।
दाळ  पचवारा  री  ढब की,
मारो  आलूदा  मै   डबकी।
खीर बिनौरी  रा बाला  की,
आओ सैर.......  .......

आभानेरी    घणी  पुराणी,
भंडा भद्रा  किणरै  जाणी।
चालो  चाँद  बावड़ी  देखो,
हर्षद माता शुभ अमळेखो।
सल्ला बाबू लाल शर्मा की,
आओ सैर ..............

रेतली  बाण गंगा     यामै,
मौरल सावाँ   सूरी   जामै।
बन्दो   काळा खो  हरषावै,
माधो सागर  सुर  भरजावै।
महिमा  ढूँढाड़ी, भासा की,
आओ सैर ...............

हींगवा  नाथ समाजी कंथी।
राम,  कबीरा,   दादू   पंथी।
देव मीन  मय सर्व  इबादत।
दरगा हजरत करें जियारत।
कविता  काव्य पिपासा की,
आओ सैर........ .....  

सुन्दर दास   संत की नगरी,
देखो    दादू धाम   टहलड़ी।
गेटोलाव  सन्त  सर , पावन,
पंछी मैना  पिक  मनभावन।
भरोसा  और  जिज्ञासा  की,
आओ सैर.............. .
 
नींबू   कैरी  आम  करूंजा,
ककड़ी  कद्दू अरु खरबूजा।
चोखा निपजै फळ तरकारी।
गायाँ  भैंस कृषक उपकारी।
डेयरी सरस भली आसा की,
आओ सैर.......  ...... 

फैंटा    चूनड़ली  फहराबो,
सादा जीवन   सादा खाबो।
सुड्डा  दंगल  साहित  हेला।
गाँव  गाँव  में  भरताँ मेळा।
रीत प्रभू  भोग  पतासा की,
आओ सैर कराँ .........
.              °°°°°°°
रचनाकार ©ढूँढाड़ी
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, *विज्ञ*

 .         (१६ मात्रिक)
माँ  के आँचल मे सो जाऊँ
.      

आज नहीं है, मन पढ़ने का,
मानस नहीं गीत,लिखने का।
मन विद्रोही, निर्मम  दुनिया,
मन की पीड़ा, किसे बताऊँ, 
माँ के आँचल में, सो जाऊँ।

मन में यूँ  तूफान  मचलते,
घट मे सागर भरे छलकते।
मन के छाले घाव बने अब,
उन घावों को ही सहलाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

तन छीजे,मन उकता आता,
याद करें,  मंगल खो जाता।
तनकी मनसे,तान मिले बिन
कैसे  स्वर, संगीत  सजाऊँ,
माँ के आँचल में, सो जाऊँ।

जय जवान के नारे बुनता,
सेना के पग बंधन सुनता।
शासन लचर  बढ़े आतंकी,
कैसे  अब नव गीत बनाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

जयकिसान भोजनदाता है,
धान कमाए, गम खाता है।
आजीवन जो कर्ज चुकाये,
उनके कैसे  फर्ज  निभाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

गंगा, गैया,  धरा  व   नारी,
जननी के प्रति रुप हमारी।
रोज विचित्र कहानी सुनता,
कैसे अब  सम्मान  बचाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

जाति धर्म में बँटता मानव,
मत के खातिर नेता दानव।
दीन  गरीबी  बढ़ती  जाती,
कैसे  किसको धीर बँधाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

रिश्तों के अनुबंध उलझते,
मन के सब पैबन्द उघड़ते।
नेह स्नेह की रीत नहीं अब,
प्रीत लिखूँ तो किसे सुनाऊँ,
माँ  के आँचल में सो जाऊँ।

 संसकार  मरयादा  वाली,
नेह स्नेह की झोली खाली।
मातृशक्ति अपमान सहे तो,
माँ का प्यार कहाँ से लाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।
.       _____
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" *विज्ञ*

 .           धर्मपत्नी
( विधाता छंद, २८ मात्रिक )  

हमारे  देश  में साथी,
 सदा  रिश्ते  मचलते है।
सहे रिश्ते कभी जाते, 
कभी रिश्ते छलकते हैं।

बहुत मजबूत ये रिश्ते, 
मगर मजबूर भी देखे।
कभी मिल जान देते थे, 
गमों से चूर भी देखे।

करें सम्मान नारी का, 
करो लोगों न अय्यारी।
ठगी  जाती हमेशा से, 
वहीं संसार भर नारी।

हमारी धर्म पत्नी को,
 कहीं गृहिणी जताते हैं। 
ठगी नारी से करने को,
 बराबर हक बताते हैं।

यहाँ तल्लाक होते है, 
विवाहित भिन्न  हो जाते।
नहीं हो हक,नारी का, 
अदालत फिर चले जाते।

हकों की बात ये छोड़ो,
निरे अपमान सहती है।
हमेशा  धर्म पत्नी  ही, 
हवा  के साथ बहती है।

ठगाई को,मधुर तम यह, 
यहाँ पर नाम है पाला।
जुबां मीठी जता पत्नी, 
बड़ा शुभ नाम दे डाला।

नहीं  हो धर्म  से  नाता, 
वही  धर्मी यहाँ होते।
गमों के बीज की खेती, 
दिलों के बीच हैें बोते।

नहीं मानू  कभी मैं  यों, 
पुरानी बात उपमा को।
हमारे मन पुजारिन है, 
सँभालूँ शान सुषमा को।

सभी चाहे यही हम तो, 
हमारी शान नारी हो।
तुम्हारी धर्मपत्नी के, 
तुम्ही मन के पुजारी हो।
,              ______
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

.           विश्वास
.          गीत (१६,१५)
सत्ताधीशों की आतिश से,
जलता निर्धन का आवास।
राज महल के षडयंत्रों ने,
सदा छला जन का विश्वास।

युग बीते बहु सदियाँ बीती,
चलता रहा समय का चक्र।
तहखानों में धन भर जाता,
ग्रह होते निर्बल हित वक्र।
दबे भूलते मिले दफीने,
फलती मचली मिटती आस।
राज महल के षडयंत्रों ने,
सदा छला जन का विश्वास।

सत्ता के नारे आकर्षक,
क्रांति शांति के हर उपदेश।
भावुक जन को छलते रहते,
आखिर शासक रहते शेष।
सिंहासन परिवार सदा ही,
करते मौज रचाते रास।
राज महल के षड़यंत्रों ने
सदा छला जन का विश्वास।

युद्ध और बदलाव सत्य में,
शोषण का फिर नवल विधान।
लुटता पिटता भोला भावुक,
भावि नाश से सच अनजान।
विश्वासों की बलिवेदी पर,
आस बिखरती उखड़ी श्वाँस।
राजमहल के षड़यंत्रों ने,
सदा छला जंन का विश्वास।
.          ______
बाबू लाल शर्मा बौहरा 'विज्ञ'

नवगीत
.     और..दम्भ दह गये
.          ( ११मात्रिक  नवगीत)
घाव ढाल बन रहे
.    स्वप्न साज बह गये।
.          पीत वर्ण पात हो
.             चूमते  विरह  गये।।

काल के कपाल पर
.    बैठ गीत रच रहा
.  प्राण के अकाल कवि
.      सुकाल को पच रहा
.      सुन विनाश गान खग
रोम की तरह गये।
पीत वर्ण..........।।

फूल  शूल से लगे
मीत भयभीत छंद
रुक गये विकास नव
.    छा रहा प्राण द्वंद
.   अश्रु बाढ़ चढ़ रही
डूब बहु ग्राह गये।
पीत...............।।

चाह घनश्याम मन
. रात श्याम आ गई
.   नींद एक स्वप्न था
.     खैर  नींद भा गई
.    श्वाँस  छोड़ते बदन
वात से जिबह हुये।
पीत.................।।

जीवनी विवाद मय
जन्म  मर्त्य  कामना
 .देख  रहे  भीत  बन
.    काल चाल सामना
.       शेर से दहाड़ हम
छोड़ कर जिरह गये।
पीत ...................।।

देश देश की खबर
.  काग चील हँस रहे
.    मौन कोकिला हुई
.    काल ब्याल डस रहे
.       लाश लापता हुई
मेघ शोक कह गये।
पीत................।।

 शव  सचित्र घूमते 
 . मौन होड़ पंथ पर
. गड़ रही निगाह अब
.   भारतीय  ग्रंथ  पर
. शोध के  बँबूल सब
सिंधु की सतह गये।
पीत.................।।

शून्य पंथ ताकते
. रीत प्रीत रो पड़ी
.   मानवीय भावना
.   संग रोग हथकड़ी
.      दूरियाँ सहेज ली
धूप ले सुबह गये।
पीत.............।।

खेत सब पके थके
. ले किसान की दवा
.    तीर विष बुझे लिए
.       मौन साधती हवा
.      होंठ सूख वृक्ष के
अश्रु मीत बह गये।
पीत................।।

ताण्डवी मशान से
.  मजार है मिल रही
.     कब्र की कतार में
.    मौत वस्त्र सिल रही
.     कफन की दुकान के
गुबार हम सह गये।
पीत.................।।

काट वृक्ष भूमि तन
.  स्वास्थ्य मूल खो रहे
.    सिंधु नीर सर नदी
.        जगत गंद ढो रहे 
.       काल की मजार ले
फैसले सुलह नये।
पीत...............।।

देव स्वर्ग में बसे
.  काल दूत डोलते
.    रक्त बीज बो रहे
.      गरल गंध घोलते
.  नव विषाणु फौज के
खिल रहे कलह नये
पीत..................।।

विहंग निज पर कुतर
.    प्रेम  पत्र  ला   रहे
.       पेड़ फूल डालियाँ
.     गिरि शिखर हिला रहे
.         सिंधु  आँच  दे  रहे
और  दम्भ दह गये।
पीत................ ।।

कामिनी सजा रही
.  गात मौत मीत के
     ढूँढ रही मौत शव
.       गीत संग रीत के
.        प्रीत की उमंग में
छंद दंग रह गये।
पीत..............।।

स्वदेश में प्रवास से
.  जागरूक  भारती
.   शूल बन फूल संग
.       यत्न कर्म पालती
.       हार गई  मौत तब
देख हम  फतह हुये।
पीत..................।।

चल दिए छंद छोड़
.  पीढ़ियाँ सहेज कर
.   सह लिए घाव ताप
.    सच से परहेज कर
.    आज नींद सी खुली
लोक पुण्य ग्रह गये।
पीत.................।।

बीत गये रोग सब
सोच प्राण हँस रहा
भव के अकाल भूल
.  मोह मान फँस रहा
. जग रहा  अहम  भाव
वयम्  अन्त गृह गये।
पीत.....................।।

ताक रहे विश्व जन
.  विहँस  रही  भारती
. विश्व  जीत देश मम
.    देह  मान आरती
.    सर्व  लोक मान्यतम्
विश्व  गुरू  कह  गये।
पीत... वर्ण.. पात..हो
चूमते... विरह...गये।।
.    _______
बाबू लाल शर्मा , बौहरा, विज्ञ

 .  ताटंक छंद विधान---
१६,१४, मात्रिक छंद,चरणांत में,
 तीन गुरु (२२२) अनिवार्य है।
दो, दो चरण समतुकांत हो।
चार चरण का एक छंद होता है।

 .      दीप शिखा
.   (रानी झाँसी से प्रेरणा )
.             
सुनो  बेटियों  जीना है तो,
शान सहित,मरना सीखो।
चाहे, दीपशिखा बन जाओ,
समय चाल पढ़ना सीखो।

रानी लक्ष्मी दीप शिखा थी,
तब वह राज फिरंगी था।
दुश्मन पर भारी पड़ती पर,
देशी राज दुरंगी था।१
.      
बहा पसीना उन गोरों को,
कुछ द्रोही रजवाड़े में।
हाथों में तलवार थाम मनु,
उतरी युद्ध अखाड़े में।

अंग्रेज़ी पलटन में उसने,
भारी मार मचाई थी।
पीठ बाँध सुत दामोदर को,
रण तलवार चलाई थी।२
.      
अब भी पूरा भारत गाता,
रानी वह मरदानी थी।
लक्ष्मी, झाँसी की रानी ने, 
लिख दी अमर कहानी थी।

पीकर देश प्रेम की हाला,
 रण चण्डी दीवानी ने।
तुमने सुनी कहानी जिसकी,
उस मर्दानी रानी ने।३
.        
भारत की बिटिया थी लक्ष्मी,
झाँसी  की वह रानी थी।
हम भी साहस सीख,सिखायें,
ऐसी रची  कहानी थी।

दिखा गई पथ सिखा गई वह,
आन मान सम्मानों के।
मातृभूमि के हित में लड़ना,
जब तक तन मय प्राणों के।४
.        
नत मस्तक मत होना बेटी,
लड़ना,नाजुक काया से।
कुछ पाना तो पाओ अपने,
कौशल,प्रतिभा,माया से।

स्वयं सुरक्षा कौशल सीखो,
हित सबके संत्रासों के।
दृढ़ चित बनकर जीवन जीना,
  परख आस विश्वासों के।५
.       
मलयागिरि सी बनो सुगंधा,
बुलबुल सी चहको गाओ।
स्वाभिमान के खातिर बेटी,
चण्डी ,ज्वाला हो जाओ।।

तुम भी दीप शिखा के जैसे,
रोशन तमहर हो पाओ।
लक्ष्मी, झाँसी रानी जैसे,
पथ बलिदानी खो जाओ।६
.        
बहिन,बेटियों साहस रखना,
मरते  दम  तक  श्वाँसों  में।
रानी झाँसी बन कर जीना,
मत आना जग  झाँसों  में।

बचो,पढ़ो तुम बढ़ो बेटियों,
चतुर सुजान सयानी हो।
अबला से सबला बन जाओ,
लक्ष्मी  सी  मरदानी  हो।७
.       
दीपक में बाती सम रहना,
दीपशिखा, ज्वाला होना।
सहना क्योंं अब अनाचार को,
ऐसे बीज धरा बोना।

नई पीढ़ियाँ सीख सकेंगी,
बिटिया के अरमानों को।
याद रखेगी धरा भारती,
बेटी के बलिदानों को।८
.       
शर्मा बाबू लाल लिखे मन,
द्वंद छन्द अफसानों को।
बिटिया भी निज ताकत समझे,
पता लगे अनजानों को।

बिटिया भी निजधर्म निभाये,
सँभले तज कर नादानी।
बिटिया,जीवन में बन रहना,
लक्ष्मी जैसी मर्दानी।९
.          _____
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

भारतीय वायु सेना के जवानों के,
 सम्मान में सादर समर्पित छंद,
. (३०मात्रिक (ताटंक) मुक्तक)
मेरे उड़ते....
..          ..... बाजों का
चिड़ीमार मत काँव काँव कर,
          काले काग रिवाजों के।
वरना हत्थे चढ़ जाएगा,
             मेरे  उड़ते  बाज़ों के।
बुज़दिल दहशतगर्दो सुनलो,
             देख थपेड़ा ऐसा भी।
और धमाके क्या झेलोगे, 
              मेरे यान मिराजों के।

तू जलता पागल उन्मादी,
            देख भारती साजों से।
देख हमारे बढ़े कदम को,
              उन्नत सारे काजो से।
समझ सके तो रोक बावरे,
           डीठ पिशाची बातों को।
बचा सके तो बचा कागले,
             मेरे  उड़ते  बाज़ों  से।

काग पिशाची संग बुला ले,
         चीनी मय सब साजों के।
नए हौंसले देख हमारे,
           शासन के सरताजों के।
करें हिसाब पुराने सारे,
        अब आओ तो सीमा पर।
पंजों में फँस कर तड़पोगे,
            मेरे  उड़ते   बाजो  के।

हमने भेजे खूब कबूतर,
.          पंचशील आगाजों का।
हम कहते थेे धीरज रख तू,
...       खून पिये परवाजों का।
तू मानें यह थप्पड़ खाले,
.       अक्ल तुझे  आ जाए तो।       
यह तो बस है एक झपट्टा,
.          मेरे  उड़ते  बाजों  का।

हमला झेल सके तो कहना,
.          रण बंके  जाँबाजों का।
सिंहनाद क्या सुन पाएगा,
.         रण के बजते बाजों का।
पहले मरहम पट्टी करले,
.        तब जवाब भिजवा देना।
फिर से भेजें ? श्वेत कबूतर,
.        देखें  हाल  जनाजों  का?

काशमीर जो स्वर्ग भारती,
.            घाटी है शहबाजों की।
डल तो पुण्य सरोवर जिसमेंं,
.        चलती किश्ती नाजों की।
कैसे दे  दूँ  केशर क्यारी,
.               यादें  तेरी  अय्यारी।
होजा दूर निगाहों से तू,
.             मेरे  उड़ते  बाजों की।

जिसमें यादें बसी हुई है,
.       अब तक भी मुमताजों की।
सैर सपाटे करते जिसमें,
.              राजा व महाराजों की।
काशमीर को जला सके क्या,
.           भीख मिले हथियारों से।
निगाह तेज है,भाग कागले,
.             मेरे  उड़ते  बाज़ों  की।

हमने तो बस मान दिया था,
.             दबी हुई आवाजों को।
दिल से हमने साथ दिया था,
.             तुम जैसे नासाज़ों को।
तूने शांत राजहंसो सँग,
.              सोये  सिंह जगाए हैं।
तूने क्रोधित कर डाला है,
.            मेरे  उड़ते  बाज़ों  को।

यह है भारत वर्ष जहाँ पर,
.         आदर सभी समाजों को।
चश्मा रखकर देख बावरे,
.         सादर सभी मिजाजों को।
आसतीन के नाग तुम्हारे,
.           तुमको जहर पिलाते है।
खूब दिखाई देतें हैं ये,
.             मेरे  उड़ते  बाज़ों को।

खुद का पिछड़ापन दूर करो,
.             बचो कबूतरबाजों  से।
वरना हम तो लेना जाने,
.        मूल सहित सब ब्याजों से।
मानव हो मानवता सीखो,
.           समझो भाव कुरानों का।
पाक उलूक बचा ले पंछी,
.               मेरे  उड़ते  बाज़ों  से।

आगे बढ़ना सीख सपोले,
.           मंथन  सभी सुराजों  से।
पहले घर मे निपट खोड़ले,
.             उग्र  दीन  नाराजों  से।
सीख हमारे मंदिर मस्जिद,
.             गीता गीत  कुरानों को।
नहीं बचेंगे आतंकी अब,
.               मेरे  उड़ते  बाज़ों  से।

शर्मा बाबू लाल लिखे हैं,
.             छंद चंद अलफाजों पे।
करूँ समर्पित लिख सेना के,
.            पवन वीर  जाँबाजो पे।
याद करें हम पवन पुत्र के,
.          पवन वेग रण वीरों  की। 
बहुत नाज रखता है भारत,
.             मेरे   उड़ते  बाज़ो   पे।
.         .  ._______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

.    सार छंद विधान
.       (१६,१२ मात्राएँ)
.       चरणांत मे गुरु गुरु
 .  ( २२,२११,११२,या ११११)

.       नेह नीर मन चाहत

ऋतु  बसंत  लाई  पछुआई,  
बीत  रही  शीतलता।
पतझड़ आए कुहुके,कोयल,
विरहा मानस जलता।

नव कोंपल नवकली खिली है,
भृंगों का आकर्षण।
तितली मधु मक्खी रस चूषक,
करते पुष्प समर्पण।

बिना देह  के  कामदेव  जग,
 रति  को ढूँढ रहा है।
रति खोजे निर्मलमनपति को,
मन व्यापार बहा है।

वृक्ष  बौर से  लदे  चाहते, 
लिपट लता  तरुणाई।
चाह  लता  की लिपटे तरु के,
 भाए प्रीत मिताई।

कामातुर खग  मृग जग मानव,
 रीत प्रीत दर्शाए।
कहीं विरह  नर कोयल गाए, 
कहीं गीत हरषाए।

मन कुरंग  चातक  सारस वन,
 मोर पपीहा बोले।
विरह बावरी  विरहा तन मे, 
मानो विष मन घोले।

विरहा मन  गो  गौ  रम्भाएँ,
 नेह नीर मन चाहत।
तीर लगे हैं  काम देव तन,
 नयन हुए मन आहत।

काग  कबूतर  बया  कमेड़ी, 
 तोते   चोंच  लड़ाते।
प्रेमदिवस कह युगल सनेही,
 विरहा मनुज चिढ़ाते।

मेघ गरज  नभ चपला चमके, 
भू से नेह  जताते।
नीर नेह या  हिम वर्षा  कर, 
मन  का चैन चुराते।

शेर  शेरनी  लड़ गुर्रा कर,
 बन  जाते अभिसारी।
भालू  चीते  बाघ तेंदुए, 
करे  प्रणय  हित  यारी।

पथ  भूले  आए  पुरवाई, 
पात  कली  तरु काँपे।
मेघ  श्याम  भंग रस  बरसा,
 यौवन  जगे बुढ़ापे।

रंग भंग सज कर होली पर,
अल्हड़ मानस मचले।
रीत प्रीत मन मस्ती झूमें,
खड़ी फसल भी पक ले।

नभ में  तारे  नयन लड़ा कर,
 बनते  प्रीत प्रचारी।
छन्न  पकैया  छन्न  पकैया,  
घूम  रही  भू   सारी।
.          _____
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

 .   सरसी छंद विधान:--
१६ + ११ मात्रा ,पदांत २१(गाल)
चौपाई+दोहा का सम चरण
.          ----
.     हम तुम छेडें राग
.          ------
बीत बसंत होलिका आई, 
अब तो आजा मीत।
फाग  रमेंगें  रंग  बिखरते, 
मिल  गा लेंगे  गीत।

खेत फसल सब हुए सुनहरी,
 कोयल गाये फाग।
भँवरे  तितली  मन भटकाएँ, 
हम तुम  छेड़ें राग।

घर आजा अब प्रिय परदेशी, 
मैं करती फरियाद।
लिख कर भेज रही मैं पाती, 
रैन दिवस की याद।

याद मचलती  पछुआ चलती, 
नही  सुहाए धूप।
बैरिन कोयल कुहुक दिलाती, 
याद तेरे मन रूप।

साजन लौट प्रिये घर आजा,
 तन मन चाहे मेल।
जलता बदन  होलिका  जैसे, 
चाह रंग रस खेल।

मदन  फाग  संग  बहुत  सताए,
 तन अमराई बौर।
चंचल चपल गात मन भरमें,
 सुन कोयल का शोर।

निंदिया रानी रूठ रही है, 
रैन दिवस के बैर।
रंग  बहाने  से  हुलियारे, 
खूब  चिढ़ाते  गैर।

लौट पिया जल्दी घर आना, 
 तुमको मेरी आन।
देर करोगे,  समझो  सजना, 
नहीं बचें मम प्रान।
.       _________
बाबू लाल शर्मा , बौहरा, विज्ञ

 ,             सार छंद
.              (१६,१२)
,              धनतेरस

दीप जले दीवाली आई
खुशियों की सौगाती।
सुख दुख बाँटो मिलकर ऐसे,
जैसे दीया बाती।

धनतेरस जन्म धनवंतरी,
अमृत औषधी लाये।
जिनकी कृपा प्रसादी मानव
स्वस्थ धनी हो पाये।

औषध धन है,सुधा रोग में,
मानवता के हित में।
सभी निरोगी समृद्ध होवे,
करें कामना चित में।

दीन हीन दुर्बल जन मन को,
आओ धीर बँधाए।
बिना औषधी कोई प्राणी,
जीवन नहीं गँवाए।

एक दीप यदि मन से रखलें,
धनतेरस मन जाए।
मनो भावना शुद्ध रखें सब,
ज्ञान गंध महकाए।

स्वस्थ शरीर बड़ा धन समझो,
धन से भी स्वास्थ्य मिले।
धन काया में रहे संतुलन,
हर जन को पथ्य मिले।
,            --------
बाबू लाल शर्मा, बौहरा , विज्ञ

.   सरसी छंद विधान: --
१६ + ११ मात्रा ,पदांत २१(गाल)
चौपाई+दोहा का सम चरण

.     हम भी छेडें राग

बीत बसंत होलिका आई,
अब तो आजा मीत।
फाग रमेंगें रंग बिखरेंगे,
मिल गायेंगे गीत।

खेत फसल सब हुए सुनहरी,
कोयल गाये फाग।
भँवरे तितली मन भटकाएँ,
हम भी छेड़ें राग।

घर आजा अब प्रिय परदेशी,
मैं करती फरियाद।
लिख लिख भेज रही मैं पाती,
रैन दिवस करि याद।

याद मचलती पछुआ चलती,
 नही सुहाए धूप।
बैरिन कोयल कुहुक दिलाती।
याद तेरे मन रूप।

सजन लौट के प्रिय घर आजा,
तन मन चाहत मेल।
जलता बदन होलिका जैसे,
चाह रंग रस खेल।

मदन फाग संग बहुत सताए,
तन अमराई बौर।
चंचल चपल गात मन भरमें,
सुन कोयल का शोर।

निंदिया रानी रूठ रही है,
रैन दिवस के बैर।
रंग बहाने से हुलियारे,
खूब चिढ़ाते गैर।

लौट पिया जल्दी घर आना।
तुमको मेरी आन।
नहि,आए तो समझो सजना,
नहीं बचें मम प्रान।
.        ---------
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ

 . जीत हुई पर रामानुज की
.        (१६,१६)

काल चाल  कितनी भी खेले,
आखिर होगी जीत मनुज की
इतिहास लिखित पन्ने पलटो,
हार  हुई  है  सदा दनुज की।।

विश्व पटल पर काल चक्र ने,
वक्र तेग जब भी दिखलाया।
प्रति उत्तर  में तब तब मानव,
और  निखर नव उर्जा लाया।
बहुत   डराये  सदा   यामिनी,
हुई  रोशनी  अरुणानुज  की।
काल चाल कितनी  भी  खेले,
आखिर,......................।।

त्रेता में तम बहुत  बढा जब,
राक्षस  माया  बहु  विस्तारी।
मानव  राम  चले  बन प्रहरी,
राक्षस  हीन  किये  भू सारी।
मेघनाथ  ने   खूब   छकाया,
जीत हुई  पर  रामानुज की।
काल........... ....   ,...,...।।

 द्वापर  कंश   बना  अन्यायी,
अंत हुआ आखिर तो उसका।
कौरव  वंश   महा   बलशाली,
परचम लहराता  था जिसका।
यदु कुल की भव  सिंह दहाड़े,
जीत   हुई   पर  शेषानुज की।
काल....... ..... ....  .........।।

 महा  सिकंदर  यवन   लुटेरे,
अफगानी गजनी  अरबी तम।
मद मंगोल मुगल खिलजी के,
अंग्रेजों  का  जगती   परचम।
खूब  सहा  इस  पावन रज ने,
जीत  हुई  पर भारतभुज की।
काल................  ..........।।

नाग कालिया असुर शक्तियाँ,
प्लेग   पोलियो  टीबी  चेचक।
मरी    बुखार   कर्क   बीमारी,
नाथे   हमने   सारे   अनथक।
कितना  ही   उत्पात   मचाया,
जीत हुई  पर  मनुजानुज की।
काल.............  ..... ........।।

आतंक   सभी   घुटने   टेकें,
संघर्षों   के   हम   अवतारी।
मात   भारती   की   सेवा में,
मेटें   विपदा   भू   की सारी।
खूब   लड़े   हैं   खूब  लडेंगें,
जीत रहेगी  मानस भुज की।
काल........ ...... ...........।।

आज मची  है विकट  तबाही,
विश्व  प्रताड़ित  भी  है  सारा।
हे विषाणु अब शरण खोजले,
आने   वाला   समय   हमारा।
कुछ खो कर मनुजत्व बचाये,
विजयी  तासीर  जरायुज की।
काल........ ...................।। 
.         _______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा *विज्ञ*

. मुक्तक (१६मात्रिक)
.    हम-तुम
            
हम तुम मिल नव साज सजाएँ,
आओ अपना देश बनाएँ।
 अधिकारों की होड़ छोड़ दें,
कर्तव्यों की होड़ लगाएँ।

हम तुम मिलें समाज सुधारें,
रीत प्रीत के गीत बघारें।
छोड़ कुरीति कुचालें सारी,
आओ नया समाज सँवारें।

हम तुम मिल नवरस में गाएँ,
गीत नए नव पौध लगाएँ।
ढहते भले पुराने बरगद,
हम तुम मिल नव बाग लगाएँ।

मंदिर मसजिद से भी पहले,
मानवता की बातें कहलें।
मुद्दों के संगत क्यों भटके,
हम तुम मिलें भोर से टहलें।

हम तुम सागर सरिता जैसे,
जल में जल मिलता है वैसे।
स्वच्छ रखे जलीय स्रोतों को,
वरना जग जीवेगा कैसे।

देश धर्म दोनो अवलंबन,
मानव हित में बने सम्बलन।
झगड़े टंटे तभी मिटेंगे,
आओ मिल हो जायँ निबंधन।

प्राकृत का संसार निभाएँ,
सृष्टि सार संसार चलाएँ।
लेकिन तभी सर्व संभव हो,
जब हम तुम दोनो मिल जाएँ।
.            _______
बाबू लाल शर्मा, "बौहरा" विज्ञ

.        विधाता छंद
१२२२  १२२२, १२२२  १२२२
.        प्रार्थना
.         
सुनो ईश्वर यही विनती,
यही अरमान परमात्मा।
मनुजता भाव मुझ में हों,
बनूँ मानव सुजन आत्मा।
.        
रहूँ पथ सत्य पर चलता,
सदा आतम उजाले हो।
करूँ इंसान की सेवा,
इरादे भी निराले हो।
.       
गरीबों को सतत ऊँचा,
उठाकर मान दे देना।
यतीमों की करो रक्षा,
भले अरमान दे देना।
.       
प्रभो संसार की बाधा,
भले मुझको सभी देना।
रखो ऐसी कृपा ईश्वर, 
मुझे अपनी शरण लेना।
.       
सुखों की होड़ में दौड़ूँ,
नहीं मन्शा रखी मैने।
उड़े आकाश में ऐसे, 
नहीं चाहे कभी डैने।
.        
नहीं है मोक्ष का दावा,
 विदाई स्वर्ग तैयारी।
महामानव नहीं बनना,
 कन्हैया लाल की यारी।
.       
रखूँ मैं याद मानवता,
 समाजी सोच हो मेरी।
रचूँ मैं छंद मानुष हित,
 करूँ अर्पण शरण तेरी।
.     
करूँ मैं देश सेवा में,
समर्पण यह बदन अपना।
प्रभो अरमान इतना सा, 
करो पूरा यही सपना।
.    
यही है प्रार्थना मेरी,
सुनो अर्जी प्रभो मेरी।
नहीं विश्वास दूजे पर, 
रही आशा सदा तेरी। 
         ________
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

.    विधाता छंद मय मुक्तक
.      फूल

रखूँ किस पृष्ठ के अंदर,
अमानत प्यार की सँभले।
भरी है डायरी पूरी,
सहे जज्बात के हमले।
गुलाबी फूल सा दिल है,
तुम्हारे प्यार में पागल।
सहे ना फूल भी दिल भी,
 हकीकत हैं, नहीं जुमले।
.      
सुखों की खोज में मैने,
लिखे हैं गीत अफसाने।
रचे हैं छंद भी सुंदर,
भरोसे वक्त बहकाने।
मिला इक फूल जीवन में,
तुम्हारे हाथ से केवल।
रखूँगा डायरी में ही,
कभी दिल ज़ान भरमाने।
.       
कभी सावन हमेशा ही,
 दिलों मे फाग था हरदम।
सुनहली चाँदनी रातें,
बिताते याद मे हमदम।
जमाना वो गया लेकिन,
चला यह वक्त जाएगा।
पढेंगे डायरी गुम सुम,
रखेंगे फूल मरते दम।
.      
गुलाबी फूल सूखेगा,
चिपक छंदो से जाएगा।
गुमानी छंद भी महके,
पुहुप भी गीत गाएगा।
हमारे दिल मिलेंगे यों,
यही है प्यार का मकस़द,
अमानत यह विरासत सा
सदा ही याद आएगा।
.        ______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

 .       ~ ताटंक छंद ~
विधान :-  १६, १४  मात्राभार
दो दो चरण ~ समतुकांत,
चार चरण का ~ छंद
तुकांत में गुरु गुरु गुरु,२२२ हो।
.     
     श्रम श्वेद
.          .
बने नींव की ईंट श्रमी जो,
गिरा श्वेद मीनारों में।
स्वप्न अश्रु मिलकर गारे में।
चुने गये दीवारों में।
श्वेद नींव में दीवारों में,
होता मिला दुकानों में।
महल किले आवास सभी के,
रहता मिला मकानों में।
.            
बाग बगीचे और वाटिका,
सड़के रेल जमाने में।
श्वेद रक्त श्रम मजदूरों का,
रोटी दाल कमाने में।
माँल,मिलो,कोठी अरु दफ्तर,
सब में मिला पसीना है।
हर गुलशन में श्वेद रमा है,
हँसती  जहाँ  हसीना है।
.            
ईंट,नींव,श्रम,श्वेद श्रमिक की,
रहे भूल हम थाती है।
बाते केवल नाहक दुनिया
श्रम का पर्व मनाती है।
मजदूरों को मान मिले बस,
रोटी भी हो खाने को।
तन ढकने को वस्त्र मिले तो,
आश्रय शीश छुपाने को।
.             
स्वास्थ्य दवा का इंतजाम हो,
जीवन जोखिम बीमा हो।
अवकाशों का प्रावधान कर,
छह घंटे श्रम सीमा हो।
बच्चों के लालन पालन के,
सभी साज अच्छे से हो।
बच्चों की शिक्षा सुविधा सब,
सरकारी खर्चे से हो।
.            
बाबू लाल शर्मा, "बौहरा" विज्ञ

पनघट मरते प्यास
{सरसी छंद 16+11=27 मात्रा,
 चरणांत गाल, 2 1}
.        
नीर धीर दोनोे मिलते थे,
सखी-कान्ह परिहास।
था समय वही,,अब कथा बने,
रीत गये उल्लास।
तन मन आशा चुहल वार्ता,
वे सब दौर उदास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

वे नारी वार्ता स्थल थे,
रमणी अरु गोपाल।
पथिकों का श्रम हरने वाले,
प्रेमी बतरस ग्वाल।
पंछी जल की बूंद आस के,
थोथे हुए दिलास।
मन की प्यास शमन करते वे
पनघट मरते प्यास।

 बनिताएँ सरिता होती थी,
प्यासे नीर निदान।
वे निश्छल वाणी ममता की,
करती थी जल दान।
कान्हा राधे की उन राहों में,
भरते घोर कुहास।
मन की प्यास शमन करते वे
पनघट मरते प्यास।

पनघट संगत पनिहारिन भी,
रहे मसोसे बाँह।
नीर भरी प्यासी अँखियाँ वे,
ढूँढ रही है छाँह।
जरापने सब  दुख ही पाते,
टूटे सबकी आस।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास ।।

रीते सरवर  ताल  तलैया,
कूएँ सूखे सार।
घट गागर भी लुप्त हुए हैं,
रस्सी सुप्त विचार।
दादी नानी , बात कहानी,
तरसे कथ परिहास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

रीत प्रीत से लोटा डोरी,
बँध रहते दिन रात।
ललनाओं से चुहल कहानी,
अपनेपन की बात।
रिश्तों में मर्याद ठिठोली,
देवर भाभी हास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

सास ससुर की बाते करती,
 रमणी भोली जान।
करे शिकायत कभी प्रशंसा,
पनिहारिन अभिमान।
याद कहानी होकर घटते,
प्रीत रीत विश्वास।
मन की प्यास शमन करते वे
पनघट मरते प्यास।।

प्रेम कहानी घर के झगड़े,
सहते मौन स्वभाव।
कभी चुहल देवर भौजाई,
ईश भजन समभाव।
जल घट डोर डोल वे लोटे,
दर्शन ही परिहास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

प्रियजन,पंछी,पथिक पाहुने,
गायें लौटत हार।
वृद्ध जनो से अवसर पाके,
दुआ लेत पनिहार।
सबको अपना हक मिलता था,
कोय न हुआ हताश।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

वर्तमान  की  अंध दौड़ में,
भूल गये संस्कार।
आभूषण पनिहारिन रखती,
वस्त्रों संग सँभार।
याद रहे बस याद कहानी,
मर्यादा के हास।
मन की प्यास शमन करते वे,
पनघट मरते प्यास।।

दंत खिलकती,नैन छलकती,
झिलमिल वे शृंगार।
देख दृष्य वे खूब विहँसती,
मूक स्वरों पनिहार।
मौन गवाही पनघट देते,
रीते लगे पलाश।
मन की प्यास शमन करते वे,
 पनघट मरते प्यास।।
.            _______
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ

 .            विधाता छंद
विधान- 
 १२२२  १२२२  १२२२  १२२२
.                पिता
.    (सम्मानार्थ शब्दमाल)
.                          
सजीवन  प्राण देता है,
 सहारा  गेह का होते।
कहें कैसे विधाता है,
पिताजी कम नहीं होते।

मिले बल ताप ऊर्जा भी,
सृजन पोषण सभी करता।
नहीं बातें दिवाकर की,
पिता भी कम नही तपता।

मिले चहुँओर से रक्षा,
करे हिम ताप से छाया।
नहीं आकाश की बातें,
पिताजी में यहीं माया।

करे अपनी सदा रक्षा,
वही तो शत्रु के भय से।
नहीं बातें हिमालय की,
पिता मेरे हिमालय से

बसेरा  सर्व जन देता, 
स्वयं साधू बना रहता।
नहीं देखे कहीं पौधे,
पिता बरगद बने सहता।

करे तन जीर्ण खारा जो,
सु दानी कर्ण  सा मानो।
मरण की बात आए तो,
पिता दशरथ मरे जानो।

जगूँ जो भोर में जल्दी, 
मुझे पूरव दिखे प्यारे।
पिता ही जागते पहले,
कहे क्यों भोर के तारे।

कभी बाधा हमे आए,
उसी  से राह दिखती है।
नही ध्रुव की कहूँ बातें,
पिता की राय मिलती है।

कहें वो यों नही रोता, 
रुदन भारी नहीं रहता?
रिसे नगराज से झरने,
पिता का नेत्र है झरता।

नदी की धार बहती है,
हिमालय श्वेद की धारा,
पिता के श्वेद बूंदो से,
नहीं, सागर कहीं खारा।

झरे ज्यों नीर पर्वत से,
सुता कर,पीत जब करने।
कभी आँखें मिलाओ तो,
पिता  के  नेत्र  हों  झरने।

महा जो नीर खारा है,
पिता का श्वेद खारा है।
समन्दर है बड़े लेकिन,
पिता कब धीर हारा है।

कहें गोदान का हीरो,
अभावो का दुलारा है।
दिखाई दे वही  होरी, 
पिता भी तो हमारा है।

पिता में भावना जागे,
कहें हदपार कर जाता,
अँधेरीे रात यमुना में,
पिता वसुदेव ही आता।

सजीवी जाति प्राकृत से,
अजूबे,मोह है पाता।
भले मौके कहीं पाए, 
वही  धृतराष्ट्र हो जाता।

निराली मोह की बातें,
पिता जो पूत पर लाते।
सुने सुत घात,जो देखो,
गुरू वे द्रोण कट जाते

पिता सोचे सभी ऐसे,
सुतों की पीर पी जाए।
हुमायू रुग्ण हो लेकिन, 
मरे बाबर वहीं पाए।

अहं खण्डर कँगूरों कर,
इमारत नींव कहलाता।
कभी जो खुद इमारत था,
पिता दीवार बन जाता।

विजेताई तमन्ना है, 
पुरुष के खून में हर दम।
भरे सुत में सदा ताकत,
पिता हारे अहं बेगम।

न देवो से डरा  यारों, 
सदा रिपु से रहे भारा।
मगर हो पूत बेदम तो, 
पिता संतान से हारा।

रखें हसरत जमाने में,
महल रुतबे बनाने का।
पिता अरमान पालेंगे,
विरासत छोड़ जाने का।

पिता ने ले लिया भी तो,
बड़े वरदान दे जाता,
ययाती भीष्म की बातें,
जमाने,याद है आता।

नरेशों की रही फितरत,
लड़ाई घात की बातें।
सुतों हित राजतज देते,
चले वनवास में जाते।

उसे नाराज मत करना,
वही तो भव नियंता है,
सितारे टूट से जाते,
पिता जब क्रुद्ध होता है।

पिता की पीठ वे काँधे,
बड़े ही दम दिखाते हैं।
जनाजा पूत  का ढोतेे, 
पिता दम टूट जाते है।

बड़ा सीना, गरम तेवर, 
गरूरे दम  बने रहते।
विदा बेटी कभी होती,
पिघल धोरे वही बहते।

बने माँ की वही महिमा,
 सुहाने गीत की बाते।
हिना की शक्ति बिंदी के,
पिताजी स्रोत है पाते

मिले शौहरत रुतबे ये,
बने दौलत सभी बाते।
रखे वे धीरगुण सारे, 
पिता भी मातु से पाते।

दिए जो अस्थियाँ दानी,
दधीची नाम,था ऋषि का।
स्वर्ग के देवताओं पर,
महा अहसान था जिसका।

मगर सर्वस्व जो दे ते,
कऱें सम्मान उनका भी।
पिता ऐसा तपी होता,
रहेअहसास इसका भी।

विधाता छंद में देखें,
सभी बाते पिता पद की।
न शर्मा लाल बाबू तू,
अमानत है विरासत की।
.              ........

बाबू लाल शर्मा , बौहरा  विज्ञ

 .      ताटंक छंद
विधान- १६,१४ मात्रा प्रति चरण
चार चरण दो दो चरण समतुकांत
चरणांत मगण (२२२) 

.   वंदन करलो

वंदन करलो मातृभूमि को,
पदवंदन निज माता का।
दैव देश का कर अभिनंदन,
वंदन जीवन दाता का।
सैनिक हित जय जवान कहें हम,
नमन शहीद, सुमाता को।
जयकिसान हम कहे साथियों,
अपने अन्न प्रदाता को।

विकसित देश बनाना है अब,
जय विज्ञान बताओ तो।
लेखक शिक्षक कविजन अपने,
सबका मान बढ़ाओ तो।
लोकतंत्र का मान बढ़ाना,
भारत के मतदाता का।
संविधान का पालन करना,
जन गण मन सुख दाता का।

वंदन श्रम मजदूरों का तो,
हम सब के हितकारी हो।
मातृशक्ति को वंदन करना,
मानव मंगलकारी हो। 
देश धरा हित प्राण निछावर,
करने वाले वीरों का।
आजादी हित मिटे हजारों
भारत के रण धीरों का।

प्यारे उन के परिजन को भी,
वंदित धीरज दे देना।
नीलगगन जो बने सितारे,
आशीषें कुछ ले लेना।
भूल न जाना वंदन करना,
सच्चे स्वाभिमानी का।
नव पीढ़ी को सिखा रहे उन,
देश भक्ति अरमानी का।

वंदन करलो पर्वत हिमगिरि,
सागर,पहरेदारों का।
देश धर्म हित प्रणधारे उन,
आकाशी ध्रुव तारों का। 
जन गण मन में उमड़ रही जो,
बलिदानी परिपाटी का।
कण कण भरी शौर्य गाथा,
भारत चंदन माटी का।

ग्वाल बाल संग वंदन करना
अपने सब वन वृक्षों का।
वंदन भाग्य विधायक संसद 
नेता पक्ष विपक्षों का।
भूले बिसरे कवि के मन से,
वंदन उन सबका भी हो।
अभिनंदन की इस श्रेणी में,
हर वंचित तबका भी हो।
.       ------------
बाबू लाल शर्मा, बौहरा ,  विज्ञ

 मुक्तक (१६मात्रिक)
.    हम-तुम

हम तुम मिल नव साज सजाएँ,
आओ अपना देश बनाएँ।
अधिकारों की होड़ छोड़ दें,
कर्तव्यों की होड़ लगाएँ।
हम तुम मिलें समाज सुधारें,
रीत प्रीत के गीत बघारें।
छोड़ कुरीति कुचालें सारी,
आओ नया समाज सँवारें।

हम तुम मिल नवरस में गाएँ,
गीत नए नव पौध लगाएँ।
ढहते भले पुराने बरगद,
हम तुम मिल नव बाग लगाएँ।
मंदिर मस्जिद से भी पहले,
मानवता की बातें कहलें।
मुद्दों के संगत क्यों भटके,
हम तुम मिलें भोर से टहलें।

हम तुम सागर सरिता जैसे,
जल में जल मिलता है वैसे।
स्वच्छ रखे जलीय स्रोतों को,
वरना जग जीवेगा कैसे।
देश धर्म दोनो अवलंबन,
मानव हित में बने सम्बलन।
झगड़े टंटे तभी मिटेंगे,
आओ मिल हो जायँ निबंधन।

प्राकृत का संसार निभाएँ,
सृष्टि सार संसार चलाएँ।
लेकिन तभी सर्व संभव हो,
जब हम तुम दोनो मिल जाएँ।
.          ______
बाबू लाल शर्मा, "बौहरा" विज्ञ

 .       नमन
.    ( 16,14)

नमन करूँ मैं निज जननी को,
            जिसने जीवन दान दिया।
वंदन करूँ जनक को जिसने 
             जीवन का अरमान दिया।

नमन करूँ भ्राता भगिनी सब ,
            संगत  रख कर  स्नेह दिया।
गुरु को नमन दैव से पहले
            वाचन  लेखन ज्ञान दिया।
.                ~~~~~
मानुष तन है दैव दुर्लभम,
              अनुपम  यही  सौगात है।
दैव,धरा,गुरु,भ्राता,भगिनी,
             परिजन  पिता या मात है।

गंगा गैया,गिरि, गणेश, गज
                 गायन गगन का गात है।
बमभोले,बाबा, बजरंगी,
                ब्रह्मा, या बिष्नु, बात है।
.                ~~~~~
भानु भवानी,भगवन भक्तों,
             भ्रात भृत्य को नमन करूँ।
बाग बगीचे वन उपवन जल,
           सागर, थल ,को चमन करूँ।

चन्द्र, सितारे,भिन्न पिण्ड,तरु,
         पशु,खग,दुख  का शमन करूँ।
जीव जगत,निर्जीव सभी सह,
             राष्ट्र  शत्रु का दमन  करूँ।
.             ~~~~~
नमन करूँ सब भूले भटके
         जन गण मन संविधान  को।
जय जवान,अर,जय किसान के,
             मचलते  मानस मान को।
.             
नमन करूँ कण कण मे बसते,
            उस दैवीय अभिमान   को।
अपने और सभी के गौरव
          मेरे निज स्व अभिमान   को।
.        _______
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

.      हरिगीतिका छंद
.     (मापनी मुक्त १६,१२)
.       अटल  - सपूत

श्री अटल भारत भू मनुज,ही
                   शान सत अरमान है।
जन जन हृदय सम्राट बन कवि,
                   ध्रुव बने असमान है।
नहीं भूल इनको पाएगा,
                  देश का अभिमान है।
नव जन्म भारत वतन धारण,
                   या हुआ अवसान है।
.                 
हर भारत का भरत नयन भर,
            अटल की कविता गात है।
हार न मानूं रार न ठानू ,
            दइ   अटल    सौगात   है।
भू भारत का अटल लाड़ला,
            आज  क्यो   बहकात  है।
अमर हुआ तू मरा नहीं है,
            हमको   भी   विज्ञात   है।
.                
भारती प्रिय पूत तुम सपूत को ,
              मात   अटल  पुकारती।
जन गण मन की आवाज सहज,
              अटल ध्वनि पहचानती।
राजनीति के दल दलदल में,
              अटल  सत्य  सु मानती।
गगन ध्रुव या धरा ध्रुव  समान
              सुपुत्र   है   स्वीकारती।
.                  
सपूत तू धरा रहा पुत्र सम,
                 करि नहीं अवमानना।
अब देवों की लोकसभालय,
                 प्रण  सपूती  पालना।
अटल गगन मे इन्द्रधनुष रंग,
                 सत  रंग  पहचानना।
अमर सपूत कहलाये अवनि ,
                  मेरी  यही   कामना।
.            _______
बाबू लाल शर्मा 'बौहरा'

      मृत्युभोज
.                    (16,14)
जीवन भर अपनो के हित में,
 मित हर दिन चित रोग करे।
कष्ट सहे,दुख भोगे,पीड़ा ,
हानि लाभ,के योग करे,
जरा,जरापन सार नहीं,अब
बाद मृत्यु के भोज करे।

बालपने में मात पिता प्रिय,
निर्भर थे प्यारे लगते।
युवा अवस्था आए तब तक,
बिना पंख उड़ते भगते।
मन की मर्जी राग करेे,जन,
मनइच्छा उपयोग करें।
जरा,जरापन सार नहीं,पर
बाद मृत्यु के भोज करे।

सत्य सनातन रीत यही  है, 
स्वारथ रीत निभाई है।
अन उपजाऊ अन उत्पादी,
 मान, बुजुर्गी छाई है,
कौन सँभाले,  ठाले  बैठे,
कहते बूढ़े मौज करे।
जरा,जरापन सार नहीं,पर
बाद मृत्यू  के भोज करे।

यही कुरीति पुरातन से  है,
कल,जो युवा पीढ़ियांँ थी,
वो अब गिरते पड़ते  मरते।
अपनी कभी सीढ़ियाँ थी।
वृद्धाश्रम की शरण चले वे,
नर नाहर, वे दीवाने।
जिनके बल,वैभव पहले के,
 उद्घोषित वे मस्ताने।,
आज वही है पड़े किनारे,
राम राम कह राम हरे।
जरा,जरापन सार नहीं,पर,
बाद मृत्यु के भोज करे।

कुल गौरव की रीत निभानी,
सिर पर ताज पाग बंधन।
मान बड़प्पन, हक, पुरखों का,
माने काज करे वंदन।
जो शायद अध-भूखे-प्यासे, 
एकल रह बिन - मौत मरे,
जरा,जरापन सार नहीं, पर
बाद मृत्यु के भोज करे।

एक रिवाज  और पहले से 
ऐसा चलता आता है,
बड़ भागी नर तो जीवित ही,
मृत्यु भोज जिमाता है।
वर्तमान में रूप निखारा,
सेवा निवृत्ति भोज करे।
जरा,जरापन सार नहीं,पर,
बाद मृत्यु भोज के करे।
.      ______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा  विज्ञ

नमन् लिखा दे
.         १६,१४
वीणा पाणी, ज्ञान प्रदायिनी,
ब्रह्म तनया माँ शारदे।
सतपथ जन प्रिय सत्साहित,हित
 कलम मेरी माँ तार दे।

मात शारदे नमन् लिखादे,
धरती, फिर नभ मानों को।
जीवनदाता प्राण विधाता,
मात पिता   भगवानों को।

मात शारदे नमन लिखा दे,
सैनिक और किसानों को।
तेरे वरद पुत्र,माँ शारद, 
गुरु, कविजन, विद्वानों को।

मात शारदे नमन लिखा दे,
भू  पर मरने वालों को।
अपना सर्व समर्पण  कर के,
देश बचाने वालों को।

मात शारदे नमन लिखा दे,
संसद  अरु  संविधान को।
मातृ भूमि की बलिवेदी पर,
अब तक हुए बलिदान को।

मात् शारदे नमन् लिखा दे,
जन मन मान कल्याण को।
भारत माँ के सत्य उपासक,
श्रम के पूज्य इंसान को।

मात शारदे नमन लि खादे,
माँ भारती  के  गान को।
मैं तो प्रथम नमामि कहूँगा, 
माँ शारदे  वरदान को।
.         ______
बाबू लाल शर्मा"बौहरा" विज्ञ

आप बीती,जग बीती
.      (१६,१४)

शीश महल की बात पुरानी,
 रजवाड़ी  किस्से जाने।
हम  भी   शहंशाह  है, भैया,
 शीश  पटल    के   दीवाने।

आभासी  रिश्तों  के कायल,
 कविताई   के मस्ताने।
कर्म विमुख साधो सा जीवन, 
अरु  व्याकरणी   पैमाने।

कुछ तो नभमंडल से तारे,
 कुछ  मुझ  जैसे  घसि यारे।
काम  छोड़  कविताई करते,
दुखी  भये सब घर वारे।

मैं भी शीश  पटल सत संगी,
तुम  भी  हो  साथ सयाने।
पंख हीन बिन दीपक जलते,
हम बिन मौसम  परवाने।

सुप्रभात  से  शुभ रात्रि तक,
शीशपटल पर रहता हूँ।
घरवाली दिन भर दे ताने,
  बिन जाने ही सहता हूँ।

नदिया, मे बुँदिया  की जैसे,
स्वप्न  लोक  में  बहता  हूँ।
मनोभाव  ऐसे  रहते  ज्यों,
शीश महल  मे  हीे रहता  हूँ।

एक पटल पर भी  रह लेता,
अन्य पटल भी मँडराता।
संदेशे  पढ़  पढ़  कर  मै, तो,
भँवरे  सा नित  भरमाता।

चैन पटल  बिन नहीं मिले तो,
पटलों   पर   बेचैन रहूँ।
नैन पटल में क्या क्या खोजे,
लगता घर  बिन  नैन रहूँ।

कैसे,  अनुपम  रिश्ते   जोड़े,
आभासी  प्रतिबिंबो से।
धरा  धरातल   भूल  रहें,हम,
दूर  रहे  सत  बिम्बो  से।

जीवन ही आभास मात्र  अब,
शीश पटल आचरणों  में।
जैसे  शहंशाह  रमते थे,
शीश महल सत वरणों में।

मूल भूत,  अन्तर   पहचाना,
कैसा,  यह परिहास हुआ।
वो, तो शीश महल के स्वामी,
 पटलों का मैं दास हुआ।
.       ______
बाबू लाल शर्मा "बौहरा

क्यों जाति की बात करें
                   (१६,१६)

जब जगत तरक्की करता हो,
देश तभी उन्नति करता है।
जब मानव सहज विकास करे,
क्यों जाति द्वेष की बात करें।

जाति धर्म मे पैदा होना,
मनुजों की वश की बात नहीं,
फिर जाति वर्ग की बात करें
यह सच्ची अच्छी बात नहीं।

माना जो पहले बीत गया,
कुछ कर्मी वर्ग अवस्था थी,
नवयुग मे नया प्रभात करें,
क्यों जाति वर्ग की बात करें।

परदुख पर दो आँसू टपके,
हरसुख पर मिल दो ताली दें
जाति मनुज की मनुज जाति है,
तब क्यों जाती की गाली दे।

जब बंधन ढीले पड़ते हो,
सबजन विकास पथ बढ़ते हो,
जब सूरज सहज प्रकाश करे,
सबजन मिल सतत प्रयास करें।
     
जब जन मन सरल सनेह करे,
सत साहित्यिक अभ्यास करे,
जब मानव सहज विकास करे,
हम क्यो जाती की बात करे।
.        _______
बाबू लाल शर्मा

.     प्रीतम पाती प्रेमरस...
.                   ( दोहा-छंद)
.                        
पावन पुन्य पुनीत पल, प्रणय प्रीत प्रतिपाल।
जन्मदिवस शुभ आपका, प्रियतम प्राणाधार।
.                        
प्रिय पत्नी प्रण पालती, प्राणनाथ  पतिसंग।
जन्मदिवस जुग जुग जपूँ, रहे सुहाग अभंग।।
.                        
प्रियतम  पाती  प्रेमरस, पाइ  पठाई  पंथ।
जागत जोहू जन्मदिन, जगत जनाऊँ कंत।।
.                        
जनमे जग जो जानिए, जन्म दिवस जगभूप।
प्रिय परिजन परिवार, पर,प्यार प्रेम प्रतिरूप।
.                        
जन्म दिवस शुभकामना, कैसे कहूँ विशेष।
प्रियतम  मैं  तुझ में रहूँ, मेरे  मनज  महेश।।
.                        
प्राणनाथ प्रिय पुरवऊ, पावन पुन्य प्रतीत।
परमेश्वर प्रतिपालना, पाऊँ प्रियतम प्रीत।।
.                        
पग पग पायलिया पगूँ, पाय पिया प्रति प्यार।
पल  पल  पाँव  पखारती, पारावर  पतवार।।
.                        
पाल पोष प्रतिपाल पहिं, प्राण पियारी प्रीत।
पावन  पावक  पाकते ,पाहन  प्रेम  पलीत।।
.                        
पारावर   पारागमन, पाप  पुण्य  पतवार।
प्रियवर पोत प्रचारती, प्रभु पाती प्रतिहार।।
.                        
परिजन   पाहन  पूजते, पर्वत  पंथ  पठार।
प्रियतम पद परितोषिए, पाले प्रिय परिवार।।
.                        
प्रीतम  पाती   प्रेयसी, पढ़त प्यार परिमान।
पढ़त पीव पलकों पले, प्रीत पिया प्रतिमान।।
.                        
पाहन पारावरन पर, प्रण पाले प्रतिपाल।
पिया पान परमेश्वरः, पारागमन  पताल।।
.                        
पीहर पाक पवित्रता, परधन पंक प्रमान।
पुरष पराये पातकी, पितर पीर प्रतिमान।।
.                       
पैजनिया पग पहनती, पान परागी पीक।
पिय पिनाकी पींग पर, पूरव पवन प्रतीक।।
.                        
पारस्परिक परम्परा, प्रियतम पीहर पंथ।
प्रेम पनाह परिक्रमा, प्रीत प्राण परिपंथ।।
.                   ______
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ

.   जन्मदिन प्रियतम का
.           दोहा छंद
.                 1
प्रियतम प्राण अधार है,सुरसरगम सब साज।
जन्मदिवस पे मैं करूँ,ये रुचि का शुभकाज।
.                 2
पावन पुन्य पुनीत पल,प्रणय प्रीत प्रतिपाल।
जन्मदिवस है आपका,प्रियतम हो खुशहाल।
.                 3
प्रिय पत्नी प्रण पालती, प्राणनाथ  पतिसंग।
जन्मदिवस जुग जुग जपूँ,रहे सुहाग अभंग।।
.                 4
प्रियतम  पाती  प्रेमरस, पाइ  पठाई  पंथ।
जागत जोहू जन्मदिन,जगत जनाऊँ कंत।।
.                 5
जनमे जग जो जानिए, जन्मदिवस जगभूप।
प्रिय परिजन परिवार पर,प्यार प्रेम प्रतिरूप।
.                 6
जन्म दिवस शुभकामना, कैसे कहूँ विशेष।
प्रियतम  मैं  तुझ में रहूँ, मेरे  मनज  महेश।।
.                 7
सत फेरे  सातों  वचन ,दोहे  सात  बनाय।
सात बार न्यौछार दूँ,सात जन्म पिवपाय।।
.               _____
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" विज्ञ

सुख-दुख
           ( १६,१६)
मैने तो हर पीड़ा झेली।
   सुख-दुख की बाते बेमानी।

दुख ही मेरा सच्चा साथी, 
       श्वाँस श्वाँस मे रहे सँगाती।
मै तो केवल दुख ही जानूँ,
      प्रीत रीत मैने कब जानी,
सुख-दुख की बाते बेमानी।

सुख तो केवल छलना है,
      मुझे निरंतर पथ चलना है।
बाधाओं से कब रुक पाया,
      जब जब मैने मन में ठानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।

अवरोधक है सखा हमारे,
      संकट बंधु पड़ोसी सारे।
इनकी आवभगत कर देखे,
      कृत्य सुकृत्य हितैषी मानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।

विपदाएँ अच्छी लगती,
      मेरा एकाकी पन हरती।
श्वाँस रक्त दोनों ही मैने,
      देशधरा की सम्पत्ति मानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।
  
मन में सुख-दुख जोड़ा है,
      दुख ज्यादा सुख थोड़ा है।
दुख में नई प्रेरणा मिलती,
     सुख की सोचें ही  नादानी,
सुख-दुख की बातें बेमानी।
.       ______
बाबू लाल शर्मा,बौहरा

पर्यावरण संरक्षण
.(लावणी छंद १६,१४)

सुनो मनुज इस,अखिल विश्व में,
पृथ्वी पर जीवन कितने।
पृथ्वी जैसे पिण्ड घूमते,
अंतरिक्ष में वे कितने।।

नभ में गंगा , सूरज मंडल,
कैसे,किसने बना दिए।
इतने तारे,चन्द्र, पिण्ड,ग्रह,
उप ग्रह कितने गिना दिए।।

पृथ्वी पर जल वायू जीवन,
और सभी सामान सजे।
सबसे सुन्दर मनुज बना है,
मनु ने कितने साज सृजे।।

ईश सृष्टि और मानव निर्मित,
दृग से दिख रहे आवरण।
चहूँ मुखी है अर्थ समाहित,
मिल कर बने पर्यावरण ।।

मानव विकास के ही निमित्त, 
नित नूतन इतिहास रचें।
इसी दौड़ में  भूल रहे मनु ,
पर्यावरण जरूर बचे।।

पर्यावरण जरूर  संतुलन 
स्वच्छ,स्वस्थ आवरण रहे।
मनु बस मानवता अपनाले,
शुद्ध,सत्य , सदाचरण हो।।

मातप्रकृति ब्रह्माण्ड सुसृष्टा,
कुल संचालन करती है।
सूर्य,  चन्द्र, नक्षत्र,  सितारे,
ग्रह, उपग्रह, सरती है।।

जगमाता का रक्षण वंदन, 
पर्यावरण सुरक्षण  कर।
ब्रह्माण्ड संतुलन बना रहे,
अपना मन संकल्पित कर।

मात् प्रकृति,है माता जननी,
सृष्टा का साम्राज्य चले।
आज अभी संकल्प करे हम,
माता समता रहे भले।।

नीर प्रदूषण, वायु प्रदूषण,
भू प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण।
अमन प्रदूषण,गगन प्रदूषण,
मानव मन, मनो प्रदूषण।

ओजोन पर्त भी भेद रहे,
नितनूतन राकेटो से।
अंतरिक्ष में  भेज उपग्रह,
नभ वन में आखेटों से।।

'ग्रीनहाउस इफेक्ट' चलाते,
तापमान भू का बढ़ता।
ध्रुवक्षेत्रों की बर्फ पिघलती, 
सागर जल थल को चढ़ता।

कहीं बाढ़ है,सूख कहीं है,
कंकरीट के वन भारी।
प्राकृत से यूँ खेल खेलना,
बस हल्की सोच हमारी।।

एटम बम या युद्ध परीक्षण,
नये नये हथियार,खाद।
देश,होड़ से दौड़ मे दौड़े,
नित नित करे विवाद।।

"बीती ताहि बिसारि मनुज" तू
जीवन की तैयारी कर।
पेड़ लगे बचे  पर्यावरण,
संरक्षण तैयारी कर।

पर्यावरण अशुद्ध रहा तो,
जीवन क्या बच पाएगा।
वरना प्यारे, मनुज हमारे,
धरा धरा रह जाएगा।
 .     ____
बाबू लाल शर्मा,बौहरा,

.                      बेटी
                   (दोहा-छंद)
.            ..                         
बेटी सृष्टि  प्रसारणी , जग माया  विस्वास।
धरती पर अमरित रची, काया श्वाँसो श्वाँस।।
.                          
बेटी  जग दातार भी ,यही  जगत आधार।
जग की सेतु समुद्र ये, जन मन देवा धार।।
.                         
बेटी  गुण की खान है, त्याग मान बलिदान।
राज धर्म तन तीन का,सत्य शुभ्र अभिमान।।
.                          
बेटी  व्रत त्यौहार  की, सामाजिक  सद्भाव।
कुटुम पड़ोसी जोड़ती,श्रद्धा भक्ति सुभाव।।
.                         
बेटी यसुदा  मात सम,  कौशल्या सम नेम।
रानी लक्ष्मी सा कहाँ,  जन्मभूमि मन प्रेम।।
.                         
बेटी सब  न्यौछारती, देश  धर्म  हित मान।
पीव पूत भ्राता करे ,जन्म जन्म बलिदान।।
.                          
बेटी धुरी विकास की, कुल की खेवनहार।
देश  धर्म  मर्याद  की, सच्ची  पालन हार।।
.                          
बेटी  हाड़ी  रानियाँ,   चूँड़ावत  सिणगार।
ममतज पन्ना धाय सी, इन्द्रा सी ललकार।।
.                         
बेटी जीजा सम बनो, त्यार करो शिवराज।
मातृभूमि  हित जो बने ,छत्रपति महाराज।।
.                        
बेटी खेजड़ली  चिपक, रचती अमृता रीत।
वन्य वनज रक्षा करें, प्राणी प्राकृत प्रीत।।
.                         
बेटी  रण  रजपूत  की, पद्मनियाँ चित्तौड़।
जौहर मै  कूदे सभी, राज प्राण सब छोड़।।
.                       
बेटी सुर संगीत की, लता सिद्ध  शुभ नाम।
आशा जन मन भारती, सुर संगम सरनाम।।
.                       
बेटी पाल बछेन्दरी, पर्वत पर चढ़ि धाय।
रची  कल्पना चावला, अंतरिक्ष में जाय।।
.                       
बेटी  देश विदेश  में , कंचन  रही  लुटाय।
कुम्भ सुता सीता सरिस, सर्प सरी लहराय।।
.                       
बेटी कर्मेती   रची , जौहर पहले  पीर।
मातृ भूमि  रक्षा  हिते, बना  हुमायू  बीर।।
         ......
बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

.    शबरी के बेर
.      (चौपाई छंद)
त्रेता युग की कहूँ कहानी।
बात पुरानी नहीं अजानी।।
शबरी थी इक भील कुमारी।
शुद्ध हृदय मति शील अचारी।।१

बड़ी भई तब पितु की सोचा।
ब्याह बरात रीति अति पोचा।।
मारहिं जीव जन्तु बलि देंही।
सबरी जिन प्रति प्रीत सनेही।।२

गई भाग वह कोमल अंगी।
वन ऋषि तपे जहाँ मातंगी।।
ऋषि मातंगी ज्ञानी सागर।
शबरी रहि ऋषि आयषु पाकर।।३

मिले राम तोहिं भक्ति प्रवीना।
यही वरदान ऋषि कह दीना।।
तब से नित वह राम निहारे।
प्रतिदिन आश्रम स्वच्छ बुहारे।४

कब आ जाएँ राम दुवारे।
फूल माल सब साज सँवारे।।
राम हेतु प्रतिदिन आहारा।
लाती फल चुन चखती सारा।।५

एहि विधि जीवन चलते शबरी।
कब  आए  प्रभु  राम   देहरी।।
प्रतिदिन जपती प्रीत सुपावन।
बाट जोहती प्रभु की आवन।।६

जब रावण हर ली वैदेही।
रामलखन फिर खोजे तेंही।।
तापस वेष खोजते फिरते।
वन मृग पक्षी आश्रम मिलते।।७

आए राम लखन दोऊ भाई।
शबरी सुन्दर कुटी छवाई।।
शबरी देख चकित भई भारी।।
राम सनेह बात विस्तारी।।८

छबरी भार बेर ले आती।
चखे मीठ फिर राम खवाती।।
अति सनेह भक्ति शबरी के।
खाए बेर राम बहु नीके।।9

शबरी प्रेम भक्ति आदर्शी।
राम सदा भक्तन समदर्शी।।
भाव प्रेम मय शुद्ध अचारे।
जाति वर्ग कुल दोष निवारे।।१०
.            ______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

              सावन
.             (चौपाई छंद)
.          
सावन मास पुनीत सुहावे।
मोर पपीहा दादुर गावे।।
श्याम घटा नभ में घिर आती।
रिमझिम रिमझिम वर्षा भाती।।१

आक विल्व जल कनक चढ़ाकर।
शिव अभिषेक करे जन आकर।।
झूले पींग चढ़े सुकुमारी।
याद रहे मन कृष्ण मुरारी।।२

हर्षित कृषक खेत लख फसले।
उपवन फूल पौध मय गमले।।
नाग पंचमी पर्व मनाते।
पौराणिक दृष्टांत बताते।।३

सर सरिता वन बाग तलाई।
नीर भार  खुशहाली आई।।
प्रियतम से मिलने के अवसर।
जड़ चेतन सब होय अग्रसर।।४

कीट पतंग जीव खग नाना।
पावस ऋतु जन्मे जग जाना।
सावन पावन वर सुखदाई।
भक्ति शक्ति अरु प्रीत मिताई।।५
.          ________
बाबू लाल शर्मा "बौहरा" 

              तिरंगा
.            (चौपाई छंद)
.            
आजादी का पर्व मनालो।
खूब तिरंगा ध्वज पहरालो।।
संगत रक्षा बंधन आया।
भ्रात बहिन जन मन हर्षाया।।१

राखी बाँधो देश हितैषी।
संविधान संसद सम्पोषी।।
राखी बाँध तिरंगा रक्षण।
राष्ट्र भावना बने विलक्षण।।२

जन जन का अरमान तिरंगा।
चाहे बहिन भ्रात हो चंगा।।
रक्षा सूत्र तिरंगा चाहत।
धरा बहिन न होवे आहत।।३

राखी बंधन खूब कलाई।
मान तिरंगे को निज भाई।।
भारत का सम्मान तिरंगा।
अटल हिमालय पावन गंगा।।४

जन जन का है आज चहेता।
शान तिरंगे हित जन चेता।
संगत दोनो पर्व मनाएँ।
राष्ट्र गान ध्वज सम्मुख गाएँ।।५ 

बाँध तिरंगे को अब राखी।
नभ तक लहरा जैसे पाखी।।
शर्मा लिखे छंद चौपाई।
धरा तिरंगा प्रीत मिताई।।६
.            ______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा

         हिन्दी
.            (चौपाई)

भारत मात भाल पर बिन्दी।
भाषा  भूषण   रानी  हिन्दी।।
हिन्द  देश  हर  हिन्दुस्तानी।
चाहत  बोले  हिन्द जुबानी।।१

जन्म  देव  वाणी  से  इसका।
हुआ हस्तिनापुर मेंं जिसका।।
सुगम  पंथ  प्रसरी   प्रभुताई।
हिन्दी जन  जन के मन भाई।।२

देवनागरी  लिखित सुहावन।
लिखते छंद गीत मनभावन।।
सुन्दर  वर्ण  सु  व्यंजन सारे।
करते  बालक   याद  हमारे।।३

रचे ग्रंथ  बहु  भाँति  सुहाई।
गद्य पद्य  दोउ रीत  कहाई।।
कथा कहानी  बात जुबानी।
उपन्यास बहु  रूप रुहानी।।४

एक  राष्ट्र  की  एकल भाषा।
मिटे विवाद यही अभिलाषा।।
प्रादेशिक  भाषा   भी  जाने।
देश   हिते   हिन्दी  पहचाने।।५
.           _______
बाबू लाल शर्मा, बौहरा

 (चौपाई छंद)
.         नारी
.          
नारी  रत्न  अमूल्य  धरा पर।
ईश्वर रूप  सकल सचराचर।।
राम  कृष्ण   जन्माने   वाली।
सृष्टि धर्म की सत प्रतिपाली।।१
.       
बेटी बहिन  मात अरु  दारा।
हर प्रतिरूप मनुज उद्धारा।।
नारी जग परहित तन धारी।
सुख दुख पीड़ा सहे दुधारी।।२
.       
द्वय घर  की सब जिम्मेदारी।
बिटिया वहन करे वह सारी।।
पढ़ी लिखी  जब होती नारी।
दो  दो  घर  बनते  संस्कारी।।३
.       
शान  मान  अरमान हमारी।
सुता बहिन पत्नी माँ नारी।।
त्याग  मान  मर्यादा   मूरत।
हर नारी  के  झलके सूरत।।४
.      
शक्ति  प्रदाता  होती  नारी।
बल पौरुष सर्वस  दातारी।।
देश धरा  अरु धर्म बचाती।
नारी  हर  कर्तव्य निभाती।।५
.     
सृष्टि   चक्र   संबल  महतारी।
विधि ने  रची  धरा सम नारी।।
आदि शक्ति से  मनु तन धारी।
रचे प्रथम नर अरु विधि नारी।।६
.      
नारी  है   हर  नर  की  माता।
मानव  तन  की जीवन दाता।।
देव शक्ति बहु महापुरुष जन।
सृजित  किए  नारी ने जीवन।।७
.       
जीव  जगत में है बहु प्राणी।
नारी  है  जग  में  कल्याणी।।
धीर धरा सम  तन तपशीला।
नारी तन अनुपम प्रभु लीला।।८
.       
मनुज अंश  धारे निज  तन  में।
निज जीवन भय करे न मन में।।
उदर भार  सहती   नौ   महिने।
पीड़ा  प्रसव अपरिमित सहने।।९
.     
नहीं  धरा पर  अस तन त्यागी।
नारि शक्ति जग हित बड़भागी।।
शिशु का  पालन  बहु कठिनाई।
सहज   निभाए   यथा  मिताई।।१०
.      
सबला  बन  कर  रहना नारी।
तव तन शक्ति छिपी है भारी।।
नर नारी  द्वय  रथ  के पहिये।
कर सम्मान  सुखी नर रहिये।।११
.            ______
बाब लाल शर्मा, बौहरा

  (चौपाई छंद)
.     करवा चौथ व्रत 
.     पर नारी  चिंतन
.            
शम्भु प्रिया हे उमा भवानी।
छटा तुम्हारी शिवा सुहानी।।
करवा चौथ मात व्रत मेरा।
करती  पूजन  गौरी  तेरा।।१

चंदा दर्श पिया  सन करना।
मात कामना मम मन धरना।।
रहे अटल अहिवात हमारा।
मिले सदा आशीष तुम्हारा।।२

पति जीवन  हित जीवन अपना।
परिजन सुख चाहत नित सपना।।
रहे   दीर्घ    जीवी    पति देवा।
नित्य करूँ माँ प्रभु की सेवा।।३

जय जय माँ गौरी जग माई।
आज  तुम्हारे  द्वारे  आई ।।
रहूँ  सुहागिन  ऐसा  वर  दे।
घर में खुशियाँ मंगल कर दे।।४

चंद्र चौथ  के  साक्ष्य  हमारे।
पति परमेश्वर प्राण पियारे।।
दर्श तुम्हें फिर नीर चढाकर।
पति सन पावन प्रीत बढ़ाकर।५

सुनती  कथा  पूजती  गवरी।
पति, शशि चौथ दर्श हित सँवरी।।
पति सन बैठ खोलती व्रत को।
जनम जनम पालूँ पति सत को।।६
.             ______
बाबू लाल शर्मा,बौहरा

      कुण्डलियाँ छंद
-                      सहना

सहना सुख का भी कठिन, उपजे मान घमंड!
गर्व  किये  सुख  कब  रहे, हो संतति  उद्दण्ड!
हो   संतति   उद्दण्ड ,चैन   सुख  सारे   खोते!
हो अशांत  आक्रोश, बीज खुद दुख  के बोते!
शर्मा   बाबू   लाल, मीत  दुख  संगत   रहना!
कृपा ईश की मान, मिले जो दुख सुख सहना!

.                        वंदन

वंदन करें किसान का, जय जय वीर जवान!
नमन श्रमिक मजदूर फिर, देश धरा विज्ञान!
देश धरा विज्ञान, लोक शिक्षक कवि सरिता!
सागर  पर्वत  पेड़, पिता  माता  की कमिता!
शर्मा   बाबू  लाल , पूज  शिव - गौरी  नंदन!
गाय  गगन खग नीर, वात  पावक का वंदन!
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बाबू लाल शर्मा,बौहरा

कुण्डलियाँ छंद

.                       जीता
जीता  चेतक, प्राण तज, विजय प्रतापी आन।
विजित अकबरी सैन्य थी, हार गया  वह मान।
हार  गया  वह मान, मुगलिया  मद  सत्ता  का।
भूले क्यों गत युद्ध, खड़ग जय मल पत्ता  का।
हल्दी घाटी "लाल", मुगल कुल कब का  रीता।
राणा   वन्श  महान, शान  से  अब  भी जीता।

                        हारा

हारा  जो  हिम्मत  नहीं, जीता  उसने  युद्ध।
त्याग  तपस्या  साथ  ही, बने  धैर्य से  बुद्ध।
बने  धैर्य  से  बुद्ध, तथागत  जन  दुखहारी।
किया प्राप्त बुद्धत्व,जीत कर भाव विकारी।
शर्मा  बाबू  लाल, हार  मत,  मिले किनारा।
पढ़ो  विगत संघर्ष, धीर जन  कभी न हारा।  
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बाबू लाल शर्मा,बौहरा, विज्ञ

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