विज्ञ, छंद रचनावली ( बुक )

 हिन्दी छंद के लिए- मात्रा ज्ञान 

 भाषा में लेखन व उच्चारण शुद्ध हो -
स्वर-  आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ ये सभी २ गुरु ( गा ) हैं।
 अ,इ,उ,ऋ, १ लघु  ( ल ) है।
व्यंजन - १ लघु मात्रिक- क् ख् ग् .........श् ष् स् ह् ये सभी १ लघु (ल) हैं।
मात्राभार:- अभ्यास के लिए 
(1) अनुनासिक 'चन्द्र-बिंदी' ( ँ ) से वर्ण मात्रा भार में कोई अंतर नहीं आता जैसे- ढँकना ११२
(2) लघु वर्ण पर अनुस्वार ( ं ) के आने से  मात्रा भार २ गुरु हो जाती है। जैसे - गंगा २२ 
(3) गुरु वर्ण पर अनुस्वार( ं ) आने से उसका मात्रा भार पूर्ववत २ ही रहता है जैसे- नींद २१ 
(4).संयुक्ताक्षर :- (क्+ष = क्ष, त्+ र = त्र, ज् +ञ = ज्ञ)  यदि प्रथम वर्ण हो तो उसका मात्रा भार सदैव (लघु) १ ही होता है, जैसे – क्षण ११, त्रिशूल १२१ प्रकार १२१ , श्रवण १११,
(5). संयुक्ताक्षर में गुरु मात्रा के जुड़ने पर उसका मात्रा भार  (गुरु) २  होता है, जैसे–  क्षेत्र २१, ज्ञान २१  श्रेष्ठ २१, स्नान २१, स्थूल २१
(6). संयुक्ताक्षर से पूर्व वाले लघु १ मात्रा के वर्ण का मात्रा भार (गुरु) २ हो जाता है। जैसे- डिब्बा २२, अज्ञान २२१, नन्हा २२,कन्या २२
लेकिन- 'ऋ' जुड़ने पर अंतर नही आता जैसे- अमृत१११,प्रकृति १११, सुदृढ़ १११
(7).संयुक्ताक्षर से पूर्व वाले गुरु २ वर्ण के मात्रा भार में कोई अन्तर नहीं होता है, जैसे-श्राद्ध २१, ईश्वर २११, नेत्र २१,आत्मा २२, रास्ता २२,
(8).विसर्ग ( : ) - लगने पर मात्रा भार २ गुरु हो जाता है जैसे-अत: १२, दु:ख २१,स्वत: १२
(9).अपवाद-
१- यदि 'ह' दीर्घ हो तो-
जैसे-तुम्हारा १२२, कुम्हार१२१, कन्हैया १२२
२. यदि 'ह' लघु हो तो-
कुल्हड़२११, अल्हड़ २११, कन्हड़ २११

 ~ बाबू लाल शर्मा, बौहरा, "विज्ञ"



 .                 " छन्द "
छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है ' आह्लादित " , प्रसन्न होना।
छंद की परिभाषा- 'वर्णों या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। 
छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है।
'छंद के अंग'-
1.चरण/ पद-,-
छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।
चरण २ प्रकार के होते हैं- सम चरण और विषम चरण। 
2.वर्ण और मात्रा -
एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, वर्ण= स्वर + व्यंजन
 लघु १,  एवं गुरु २ मात्रा
3.संख्या और क्रम-
वर्णों और मात्राओं की गणना को संख्या कहते हैं।
लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं।
4.गण - (केवल वर्णिक छंदों के मामले में लागू)
गण का अर्थ है 'समूह'।
यह समूह तीन वर्णों का होता है।
गणों की संख्या-८ है-
यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगण
इन गणों को याद करने के लिए सूत्र-
यमाताराजभानसलगा
5.गति-
छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।
6.यति-
छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर श्वाँस लेने के लिए रुकना पड़ता है,  रुकने के इसी  स्थान को यति कहते हैं।
7.तुक-
छंद के चरणान्त की वर्ण-मैत्री को तुक कहते हैं।
(8). मापनी, विधान व कल संयोजन के आधार पर छंद रचना होती है।
प्रमुख "वर्णिक छंद"-- ,
-- प्रमाणिका, गाथ एवं विज्ञात छंद (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयात, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी १२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला ( १६ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण)
प्रमुख मात्रिक छंद-
सम मात्रिक छंद : अहीर (११ मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार (२८ मात्रा), हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा)।
अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में - १२ मात्रा, सम चरण में - ७ मात्रा), दोहा (विषम - १३, सम - , सोरठा, उल्लाला (विषम - १५, सम - १३)।
विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला)।

~ बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ



शिव- भक्ति गीत

हे नीलकंठ शिव महाकाल,
भूतनाथ हे अविनाशी!
हिमराजा के जामाता शिव,
गौरा के मन हिय वासी!

देवों के सरदार सदाशिव,
राम सिया के हो प्यारे!
करो जगत कल्याण महा प्रभु,
संकट हरलो जग सारे!
सागर मंथन से विष पीकर,
बने देव हित विश्वासी!

भस्म रमाए शीश चंद्र छवि,
 गंगा धारा जट धारी!
नाग लिपटते कंठ सोहते,
संग विनायक महतारी!
हे रामेश्वर जग परमेश्वर,
कैलासी पर्वत वासी!

आँक धतूरे भंग खुराकी,
कृपा सिंधु अवढरदानी!
वत्सल शरणागत जग पालक,
त्रय लोचन अविचल ध्यानी!
आशुतोष हे अभ्यंकर हे,
विश्वनाथ हे शिवकाशी!




: .         मदिरा सवैया
.          ( वर्णिक छंद )
विधान :--
चार चरण
२२ वर्ण प्रति चरण
१०-१२ वर्ण पर यति,
चरणान्त गुरु, 
(२११×७) +२
(भगण×७) +गुरु
चारो चरण समतुकांत !

'पूत - सपूत - कपूत'
पूत  सुता  ममता  समता,
करती सम प्रेम दुलार भले।

संतति  के  हित  जीवटता,
क्षमता तन त्याग गुमान पले।

आँचल  काजल  प्यार  भरा,
शिशु  देय पिशाच बलाय टले।

आज  करे  पद  वंदन  माँ,
पद पंथ निशान पखार चले।
पूत  सपूत  कपूत  बने,
जग मात कुमात कभी न रहे।

आतप  शीत  अभाव  घने,
तन जीवन भार अपार सहे।

संत  समान  रही  तपसी,
निज चाह विषाद कभी न कहे।

जीवन  अर्पण  मात  करे,
तब क्यों अरमान तमाम बहे।



: मत्तगयंद सवैया
.विधान-  भगण × ७ + २ गुरु,
.  १२,११ वर्ण पर यति
( चार चरण सम तुकांत )

.       "देख सपूत भरे पय छाती"     

मात पिता सच संकट मोचन,
शेष सभी  बस  भाव निहारे।
गोकुल ग्वालिन गोधन कानन,
 सावन  आवन  बाट  तिहारे।
प्रीत निभे कब पीर मिटे मन,
आय मिले जिन चित्त विचारे।
नंदन  कानन  धेनु  चरावन,
बाल सखा मन मोह निवारे।

माँ जननी सहती धरती सम,
संतति  के अरमान  सजाती।
पेट रखे महिने वह  नौ तक,
प्राण सहेज,सुआस लगाती।
शीत सहे विपदा घन आतप,
काज सभी घर संग चलाती।
संतति हेतु तजे सुख मारग,
देख सपूत  भरे पय  छाती।

पूत गये जब देश भले हित,
मात  गुमान  समेत बताती।
भारत मात , सुहाग  रहे यह,
बात जुबान अवश्य जताती।
धीर धरा सम  मात सनातन,
शान हमेश,  स्वदेश  बढ़ाती।
मात  कुमात, बने  न  संभव,
पूत  कपूत  जलावत  छाती।

 मदिरा सवैया
विधान-
(सात भगण +गुरु
२ १ १×७ +२
१४,१६,पर यति)

.      "प्रीतम प्रीत"

भंग चढ़े बज चंग रही,
    .             मन शूल उठे मचलावन को।
होलि मचे हुलियार बढ़े,
.                 तन रंग गुलाल लगावन को।
नैन भरे जल बूँद ढरे,
.             पिक कूँजत प्रान जलावन को।
आय मिलो अब मोहि पिया,
.                मन बाँट निहारत आवन को।
.               


प्राण तजूँ परिवार तजूँ,
.                सब मान तजूँ हिय हारत हूँ।
प्रीत करी फिर रीत घटी,
.              मन प्राण पिया अब आरत हूँ।
आन मिलो सजना नत मैं,
.                 विरहातप काय पजारत हूँ।
मीत मिले अगले जनमों,
.               बस प्रीतम प्रीत  सँभारत हूँ।



 किरीट सवैया-विधान
२११×८    भगण× ८
२४ वर्ण,  १२,१२ पर यति
चार पद समतुकांत

'चाह शहादत मानस भारत'

भारत  देश  महान  बने सब,
लोग  निरोग रहे जन भावन।
मेल  मिलाप  रहे  सब धर्मन,
जाति सबै मिल देश बनावन।
सीम सुरक्ष  करे  बल सैनिक,
शत्रु बिसात पड़े कस आवन।
*लाल*  हमार स्वदेश हिते सब,
मानव  मानस  मान  मनावन।

रीत सु प्रीत निभे अपनी बस,
चाह  शहादत  मानस भारत।
आन निभे अरमान निभे सब,
देश  हितैष  निछावर  चाहत।
आज यही बस है मन मे अब,
काज करूँ  मन मानुष राहत।
मानवता  हित जीवन  अर्पण,
दूर  सभी  कर  भारत आरत।

शान  तिरंग सँभाल सकूँ बस,
मान स्वदेश सदा  अपना पन।
जन्म मिले फिर भारत मानुष,
तो बलिदान करूँ अपना तन।
जीवन ज्योति चले मन में बस,
याद शहीद  यही  जपना मन।
देश समाज सुकाज करूँ नित,
भाव  रचूँ  कविता मन भावन।



मत्तगयंद सवैया विधान-
.  भगण × ७ + २ गुरु,
.  १२,११ वर्ण पर यति
( चार चरण सम तुकांत )

                   माँ
.          
ईश्वर  से  पहले   कर   वंदन,
शीश झुका पद आयुष पाना।
रीत निभा पर मानव जीवन,
मंगल  कामन  भाव बनाना।
मात पिता,अपने प्रभु को तुम,
मान  सदा  बस  मान बताना।
भाल सजा कर  भू रज चंदन,
जीवन अर्पण  भी कर जाना।

पावन भारत  भूमि यहाँ पर,
जीवन मानव का मिल जावे।
मंगल  मूरत  मोद  मना  कर,
माँ गुण गान सभी मिल गावे।
माँ अपनी  बस  माँ सबकी यह,
माँ हित भी खुशियाँ मिल पावे।
जीवन कर्ज उतार सके वह,
शीश समर्पण  औसर आवे।

शारद मातु नमामि चहे मन,
भारत माँ  पद  वंदन गाना।
मानवता हित जीवन अर्पण,
मानस  मानव धर्म  निभाना।
देश धरा पर शीश निछावर,
सैनिक वीर  शहीद कहाना।
दीन दुखी निबलो विकलो हित
भाव भरी  कविता  बन जाना।


.         मदिरा सवैया
.          ( वर्णिक छंद )
विधान :--
चार चरण
२२ वर्ण प्रति चरण
१०-१२ वर्ण पर यति,
चरणान्त गुरु, 
(२११×७) +२
(भगण×७) +गुरु
चारो चरण समतुकांत !

                माँ
उत्सव  फाग  बसंत तभी
जब मात महोत्सव संग मने।

जीवन  प्राण  बना  अपना,
तन माँ अहसान महान बने।

दूध  पिये  जननी  स्तन  का,
तन शीश उसी मन आज तने।

धन्य  कहें  मनुजात  सभी,  
जन मातु सुधीर सुवीर जने।
भाव  सुनो  यह  शब्द महा,
जनमे सब ईश सुसंत जहाँ।

पेट  पले  सब  गोद  रहे,
अँचरा लगि दूध पिलाय यहाँ।

मात  दुलार  सनेह  हमें,
वसुधा मिल मात मिसाल कहाँ।

मानस  आज  प्रणाम  करें,
धरती बस ईश्वर मात जहाँ।


. किरीट सवैया-विधान
२११×८    भगण× ८
२४ वर्ण,  १२,१२ पर यति
चार पद समतुकांत
.      
नाचत मोर...

नाचत मोर  धरा  वन सावन,
घोर घटा  नभ  से बरसावन।

बारिश चाहत हो सब के मन,
मोर कहे  बस  मेघ बुलावन।

रंग बिरंग  बिखेर  सु पाँखन,
नाच रहा  मन  मान सुहावन।

देख  रहे  जन  नारि  मयूरिन,
चाहत  है सब  नेह लुभावन।

देखन चाहत  है  सब  के उर,
लागत मोर  सबै  मन भावन।

मोर पखा  अति  सुंदर सोहत,
याद दिलावत कान्ह सुपावन।

आपन   पैर   निहार  मयूरिन,
भावन  अश्रु   रहे  टपकावन।

बूँद  सहेज  पिये  सु  मयूरिन,
प्रीत  सुरीत, सनेह  निभावन।



 मत्तगयंद सवैया

.  भगण × ७ + २ गुरु,
.      (२११×७ +२२)
.  १२,११ वर्ण पर यति
( चार चरण सम तुकांत )

.         मान धरा हित



मान  करे  हम मीत शहादत,
रीत  सु प्रीत  सदा  यश गाएँ।
प्राण दिए उन मात धरा हित,
आज सभी मिल मान बढ़ाएँ।

ईश समान रहे  बन  रक्षक,
मूरत  सुंदर  साज  सजाएँ।
देश धरा यश मान शहादत,
वे परिवार  सभी  अपनाएँ।


पाक अराजकता कर कायर,
मानव  बम्म  दगेे  पुलवामा।
वीर बयालिस भारत भू सुत,
छोड़ गये  परिवार  व वामा।

देश  शहीद  समाज  कहे पर,
वे  भगवान  बसे  सुर  धामा।
आज करे प्रण मान धरा हित,
पावन  मंदिर  मस्जिद जामा।



मनोरम छंद 
विधान-
. मापनी - २१२२  २१२२
चार चरण का छंद है
दो दो चरण सम तुकांत हो
चरणांत में ,२२,या २११ हो
चरणारंभ गुरु से अनिवार्य है
३,१०वीं मात्रा लघु अनिवार्य
मापनी -  २१२२,  २१२२

"देश हित जीना सिखाएँ"

कंठ  मीठे गीत गाना!
आज को करलें सुहाना!
आज  है  तो मानले कल!
वायु  नभ ये अग्नि भू जल!

चेतना  मानव  पड़ेगा!
आज से ही कल जुड़ेगा!
दूर     दृष्टा  सृष्टि  पालक!
काल-कल के चक्र चालक!

आलसी क्यों हो पड़े जन!
आज ही  कल  खो रहे मन!
 रुष्ट   जन मन को   मनाओ!
आज  ही  कल  को  जगाओ!

धर्म पंथी बात छोड़ें।
मोह बंधन रीति तोड़ें।
देश हित जीना सिखाएँ।
गीत यश  साथी लिखाएँ।



 .              कलाधर छंद
.      विधान:- २१ × १५ + गुरु
.     चार चरण समतुकांत

.            हरीतिमा हरी भरी

कैरियाँ अनार आम, कैंत बैंत बाँस ढाक,
वन्य वन्यजीव सर्व , मानवी हिताय है।

आँक पुष्प बिल्वपात,पार्वती व पिण्ड साथ,
वेद भक्त साधु संत , बात ये बताय है।

दूब से गणेश पूज, भाव संग  सौंप देत,
सिद्ध काज होय भक्त,विघ्न को हटाय है।

काट काट पेड़ नित्य,पाप भार धार माथ,
देव तुल्य धीर पेड़ , आदमी सताय है।


पीपली बबूल नीम ,आम जम्बु सागवान,
कैर बेर खेजड़ी व , धौंक जाल पालिए।

पेड़ आदमी समान ,पेड़ मान मानवीय,
ये सजीव जाति प्राण, वायु कोष मानिए।

देय और देय पेड़,लेय नाहिं दाम भाव,    
मानवी हितैष पेड़ , सर्वदात्र जानिए। 

हो धरा हरी भरी,सुवृक्ष रोपि खेत मेड़,
वाटिका व बाग गेह , गेह में लगाइए।
.      ( "जाल़~एक पहाड़ी पेड़" )
.


 .          कुण्डल छंद 
विधान-
२२मात्रिक छंद--१२,१० मात्रा पर यति,
 यति से पूर्व व पश्चात त्रिकल अनिवार्य,
चरणांत में गुरु गुरु (२२)
दो दो चरण समतुकांत हो।
चार चरण का एक छंद कहलाता है।

"छेद डाले भू खेत"

कूप सूख  गए नीर, कृषक हताशे है।
नीर देते  घट आज, स्वयं  पियासे हैं।
नलकूप खोदे  नित्य, धरा रक्त खींचे।
मनुज नीर दोउ मीत,नित्य चले नीचे।

सरिताएँ  डाल  गंद , नीर करें   गंदा।
हे  मनुज  माने  मातु , नदी बुद्धिमंदा।
बजरी निकाली रेत,खेत किये खाली।
फूल  पौधे खा गये, बाग वान  माली।

छेद डाले  भू  खेत, खोद कूप  डाले।
पेड़ नित्य  काट रहे, और नहीं  पाले।
रेगिस्तान  बढ़  रहा, बीत रहा  पानी।
कौन फिर  तेरी सुने, बोल ये कहानी।

रक्षा कर मीत  नीर, जीव जंतु  प्यासे।
सारे जल स्रोत  रक्ष, देख अब  उदासे।
जल बिना जीवन नहीं,सोच बना भाई।
जीवन बचालो  बंधु , बात यह भलाई।
.


कलाधर छंद
विधान-
२१×१५+दीर्घ=३१वर्ण=कलाधर छंद,में चार चरण समतुकांत होते है
.       'शिव महिमा'
.               
शैल पे विराजते हिमाचली शिला प्रभो,
महेश संग पार्वती गणेश विघ्न टाल के।

भूतिया भभूत  अंग  वस्त्र बाघ चाम हैे,
रहे त्रिशूल हाथ शंख कंठ हार ब्याल के।

काल रात्रि मान  पूजते सभी समादरे,  
सुरेश संग में दिनेश देव  भू पताल के।

विल्व पत्र  भोग  दूध  नीर घी दही चढ़ा,
भजे सभी सुकाल चाह मेट काल जाल के। 
.               

गंग की तरंग  शीश चंद्र  की छटा बने,
जटा विशाल नाग संग नंग भूत के रमें।

सिंह पे सवार  साथ नादिया गणेश भी,
महेश संग शैल ही विराजि मात हे रमें।

रोग नाश योग  देय, भोग शोक नाशनी,
निवार पाप शाप को,अजान हूँ करें क्षमें।

ज्ञान दे  सुकाल के विकासमान  काम दे,
सँवार भाग्य योग क्षेम,शील भाव दें हमें।



 पदममाला छंद
विधान-
रगण रगण गुरु गुरु
२१२  २१२  २   २
८ वर्ण, १४ मात्रा
दो दो चरण समतुकांत
चार चरण का एक छंद

"बेटियों वीरता गाओ"

देश  के   गीत  गाने हैं।
भारती   के   तराने  हैं।
भाव  सद्भाव  वे सच्चे।
पालने   प्रेम  से  बच्चे।

सैनिकों के  हितैषी हों।
बेटियाँ मान  पोषी  हो।
नागरी मान  हिंदी  का।
भारती भाल  बिंदी का।

हिंद  के गीत गाऐं जो।
शत्रु के शीश लाऐं जो।
वीर जन्में शिवा  जैसे।
पूत  पालें  सुता   ऐसे।

छंद  गाएँ  जवानों  के।
अन्नदाता किसानों  के।
बेटियों  वीरता   गाओ।
राष्ट्र  में  धीरता लाओ।

देश की शान  बेटी  हो।
राष्ट्र का मान  बेटी  हो।
सृष्टि का सार  बेटी  हो।
ईश  आभार   बेटी  हो।



.           गगनांगना छंद
 विधान-
मापनी मुक्त सम मात्रिक छंद है यह।
१६,९ मात्रा पर यति अनिवार्य चरणांत २१२
दो चरण सम तुकांत,चार चरण का छंद
{सुविधा हेतु चौपाई+नौ मात्रा(तुकांत२१२)}
.                   
"चन्द्र चन्द्रिका अमरित बरसे"

पुण्य  शरद की  पूनम आई, कर ले आरती।
ऋतुसम पवन भाव सुखदाई, धरती भारती।
खावें खीर, बना साथी फिर, कर आराधना।
चंद्र चंद्रिका अमरित बरसे,कर शशि साधना। 
.                       
माँ  कमला  भंडार भरेंगी, पूनम को सखे।
श्री विष्णो के संगत आएँ, पय उनको रखें।
रखो क्षीर अमरित बरसेगा, आधी रात को।
सबसे ही साझी कर लेना, साथी  बात को।
.                      
श्वाँस दमा के रोगी भोगी, खायें खीर जो।
भारत भूमि रही अभिमानी,पायें वीर जो।
चंद्र   किरण   देती  संदेशे, धारो  धीरता।
मात भारती हित बलिदानी, मानो वीरता।
.                       
खीर प्रथम पकवान हमारे, वैदिक काल से।
सभी खिलायें आज  सजाएँ, चंदा थाल से।
भारत की यह रीत पुरानी, सब  पहचानिये।
चंद्र,धरा का नेह मनुज का,  मातुल मानिये।
 .

शिव छंद
 विधान-
.     ११ मात्रिक 
३,६,९,वीं मात्रा लघु अनिवार्य
.     
'सर्व जन समान हो'

रीत प्रीत की निभे।
मीत गीत  गा शुभे।
गर्व   राष्ट्र  गान हो।
मानस  वरदान हो।

लोक तंत्र  भान  हो।
नागरिक सुजान हो।
जय जवान शान हो।
मानस  पहचान  हो।

मानव  अधिकार हो।
चाहत  सरकार   हो।
जय किसान मान हो।
मानस  बलिदान  हो।

आप हम  गले मिले।
सफलता तभी मिले।
भारत   अरमान  हो।
मान जय जवान हो।

शासन   सरकार  में।
कर्म के अधिकार में।
सर्वजन   समान  हो।
शान जय किसान हो।



एकावली छंद 
विधान-
.     (१०मात्रिक छंद)
५,५ मात्रा पर यति
४ चरण का छंद
२,२ चरण समतुकान्त
.    
"कृष्ण सिर रहे धुन'

श्याम घन ,बरषते।
घन श्याम ,हरषते।
ठंड द्वय ,कँप  रहे।
दाँत तक बज  रहे।
नेह छल,बदलिया।
कृष्ण ले,मुरलिया।

चने जब,  खा  रहा।
शीत अति,कह रहा। 
दाँत  बज  रहे  सुन।
कृष्ण सिर, रहे धुन।
रीत  यह,   कन्हैया।
कृष्ण ले , मुरलिया।

छल किया ,छली से।
सखा  कह, बली से।
दर्द   वह, बन  नया।
सालता ,   बढ़ गया।
मीत वह,  भरमिया।
कृष्ण  ले,  मुरलिया।


 शृंगार छंद 
विधान-
१६  मात्रिक  छंद
आदि में ३,२ त्रिकल द्विकल
अंत में २,३ द्विकल  त्रिकल
दो दो चरण सम तुकांत
 चार चरण का एक छंद

'श्रेष्ठ हो मेरा हिन्दुस्तान'

सूर्य  में  तम  को  ढूँढे  पाक।
सिंह  पूतो  पर  थोथी  धाक।
प्रश्न   है  संग   हुए  आजाद।
पाक  पापी न  हुआ आबाद।

रोक क्या सके विकासी गान।
शत्रु  को  सिखलादो ये ज्ञान।
एकता  की  दे  कर आवाज।
तोड़  दो  आतंकों  का  राज।

जोड़ दो मन से मन की तान।
भारती   की  रखनी  है शान।
उच्च हो  ध्वजा  तिरंगा मान।
श्रेष्ठ   हो   मेरा    हिन्दुस्तान।

विघ्न की  नष्ट  करो  प्राचीर।
स्वच्छ हो  नदी  तलाई  नीर।
प्रेम   के  छंद   सनेही   गीत।
काव्य  भी  ऐसा रचना मीत।



.          उडियाना छंद
 विधान-
२२मात्रिक छंद--१२,१० मात्रा पर यति,
 यति से पूर्व व पश्चात त्रिकल अनिवार्य,
चरणांत में गुरु  (२)
दो दो चरण समतुकांत हो।
चार चरण का एक छंद कहलाता है।

.          खोज रहा नीर नेह

वरुण देव  कृपा करे, नीर  पीर  हरिये।
जल से सब जीव बने,जीव दान करिये।
दोहन मनुज ने किया, रहा जल बीत है।
बिन अंबु  कैसे निभे, जीव जग रीत है।
 
जल ने आबाद किया,सत्य सुने कथनी।
जीवन  विधाता बंधु , रीति रही अपनी।
पानी  बर्बाद  किये, भावि  नहीं  बचता।
पीढ़ी अफसोस  रही, कौन कहाँ रमता। 

खोज  रहा  नीर नेह , मान सम्मान को।
खो रहा  है  जो आज,नीर  वरदान को।
सूख  रहे  झील  ताल ,नदी कूप अपने।
युद्ध  से  न  सके  हार, नीर  हार सपने।

सूख  गया  नैन  नीर, पीर  देख   डरते।
सत्य बात  मान  मीत, रीत  प्रीत करते।
सिंधु नीर  बढ़ रहा, स्वाद जो  खार का।
मनुज देख मनुज संग,नेह जल हार का।


.       शक्ति छंद 
विधान-
.        (१८ मात्रिक छंद)
१,६,११,१६ वीं मात्रा लघु हो।
दो दो चरण समतुकांत हो।
चार चरण का एक छंद होता है।
मापनी:- -
१२२   १२२   १२२   १२

'भरे जब घमण्डी घड़ा पाप का'

पड़ोसी पिशाची सबक सीखले।
पिटे सोच पहले अगर चीख ले।
मिेटाना  जरूरी  नशा पाक का। 
भरे जब  घमंडी  घड़ा पाप का।

विनाशी   डराएँ   पटाखे  चला।
विकासी डरे क्यों बताओ भला।
हमारी   बिलाई   मियाऊँ   कहे।
बताओ सखे यों  कहाँ तक सहे।

सुनारी कहे चोट खट खट करे।
लुहारी  करो पाक  झटपट मरे।
भरोे लाल डोरे  निगाहों   सखे।
तभी स्वाद पापी पिशाची चखे।

रहे  देश  मेरा  अमर  कामना।
हमारी  रहेगी  सदा    भावना।
रहे  संविधानी  रिवाजें   वतन।
मिटेंगी उदासी विकासी जतन।
.
: चौपाई छंद विधान: --

चौपाई सममात्रिक छंद है।
इसमें चार चरण होते हैं।
प्रत्येक चरण में १६,१६ मात्राएँ होती हैं।
चरणान्त २२  हो
२२ के विकल्प में ११२, २११,११११ भी मान्य है।
चरणांत में गुरु के बाद लघु (२१) न हो।
कल संयोजन का ध्यान रखें।
*उदाहरण..*
ईश   मनुज  धन  सत्ता  नारी।
२१   १११   ११   २२   २२
शक्ति  सुरा  बहु रूप पुजारी।।
२१     १२  ११  २१   १२२
कविजन लिखे  प्रेम के सागर।
११११    १२    २१  २   २११
प्रेम उलीचे  भरि भरि  गागर।।१
२१   १२२  ११  ११   २११    
इस प्रकार से....लिखें।
 छंद में लय गति का ध्यान रहे।
गाते, गुन गुनाते हुए लिखते रहें। जिससे लय बाधा नहीं रहे। लय बाधा हो तो सुधार व बदलाव करें। जिससे छंद सरस एवं गेय बनेगा। जैसे---
प्रेम---------
प्रेम प्रीति ग्वालिन घट फोड़े।
खा दधि माखन बाँह मरोड़े।।
लोभ छाछ  के नचे कन्हैया।
मोहनि  मोहन  ता ता थैया।।१

ज्यों चाहे कलियाँ दिनकर को।
प्रेम विवश  गोपी  गिरधर को।।
हारे   ज्ञानी   बहुत   सुधारक।
प्रेम  बाण  होते  अति मारक।।२

बाबू लाल शर्मा, बौहरा

 : चौपाई...
.               *भोर*

भोर काल जल्दी उठ भाई!
आलस मत खोवे तरुणाई!!
जग कर नमन करो तुम धरनी!
दूजा नमन पिता अरु जननी।!१

नीर नवाया पी भर लोटा।
श्वाँस कभी मत लेना छोटा!!
शौच क्रिया कर मंजन करना।
तन में आलस कभी न भरना!!२

कसरत योग दौड़ भ्रमणकर!
तन मज्जन कर मसल मसल कर!!
कुछ पल ईष्ट देव को जपना!
ध्यान चित्त वश में कर अपना!!३

आसन बैठ कलेवा करना!
दैनिक जीवन हेतु सँवरना!!
सत्य अहिंसा रखना मन में!
अवगुण दूर रखो जीवन में!!


बाबू लाल शर्मा "बौहरा"

.              हिन्दी
.            (चौपाई)

भारत मात भाल पर बिन्दी।
भाषा  भूषण   रानी  हिन्दी।।
हिन्द  देश  हर  हिन्दुस्तानी।
चाहत  बोले  हिन्द जुबानी।।१

जन्म  देव  वाणी  से  इसका।
हुआ हस्तिनापुर मेंं जिसका।।
सुगम  पंथ  प्रसरी   प्रभुताई।
हिन्दी जन  जन के मन भाई।।२

देवनागरी  लिखित सुहावन।
लिखते छंद गीत मनभावन।।
सुन्दर  वर्ण  सु  व्यंजन सारे।
करते  बालक   याद  हमारे।।३

रचे ग्रंथ  बहु  भाँति  सुहाई।
गद्य पद्य  दोउ रीत  कहाई।।
कथा कहानी  बात जुबानी।
उपन्यास बहु  रूप रुहानी।।४

एक  राष्ट्र  की  एकल भाषा।
मिटे विवाद यही अभिलाषा।।
प्रादेशिक  भाषा   भी  जाने।
देश   हिते   हिन्दी  पहचाने।।५
.           
बाबू लाल शर्मा,

 कुण्डलियाँ छंद
 .                   अविरल
अविरल  गंगा धार है, अविचल हिमगिरि शान!
अविकल बहती नर्मदा, कल कल नद पहचान!
कल कल नद पहचान, बहे अविरल  सरिताएँ!
चली  पिया  के  पंथ,  बनी  नदियाँ   बनिताएँ!
शर्मा  बाबू  लाल, देख  सागर   जल  हलचल!
जल पथ यातायात, सिंधु सरि चलते अविरल!
.                   
कुण्डलियाँ -----     सागर
जलनिधि तू वारिधि जलधि, जलागार वारीश!
सिंधु  अब्धि अंबुधि  उदधि, पारावार   नदीश!
पारावार    नदीश ,  समन्दर    तुम    रत्नाकर!
नीरागार      समुद्र  , पंकनिधि  अर्णव   सागर!
नीरधि   रत्नागार, नीरनिधि  कंपति  बननिधि!
मत्स्यागार पयोधि, नमन तोयधि  हे जलनिधि!
👆 *सागर के 26 पर्यायवाची*
.                   
बाबू लाल शर्मा,बौहरा

कुण्डलिया छंद
              हिन्दी भाषा
.                 १
हिन्दी  हिन्दुस्तान  की, भाषा  मात  समान।
देवनागरी लिपि लिखें, सत साहित्य सुजान।
सत साहित्य सुजान, सभी की है अभिलाषा।
मातृभाष   सम्मान , हमारी  अपनी   भाषा।
सजे भाल पर   लाल, भारती  माँ  के बिन्दी।
भारत  देश  महान, बने   जनभाषा   हिन्दी।
.                २
भाषा संस्कृत  मात से, हिन्दी शब्द प्रकाश।
जन्म हस्तिनापुर हुआ, फैला  खूब प्रभास।
फैला  खूब   प्रभास,  उत्तरी   भारत   सारे।
तद्भव  तत्सम  शब्द, बने   नवशब्द  हमारे।
कहे लाल कविराय, तभी से जन अभिलाषा।
देवनागरी    मान,  बसे   मन  हिन्दी  भाषा। 
.                 ३
भाषा शब्दों का बना, बृहद  कोष  अनमोल।
छंद व्याकरण के बने, व्यापक नियम सतोल।
व्यापक नियम सतोल, सही उच्चारण मिलते।
लिखें पढ़ें अरु बोल, बने अक्षर ज्यों खिलते।
कहे  लाल  कविराय, मिलेगी सच  परिभाषा।
हर   भाषा   से   श्रेष्ठ, हमारी  हिन्दी  भाषा। 
.                 ४
भारत भू  भाषा भली, हिन्दी  हिंद हमेश।
सुंदर लिपि से सज रहे, गाँव नगर परिवेश।
गाँव नगर परिवेश, निजी हो या  सरकारी।
हिन्दी हित  हर कर्म, राग अपनी  दरबारी।
कहे  लाल   कविराय, विरोधी  होंगें गारत।
कर हिन्दी का मान, श्रेष्ठ तब होगा भारत।
.                 ६
 हिन्दी  सारे  देश  की,  एकीकृत  अरमान।
प्रादेशिक  भाषा  भले, प्रादेशिक  पहचान।
प्रादेशिक पहचान, सभ्यता संस्कृति वाहक।
उनका अपना मान, विवादी  बकते  नाहक।
शर्मा  बाबू    लाल , सजे  गहनों  पर बिन्दी।
प्रादेशिक  हर  भाष, देश की  भाषा हिन्दी।
.                 ७
वाणी देवोंं की कहें, संस्कृत संस्कृति शान।
तासु सुता हिन्दी अमित, भाषा हिंदुस्तान।
भाषा  हिंदुस्तान, वर्ण  स्वर  व्यंजन प्यारे।
छंद मात्रिका ज्ञान, राग रस लय भी न्यारे।
गयेे शरण में   लाल, मातु पद वीणा पाणी।
रचे अनेकों ग्रंथ, मुखर कवियों की वाणी।
.                 ८
दोहा   चौपाई    रचे,  छंद   सवैया    गीत।
सजल रुबाई भी हुए, अब हिन्दी मय मीत।
अब हिन्दी मय मीत, प्रवासी जन मन धारे।
कविताई  का  भाव, भरें  ये कवि जन सारे।
हो  जाता है  लाल,  तपे  जब  सोना  लोहा।
तुलसी रहिमन  शोध, बिहारी कबिरा दोहा।
.            
बाबू लाल शर्मा,"


: नवगीत - मन वीणा झंकृत हो जाए

एक गीत ऐसा मैं लिख दूँ,
मन वीणा झंकृत हो जाए।
नाच उठे तन पाखी बन के
कर्कश कंठ मधुर रस गाए।।

मेरे मन के कलुष भाव सब
मेघ घटा बन नेहिल घुमड़े
पर्वत जैसी पीर पिघल कर
नेह नीर नदिया बन उमड़े
कटु अनुभव मन हँडिया रीते
अनुभव सुखद समा हरषाए।

छंद ज्ञान कविताई भूलूँ
केवल ताल हृदय की सुन लूँ
बंद कक्ष में मन की वीणा
होंठ हिला मानस की धुन लूँ
दंत जीभ का रास रचे तब
दीवारें छत कान लगाए।

रीत प्रीत मय भूल मिताई
स्वयं सिद्ध मानवता गाऊँ
सुनू सुनाऊँ नहीं किसी को
मन वीणा के तार हिलाऊँ
तन की नाड़ी हृदय टटोलूँ
आँखे सुखद स्वप्न बरषाए।
नाच उठे..................


नवगीत - संस्कारों की करते खेती

बीज  रोप  दे  बंजर में कुछ,
यूँ  कोई  होंश  नहीं   खोता।
जन्म जात  बातें  जन सीखे,
वस्त्र कुल्हाड़ी से कब धोता।

संस्कृति  अपनी  गौरवशाली,
संस्कारों  की   करते   खेती।
क्यों हम उनकी नकल उतारें,
जिनकी संस्कृति  अभी पिछेती।
जब जब अपने फसल पकी थी,
पश्चिम रहा खेत ही बोता।
बीज.......................।।

मातृभूमि माता सम मानित,
शरणागत  हित  दर  खोले।
जब जब  विपदा भू मानव पर,
तांडव कर शिव बम बम बोले।
गाय मात  सम  मानी  हमने,
राम कृष्ण हरि कहता तोता।

जगत गुरू पहचान हमारी,
कनक विहग  सम्मान रहा।
पश्चिम की  आँधी में साथी,
क्यूँ तेरा मन बिन नीर बहा।
स्वर्ग तुल्य भू,गंगा हिमगिरि,
मन के पाप व्यर्थ क्यूँ ढोता।


नवगीत - सूरज उगने वाला है

मीत यामिनी ढलना तय है,
कब लग पाया ताला है।
चीर तिमिर की छाती को अब,
सूरज उगने वाला है।।

आशाओं के दीप जले नित,
विश्वासों की छाँया मे।
हिम्मत पौरुष भरे हुए है,
सुप्त जगे हर काया में।
जन मन में संगीत सजे है,
दिल में मान शिवाला है।

हर मानव है मस्तक धारी,
जिसमें ज्ञान भरा होता।
जागृत करना है बस मस्तक,
सागर तल जैसे गोता।
ढूँढ खोज कर रत्न जुटाने,
बने शुभ्र मणि माला है।

सत्ता शासन सरकारों मे,
जनहित बोध जगाना है।
रीत बुराई भ्रष्टाचारी,
सबको दूर भगाना है।
मिले सभी अधिकार प्रजा को,
दोनो समय निवाला है।


नवगीत - मेरा भारत देश महान

पाटी पर खड़िया से लिख दूँ
मेरा भारत देश महान।
पढ़ लिख कर मैं कवि बन गाऊँ
भारत माता के गुणगान।।

बाबा चिन्ता मत कर मेरी
लौटेंगे बीते दिन रीत
दिनकर बनकर गीत लिखूँगा
छंद लिखूँगा माँ की प्रीत
गाएँगे सब शाम सवेरे
ऐसी लिखूँ तिरंगा तान।

याद मात की मुझे रुलाती
तुमको भी आती है याद
पढूँ लिखूँ घर उन्नत होगा
तभी मिटेंगे मनो विषाद
हुलसी के तुलसी सा हूँ मै
लिख दूँगा  नूतन विज्ञान।

रीति प्रीति की बात लिखूँ सब
केशव से कविताई छंद
देश धरा की लिखूँ वंदना
मन के सपने जीवन द्वंद
माँ का विरह, त्याग बापू का
निज मन का लिख दूँ अज्ञान।
गाएँगे......


गीत -  प्रीत सरसे

नेह की सौगा़त पाई
लग गया मन खिलखिलाने!

ऋतु सुहानी सावनी में
पवन पुरवाई चली है‌!
मेघ छायाँ कर रहे ज्यों,
भीगते आँगन गली है!
मोर वन मन नाचते है
फिर चले कैसे बहाने।

गंध तन की भा रही ज्यों,
गंध सौंधी सावनी सी!
नेह बरसे प्रीत सरसे
खेत में मन भावनी सी!
दामिनी दमकी, प्रिया भी
लिपट लगि साँसे बजाने!

तितलियों को देखता मन
कल्पना में उड़ रहा था!
भ्रमर गाता तन सुलगता
मेह रिमझिम पड़ रहा था!
पृष्ठ से दो हाथ आए
बँध गये बंधन सुहाने‌!


नवगीत - गोरी दर्पण देख रही है

नयन सीप से, दाड़िम दंती,
अधर  पंखुरी, खोल सही।
मन  मतवाली  रेशम  चूनर
गोरी .. दर्पण  देख  रही ।।

झीनी चूनर बणी ठणी सी
 नयन  कटोरी  कजरारी 
चिबुक सुहानी, नागिन वेणी
कटि  तट  झूमर  शृंगारी
मोहित हो जाए दर्पण भी
 पछुआ शीतल श्वाँस बही
अधर.....................।।

माँग सजी मोती से अनुपम
नथ टीका कुण्डल चमके
जल दर्शी  है कंठ  सुकंठी
कंठहार झिल मिल दमके
दर्पण क्या प्रति उत्तर देगा
मन मानस में खड़ग गही।

कंगन चूड़ी  हिना प्रदर्शित
छिपा कभी यौवन अँगिया
लाल गुलाबी नील वर्ण में
यौवन वन महके बगिया
शायद मन नवनीत तुम्हारा
तन की चाहत मथन दही।


नवगीत - प्रीत शेष है मीत धरा पर

प्रीत शेष है मीत धरा पर
रीत  गीत  शृंगार  नवल।
बहे  पुनीता  यमुना  गंगा
पावन  नर्मद  नद निर्मल।।

रोक सके कब बंधन जल को
कूल किनारे टूट बहे
आँखों से जब झरने चलते
सागर का इतिहास कहे
पके उम्र के संग नेह तब
नित्य खिले सर मनो कमल।
प्रीत..........................।।

सरिताएँ सागर से मिलती
नेह नीर की ले गगरी
पर्वत पर्वत बाट जोहता
नेह सजा बैठी मँगरी
धरा करे घुर्णन परिकम्मा
दिनकर प्रीत पले अविरल।

संग तुम्हारे मैं गाऊँ अब,
तुम भी छंद लिखो मन से
बनूँ राधिका मुरली धर तुम
लिपट रहूँ मानस तन से
रख मन चंगा घर में गंगा
हुए केश शुभ शुभ्र धवल।



:नवगीत - कसमसाई अप्सरा भी

बादलो ने ली अंगड़ाई,
खिलखलाई यह धरा भी!
हर्षित हुए भू देव सारे,
कसमसाई अप्सरा भी!

कृषक खेत हल जोत सुधारे,
बैल संग हल से यारी !
गर्म जेठ का महिना तपता,
विकल जीव जीवन भारी!
सरवर नदियाँ बाँध रिक्त जल,
बचा न अब नीर जरा भी!
बादलों ...................।।

घन श्याम वर्णी हो रहा नभ,
चहकने खग भी लगे हैं!
झूमती पुरवाई आ गई,
स्वेद कण तन से भगे हैं!
झकझोर झूमे पेड़ द्रुमदल,
चहचहाई है बया भी!

जल नेह झर झर बादलों का,
बूँद बन कर के टपकता!
वह आ गया चातक पपीहा,
स्वाति जल को है लपकता!
जल नेह से तर भीग चुनरी,
रंग आएगा हरा भी!



नवगीत - प्रीत की बाजी कसूरी

कल्पना यह  कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।
गया भूल भी  मधुशाला,
वह  गुलाबी मद सरूरी।

सो  रही है भोर अब यह,
जागरण हर यामिनी को।
प्रीत की ठग रीत बदली,
ठग रही है स्वामिनी को।
दोष  देना  दोष  है  अब,
प्रीत  की  बाजी  कसूरी।
कल्पना ..................।।

प्रीत  भूले  रीत  को जब, 
मन भटक जाता हमारा।
भूल  जाता  गात कँपता,
याद कर निश्चय तुम्हारा।
सत्य को पहचानता मन,
जगत  की  बाते फितूरी।

उड़ रहा खग नाव सा मन,
लौट कर आए  वहीं पर।
सोच लूँ मन मे भले सब,
बात बस मन में रही हर।
प्रेम घट  अवरोध  जाते,
हो  तनों  मन में  हजूरी।



 नवगीत - हारे जीत      
  
पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!
लम्बी विकट  रात बिन नींदे, पुरवा शीत!

लगता जैसे बीत गया युग, प्यार किये!
जीर्ण वसन हो बटन टूटते, कौन सिँए!
मिलन नहीं भूले से  अब तो, बिछुड़े मीत!

याद रहीं बस याद तुम्हारी, भोली बात!
बाकी तो सब जीवन अपने, खाए घात!
कविता छंद भुलाकर लिखता, सनकी गीत!

नेह प्रेम में रूठ  झगड़ना, मचना शोर!
हर दिन ईद दिवाली जैसे, जगना भोर!
हर निर्णय  में  हिस्सा किस्सा, हारे जीत!

याद  सताती  तन  सुलगाती, बढ़ती पीर!
जितना भी मन को समझाऊँ, घटता धीर!
हुआ चिड़चिड़ा जीवन सजनी,नैन विनीत!

प्रीत रीत  की  ऋतुएँ  रीती, होती साँझ!
सुर सरगम मय तान सुरीली, बंशी बाँझ!
सोच अगम पथ प्रीत पावनी, मन भयभीत!

सात जन्म का बंधन कह कर, बहके मान!
आज अधूरी  प्रीत रीत  जन, मन पहचान!
यह जीवन तो  लगे प्रिया अब, जाना बीत।



 नवगीत - पत्थर दिल कब पिघले

लता लता को खाना चाहे,
कली कली को निँगले!
शिक्षा के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों को निँगले!

सत्य बिके नित चौराहे पर,
गिरवी आस रखी है
दूध दही घी डिब्बा बंदी,
मदिरा खुली रखी है!
विश्वासों की हत्या होती,
पत्थर दिल कब पिघले!

गला घुटा है यहाँ न्याय का,
ईमानों का सौदा!
कर्ज करें घी पीने वाले
चाहे बिके घरौंदा!
होड़ा होड़ी मची निँगोड़ी,
किस्से भूले पिछले!

अण्डे मदिरा मांस बिक रहे,
महँगे दामों ठप्पे से!
हरे साग मक्खन गुड़ मट्ठा,
गायब चप्पे चप्पे से!
पढ़े लिखे ही मौन मूक हो,
मोबाइल से निकले!



 नवगीत - आज पंछी मौन सारे

देख कर मौसम बिलखता
आज पंछी मौन सारे
शोर कल कल नद थमा है
टूटते  विक्षत  किनारे।।

विश्व है बीमार या फिर
मौत का तांडव धरा पर
जीतना है युद्ध नित नव
व्याधियों का तम हरा कर
छा रहा नैराश्य नभ में
रो रहे मिल चंद्र तारे।

तितलियाँ लड़ती भ्रमर से
मेल फुनगी से ततैया
ओस आँखो की गई सब
झूठ कहते गाय मैया
प्रीति की सब रीत भूले
मीत धरते शर करारे।

राज की बातें विषैली
गंध मद दर देवरों से
बैर बिकते थोक में अब
सत्य ले लो फुटकरों से
ज्ञान की आँधी रुकी क्यों
डूबते जल बिन शिकारे।
देख कर...................।।



: नवगीत - छीन लिए सब गड़े दफीने

धरा गाल हँसते हम देखे,
जल कूपों मय चूनर धानी।
घाव धरा तन फटी बिवाई
मानस अधम सोच क्यूँ ठानी।।

शस्य श्यामला कहते जिसको
पैंड पैंड पर पेड़ तलाई
शेर दहाड़ें, चीतल हाथी
जंगल थी मंगल तरुणाई
ग्रहण लगा या नजर किसी की,
नूर गये माँ लगे रुहानी
धरा गाल हँसते ..........।।

वसुधा को माता कह कह कर
छीन लिए सब गड़े दफीने
श्रम के साये ढूँढ रहे अब
छलनी हो नद पर्वत सीने
कैसे कब तक सह पाएगी
धरा मनुज की यह मनमानी
धरा गाल हँसते.......,।।

गला घोटते सरिताओं का
बाँध बना जल कैद किया है
कंकर रेत निकाल गर्भ से
पर्वत पर्वत चीर दिया है
धरा रक्त को चूस बहाया 
रहा नही आँखों में पानी।



: नवगीत -  इक शिखण्डी चाहिए

पार्थ जैसा हो कठिन,
व्रत अखण्डी चाहिए।
आज जीने के लिए,
इक शिखण्डी चाहिए।।

देश अपना हो विजित,
धारणा ऐसी रखें।
शत्रु नानी याद कर,
स्वाद फिर ऐसा चखे।
सैन्य हो अक्षुण्य बस,
व्यूह् त्रिखण्डी चाहिए।

घर के भेदी को अब,
निश्चित सबक सिखाना।
आतंकी अपराधी,
को आँखे दिखलाना।
सुता बने लक्ष्मी सम,
भाव चण्डी चाहिए।

सैन्य सीमा मीत अब,
हो सुरक्षित शान भी।
अकलंकित न्याय रखें,
सत्ता व ईमान भी।
सिर कटा ध्वज को रखे,
तन घमण्डी चाहिए।





कुण्डलिया छंद- उद्धव
भँवरे  उद्धव  निर्गुणी, देते  क्या  उपदेश।
देश  वेष  गोपाल  का, बासन्ती  परिवेश।
बासन्ती  परिवेश, सगुण है  प्रीत  सनेही।
अली कली हरि नेह,बसे मन सुन निर्मोही।
शर्मा  बाबू  लाल, भजे हरि जीवन  सँवरे।
मत भरमा मन मीत, करें हरि दर्शन भँवरे।
ज्ञानी  बन  उद्धव  गये, ज्ञान  बाँटने भृंग।
प्रेम  सनेही  गोपियाँ, चढ़े  न  उद्धव  रंग।
चढ़े न उद्धव रंग, मधुप गुंजार  पराजित।
हृदय गोपियन प्रेम,रहे है कृष्ण विराजित।
कहे लाल कविराय, पराजय ऊधो  मानी।
बासंती  ऋतु  प्रीत, टिके  न  कोई  ज्ञानी।




रोला छंद - गीता के उपदेश
गीता के उपदेश, पार्थ को कृष्ण सुनाते।
अर्जुन त्यागो मोह, सभी तो आते जाते।
रिश्ते  नाते  नेह, सभी जीवित  के  नाते।
मृत्यु सत्य सम्बंध, साथ नही  कोई पाते।
क्या लाए थे साथ, नहीं  लेकर  कुछ  जाना।
अमर आत्म पहचान, लगे बस जाना आना।
सभी ईश मुख जाय, निकलते सभी वहाँ से।
करते  रहो  सुकर्म, ईश  दें सुफल  यहाँ  से।
लगे  धर्म  को हानि, अवतरे ईश धरा पर।
संतो  हित  सौगात, मरे सब दुष्ट सरासर।
उठो पार्थ तत्काल, धर्म हित करो  लड़ाई।
करो  पूर्ण  कर्तव्य, भावि  में  मिले बड़ाई।
धरा   मिटे   संताप,  अधर्मी  पापी  मारो।
सत्य  धर्म हित  मान, कौरवी  दल संहारो।
समझो सब को मर्त्य,मिले अमरत्व मनुजता।
सृष्टि चक्र सु विचार,मिटे बल सोच दनुजता।



भाई दूज - कुण्डलिया छंद 
.     १                 
चलती रीति सनातनी, पलती प्रीत विशेष!
भाई बहिना दोज पर, रीत  प्रीत  परिवेश!
रीत प्रीत  परिवेश, हमारी  संस्कृति न्यारी!
करे तिलक इस दूज,बंधु को बहिनें प्यारी!
शर्मा  बाबू लाल, सुहानी  संस्कृति पलती!
राखी  भैया  दूज, रीति  भारत  में चलती!
.     २                   
मीरा  जैसी  हो  बहिन, ऐसा  हो  अरमान!
बहिन चाहती है  सदा, भ्राता  कृष्ण समान!
भ्राता कृष्ण समान,रखे सुख दुख में समता!
मात पिता सम प्यार, रखे जो सच्ची ममता!
शर्मा  बाबू  लाल, बहिन  सब  चाहत  बीरा!
मिलते सब सौभाग्य, सभी को बहिना मीरा!
(बीरा~भाई)
.       ३              
भैया , भैया   दूज   पर, ले  भौजाई   संग!
मेरे  घर  आजाइयो, चाहत   मनो   विहंग!
चाहत  मनो विहंग, याद  पीहर  की आती!
कर बचपन की याद,आज भर आई छाती!
शर्मा  बाबू  लाल, बहिन  अरु  गैया, मैया!
रख  तीनों  का  मान, दूज पर  प्यारे भैया!



लावणी छंद, (१६,१४ मात्रिक)
  ....नमन करूँ

बने नींव की ईंट श्रमिक जो, बहा श्वेद मीनारों में।
स्वप्न अश्रु मिलकर गारे में,अरमानी दीवारों में।
बिना कफन बिन ईंधन उनका,बोलो कैसे दहन करूँ
श्रम पूजक श्रम जीवी जन के,बहे श्वेद को नमन करूँ।

जो धनबल पद के कायल है,उन हित क्यों मैं जतन करूँ।
शोषण के साधक है वे सब,उनको क्योंकर नमन् करूँ।
गाँठ गठान हथेली में हो,उन हाथों का जतन् करूँ।
जिनके पैरों छाले पड़ते,उनके चरणों नमन करूँ।

वे जो श्रम के सत्साधक है,कुल जिनके श्रमचोर नहीं।
तन के मोही वतन भुला दें,इतने जो कमजोर नहीं।
स्वेद बिन्दु से देश को सींचे,उन्हे सलामे-वतन करूँ।
जिनके पैरों फटे बिवाई,उनके चरणो नमन  करूँ।

सीमा पर जो शीश कटाते, वे     सच्चे अवतारी है।
उनके हर परिजन के हम भी,सच्चे दिल आभारी  हैं।
जिनके रहते,वतन सुरक्षित,उन बेटों को नमन करूँ।
जिनके पैर ठिठुरते जलते,उनके चरणों नमन करूँ।

शिक्षा के जो दीप जलाकर,तम  को दूर भगाते हैं।
सत्साहित् का सृजन करे नित,नूतन देश बनाते हैं 
देश प्रेम पावक के लेखक,जन शिक्षक पदनमन् करूँ।
जन गण मन की पीड़ा गाते,उनके चरणो नमन करूँ।

सर्दातप को सहा जिन्हौने,जन के खातिर अन्न दिया
तन का रूप रंग सब खोया,नंग बदन भू पूत जिया।
भिंचे पेट के उन दीवाने,धीर कृषक को नमन करूँ।
जिनके पैरों छाले पड़ते,उनके  चरणों नमन करूँ।




करवा चौथ-कुण्डलिया छंद
चौथ  व्रती  बन  पूजती, चंदा  चौथ  चकोर।
आज सुहागिन सब करें,यह उपवास कठोर।
यह   उपवास  कठोर , पूजती   चंदा  प्यारा।
पिया जिए सौ साल, अमर अहिवात हमारा।
कहे लाल कविराय, वारती  जती  सती बन।
अमर रहे  तू चाँद, पूजती   चौथ  व्रती  बन।
चंदा  साक्षी  बन  रहो, पावन   प्रेम   प्रसंग।
मै पति की प्रणपालिनी, आजीवन प्रियसंग।
आजीवन  प्रिय संग, निभे  प्रण प्रेम हमारा।
जीवन  हो  आदर्श, करूँ व्रत  सदा तुम्हारा।
कहे लाल कविराय, भाव हो  कभी  न मंदा।
मात   पार्वती   पूज, पूजती   तुमको   चंदा। 
गौरा शिव के साथ  है, गंग धार शिव केश।
चंद्र छटा  शिव शीश पर, हे  राकेश  महेश।
हे   राकेश   महेश, आपकी  प्रिया  मनाऊँ।
गौरी सम  अहिवात, कामना मन  में  पाऊँ।
कहे लाल कविराय, चौथ  व्रत करें निहौरा।
पूजन  करवा  चौथ, भावना   पूरित  गौरा।
जामाता  गिरिराज  के, गंग  बहिन  भरतार।
विघ्न विनाशक के पिता,जनपालक करतार।
जन  पालक  करतार, सुहागी   गौरी  माता।
सत्य अमर अहिवात, मुझे भी मिले विधाता।
कहे  लाल कविराय, चौथ  करवा  व्रत दाता।
आज चंद्र की साक्ष्य, सुनों गिरि के जामाता।



 कुण्डलिया छंद - शरद ऋतु
सर्दी  का  संकेत  हैं, शरद  पूर्णिमा  चंद्र।
कहें  विदाई मेह को, फिर आना  हे  इन्द्र।
फिर आना हे  इंद्र, रबी का मौसम आया।
बोएँ फसल किसान, खेत मानो हरषाया।
शर्मा  बाबू   लाल, देख   मौसम   बेदर्दी।
सहें ठंड की  मार, जरूरत  भी  है  सर्दी।
मौसम सर्दी का हुआ, ठिठुरन  लागे पैर।
बूढ़े  और  गरीब  से, रखती   सर्दी  बैर।
रखती सर्दी  बैर, सभी  को खूब सताती।
जो होते कमजोर,उन्हे ये आँख दिखाती।
कहे  लाल कविराय, यही तो ऋतु बेदर्दी।
चाहे वृद्ध गरीब, आय  क्यों मौसम सर्दी।
गजक पकौड़े रेवड़ी, मूँगफली अरु चाय।
ऊनी  कपड़े  पास हो, सर्दी मन को भाय।
सर्दी  मन  को  भाय, रजाई कम्बल  होवे।
ऐसी   बंद   मकान, लगा  के हीटर  सोवे।
कँपे  गरीबी  हाड़, लगे  यों  शीत  हथौड़े।
रोटी नहीं नसीब,कहाँ फिर गजक पकौड़े।
ढोर  मवेशी  काँपते, कूकर बिल्ली मोर।
बेघर, बूढ़े  दीन  जन, घिरे  कोहरे  भोर।
घिरे  कोहरे  भोर, रेल बस टकरा जाती।
दिन में  रहे अँधेर, गरीबी तब  घबराती।
सभी जीव बेहाल, निर्दयी शरद कल़ेशी।
जिनके नहीं मकान,मरे जन ढोर मवेशी।



 कुण्डलिया छंद -विजय
जग में  जय  या  हार  का, होता  अन्तर्द्वन्द।
इनसे  जो  ऊपर  उठा , उसे  कहो   निर्द्वन्द।
उसे  कहो निर्द्वन्द, विजय जो  मन पर  पावे।
विजय कहें ये मान, जीत आवगुण को जावे।
कहे लाल कविराय, पड़े   बाधा  यह मग में।
करते  युद्ध विनाश  ,बने घातक इस जग में।
जीता चेतक प्राण तज,विजय प्रतापी आन। 
विजित अकबरी सैन्य थी,हार गया था मान।
हार गया था मान, मुगलिया  मद  सत्ता  का।
भूले  लोहा  याद, भला  जय मल पत्ता  का।
कहे लाल  कविराय , वंश मुगलों  का  रीता।
राणा आन  महान, शान  से अब भी  जीता।


 कुण्डलिया छंद 
.                   सरदार पटेल
.                          1
वल्लभ  भाई  थे यहाँ, भारत के  सरदार।
एकीकरण स्वदेश कर, बना नई सरकार।
बना  नई   सरकार, हटा  देशी   रजवाड़े।
भारत  के  हर  क्षेत्र, तिरंगे   झण्डे  गाड़े।
कहे लाल  कविराय,देश  से प्रीत निभाई।
भारत माँ  का  पूत, सनेही  वल्लभ भाई।
.                        2
आजादी   के  दौर  में , नेता   हुए  हजार।
वल्लभ , नेहरु  जी   रहे, दोनो  दावे  दार।
दोनो  दावे  दार , देश  हित सहज गुमानी।
नेहरु  बने प्रधान , साथ वल्लभ  से ज्ञानी।
गृह  मंत्रालय देख, वतन की शान बढ़ा दी।
भारत किया अखण्ड,रखी सच्ची आजादी।
.                      3
देशी राजा विलय कर, बना दिया नव देश।
वल्लभ  भाइ  पटेल जी , ऐसे  थे  दर वेष।
ऐसे  थे  दरवेष, अखण्डित  भारत  कीना।
उनका  था  संकल्प, देश हित मरना जीना।
कहे लाल कविराय, करे  कब होड़ विदेशी।
मिला लिए निज देश, सभी वे  राजा देशी।



होली बाद - कान्हा - राधा- कुण्डलिया छंद्
राधा से कान्हा कहे, अब होली  के बाद।
अब भी अपने देश में, होली  है  आबाद।
होली  है आबाद, रिवाजें     बहके बदले।
प्रीत नेह व्यवहार,लगे मन मानस  गदले।
शर्मा  बाबू लाल, गऊ क्यों लगती बाधा।
तरु कदम्ब की छाँव,कहे मुस्काती राधा।
राधा मुस्काती कहे, सुन  लो गोपी नाथ।
कहाँ गई वे गोपियाँ,ग्वाल गाय का साथ।
गाय ग्वाल का साथ, रहे न मीत  मिताई।
जन मानवता भूल, हितैषी  प्रीत  जताई।
शर्मा बाबू लाल,मनुज मन ही बस बाधा।
होली रह गई याद,कहानी कान्हा - राधा।



 रीत प्रीत मनुहार- कुण्डलिया छंद

हरियाली  हर  हार में, पावस  की  मनुहार।
प्रिये मिलन उपहार है,  झूलन  का त्यौहार।
झूलन  का त्यौहार, सखी सब  संगत झूले।
पिय हिय की कर बात, मोद मन ही मन फूले।
कहे लाल कविराय, बसत  हिय में वनमाली।
सखियाँ समझें और, बसे हरिमन हरियाली।

सावन की शुभ तीज है,आए प्रिय भरतार
मन चाही मन  की  हुई ,रीत प्रीत मनुहार।
रीत  प्रीत मनुहार, लहरिया साजन लाए।
चूड़े  अजब  सिँगार, सिँजारे  घेवर  आए।
कहे लाल कविराय, भले नित ऐसे पावन।
शिव गौरी श्रृंगार, कान्ह राधे  ज्यों सावन।

भादौ,राखी माह में, पिय सनेह बढ़ि अाय।
रीत प्रीत मनुहार करि, पीहरिये मत जाय।
पीहरिये मत जाय,खुशामद सब ही करते।
राखी  देओ  भेज, तर्क  सब  अपने  धरते।
लाल  लहरियो लाय,  लड़ावे  राधा  माधव।
घर  बाहर  मत  जाय, बधूटी  वर्षा  भादव।

पावस मेल मिलाप की , पशु  पक्षी इन्सान।
प्रिय मिलन की आस में,पाले जनि अरमान।
पाले  जनि अरमान , प्राणि नर हो या मादा।
लता चढ़े तरु जाय, जीव जनि तज मर्यादा।
लाल   गुलाबी  रंग , पके फल गौरी तामस।
रीत--प्रीत--मनुहार , मनालो अपने  पावस।



 आतंकवाद एक खतरा ( लावणी छंद )

खतरा बना आज यह भारी,विश्व प्रताड़ित है सारा।
देखो कर लो गौर मानवी, मनु विकास इससे हारा।
देश  देश में  उन्मादी  नर, आतंकी  बन  जाते हैं।
धर्म वाद आधार बना कर, धन दौलत पा जाते हैं।

भाई चारा  तोड़  आपसी, सद्भावों  को  मिटा  रहे।
हो,अशांत परिवेश समाजी,अपनों को ये पिटा रहे।
भय आतंकवाद का खतरा, दुनिया में  मँडराता है।
पाक पड़ौसी इनको निशदिन,देखो गले लगाता है।

मानवता के  शत्रु बने ये,जो खुद के भी सगे नहीं।
कट्टरता  उन्माद  खून  में, गद्दारी  की  लहर बही।
बम विस्फोटों से बारूदी,करे धमाके नित नाशक।
मानव बम भी यह बन जाते, आतंकी ऐसे पातक।

अपहरणों की नित्य कथाएँ, हत्या लूट डकैती की।
करें तस्करी चोरी करते, आदत जिन्हे फिरौती की।
मादक द्रव्य रखें, पहुँचाए, हथियारों के नित धंधे।
आतंकी  उन्मादी  होकर, बन जाते  है  मति अंधे।

रूस चीन जापान ब्रिटानी,अमरीका तक फैल रहे।
भारत की स्वर्गिक घाटी में,देखें सज्जन दहल रहे।
जेल भरे  मत  बैठो  इनसे, रक्षा खातिर  बंद करो।
वैदेशिक नीति कुछ बदलो, तुष्टिकरण पाबंद करो।

गोली का  उत्तर तोपों से, अब तो हमको  देना है।
मानवता को घाव दिए जो, उनका बदला लेना है।
जगें देश  मानवता हित में, सोच बनालें  सब ऐसी।
करो सफाया  आतंकी का, सूत्र  निकालो अन्वेषी।

मिलें देश सब संकल्पित हों, आतंकी  जाड़े खोएँ।
विश्वराज्य की करें कल्पना,बीज विकासी ही बोएँ।



कुण्डलिया छंद - वोट

डाले फोटो,वीडियो , करें  चुनावी  बात।
सामाजिक उद्देश्य की, देते क्या सौगात।
देते  क्या सौगात,चुनावी  चौसर बिछते।
चार दिना की बात,फेर बस  नेता हँसते।
करे स्वयं उपकार, पेट खुद का वो पाले।
नहीं समाजी बात,वोट क्यों उनको डालें।
 
भाई  नागों  के  बनेे, साँपनाथ  श्रीमान।
सब दल दलदल हो गए, सर्प वंश हैरान।
सर्प वंश हैरान, साँप सब डर  कर भागे।
जाने कहाँ फरार,साँप बिल धरती त्यागे।
मणि धारी ये लोग ,करें बस खूब कमाई।
सोच समझ मतदान,करो सब प्यारे भाई।

खर्चे  होते  हैं वहाँ, होते जहाँ  चुनाव।
वोट पड़े के बाद मे, कोई न पूछे भाव।
कोई न पूछे  भाव, नदारद  होंते  नेता।
रोते बाद  चुनाव, न कोई हमको  देता।
काम पड़े अनजान, फिरेंगे उड़ते पर्चे।
चार दिने व्यवहार,लगेंगे फिर तो खर्चे।



आज लेखनी .......रुकने मत दो
.   ( लावणी छंद)

एक हाथ में थाम लेखनी,गीत स्वच्छ भारत लिखना
दूजे कर में झाड़ू लेकर, घर आँगन तन सा रखना
स्वच्छ रहे तन मन सा आँगन,घर परिवेश वतन अपना
शासन की मर्यादा मानें,सफल रहेगा हर सपना

अपनी श्वाँस थमें तो थम लें,जगती जड़ जंगम रखना
जग कल्याणी आदर्शों में,तय है मृत्यु स्वाद चखना 
आदर्शो की जले न होली,मेरी चिता जले तो जल
कलम बचेगी शब्द अमर कर,स्वच्छ पीढ़ि सीखें अविरल

रुके नही श्वाँसों से पहले,मेरी कलम रहे चलती
जाने कितनी आस पिपासा,इन शब्दों को  पढ़ पलती
स्वच्छ रखूँ साहित्य हिन्द का,विश्व देश अपना सारा
शहर गाँव परिवेश स्वच्छ लिख,चिर सपने सो चौबारा

आज लेखनी रुकने मत दो,मन के भाव निकलने दो।
भाव गीत ऐसे रच डालो,जन के भाव सुलगने दो।
जग जाए लहू उबाल सखे,भारत जन गण मन कह दो।
आग लगादे जो संकट को,वह अंगार उगलने दो।

सवा अरब सीनों की ताकत,हर संकट पर भारी है।
ढाई अरब जब हाथ उठेंगे,कर पूरी तैयारी है।
सुनकर सिंह नाद भारत का,हिल जाएगी यह वसुधा।
काँप उठें नापाक वायरस,रच दे कवि ऐसी  समिधा।

कविजन ऐसे गीत रचो तुम,मंथन हो मन आनव का,
सुनकर ही जग दहल उठे दिल,संकटकारी दानव का।
जन मन में आक्रोश जगादो,देश प्रेम की ज्वाला हो।
मानवता मन जाग उठे बस,जग कल्याणी हाला हो।
(आनव=मानवोचित)


.
2 पृष्ठ हेतु
*पन्ना धर्म* निभाना है
सैनिक को, *माँ* की पाती" -( लावणी छंद)
       
पुत्र तुझे भेजा सीमा पर,भारत माता का दर है।
पूत लाडले ,गाँठ बाँध सुन,वतन हिफाजत तुझ पर है।
त्याग हुआ है बहुत देश में,जितना  सागर में जल है।
अमर रहे गणतंत्र हमारा,आजादी महँगा फल है।

आतंकी को गोली,मारो,इसके ही वो काबिल है।
दिल्ली को वे तिरछे देखे,दिल्ली तो अपना दिल है।
काशमीर की केशर क्यारी,स्वर्गिक मूल धरोहर है।
सूर्य पुत्र की रजधानी थी,वह डल पुन्य सरोवर है।

काशमीर के आतंकी तो,बन्दूकों के काबिल है।
उनको सीधे स्वर्ग सिधाओ,स्वर्ग सुखों से गाफिल है।
चौकस रहना,सीमाओं पर,नींद चुरा कर जगना है।
खटका हो तो उसके पीछे,चौकस हो कर भगना है।

मेरी तुम जो याद करो तो,मृदा वतन की छू लेना।
घर परिवारी याद सँजोने,कभी पत्र भी लिख देना।
पीठ दिखानी नही कभी भी,सीना ताने रखना है।
जब तक तन में श्वाँस,तिरंगा,हाथों थामे रखना है।

लोकतंत्र की माँ संसद है,संवादी देवालय है।
संविधान प्रभुमूरत सा है,लोकतंत्र विद्यालय है।
"भारत माटी सोना उगले",बना रहे अफसाना है।
विश्वगुरू भारत है जग में,'सोन  चिड़ी' पैमाना है।

सम्प्रभुता  मेरे भारत की,
सैनिक की मुस्तैदी से।
जनगणमन का गान,तिरंगा, भारत माँ बलि वेदी से।
मैने तुझको भेज दिया है,भारत माँ की सेवा है।
भारत माँ  मेरी भी माँ है,माँ की सेवा मेवा है।

बेटा अपना शीश कटाकर, वतन बड़ा कर जाना है।
पीठ दिखाके बचते,जिन्दा,नहीं लौटकर आना है।
सीने पर गोली खा लेना,
मान तिरंगा  रखना है।
लिपट तिरंगे में घर आना,माँ का दूध न लजना है।

रोउँ नहीं, क्यूँ आँसू टपके,वीर मात कहलाना है।
अंतिमपथ तक पूत लाड़ले,तुझको तो पहुँचाना है।
भारत माँ हित गये,पिता भी,पति का भी परवाना है।
तुझको खोकर पूत लाड़ले,
'पन्नाधर्म' निभाना है।

माँ पन्ना ने धर्म धरा हित,सुत चन्दन कुर्बान किया।
मैने उस बलिदान रीत को,'पन्ना धर्म सुनाम दिया।

मैं भी अपना धर्म निभाऊँ,प्यारा   वतन बचाना है।
करले याद शहीद मात की,सुत का धर्म निभाना है।

कितनी ही अबला सबलाएँ,"पन्नाधर्म' निभाती है।
उन ललनाओ के संयम पर,आँखें अश्रु बहाती है।
जीवन है बस बिन्दु सिंधु सम,मानव फर्ज निभाना है।
तू भी पल में जल मिलजाना,कर्जा  कोख चुकाना है।

सत्ता धारी अफसर,नेता,मुझे नहीं--कुछ कहना है।
देश,देश की जनता को ही,सब  खुद ही तो सहना है।
खुद समझे सम्मान करे,या,"उत्पीड़न' परिवारो को।
मरे वतन हित,गई पीढ़ियों,फौजी पहरेदारों को।
मेरा तो पैगाम  तुम्हे बस,प्रीत सुरीत निभानी है।
देश प्रेम की बुझती लौ में,फिर से आग लगानी है।



 मातृशक्ति
.  (लावणी छंद)

जननी आँचल,भूमि धरातल,पावन भावन होता है।
मानस करनी दैत्य सरीखी,अहसासो को खोता है।
मानव तन को माँ आजीवन,भू ने भी माँ सम पाला।
बन,दानव तुमने वसुधा में,तीव्र हलाहल क्यूँ डाला।

मानव  ने  खो दी  मानवता,छुद्र स्वार्थ के फेरों में।
अस्तित्व बना हुआ मात का,आशंका के घेरों में।
वसुधा का शृंगार छीन कर,जन, वन पेड़ काट डाले।
जल,खनिजों का अति दोहन कर,माँ के तन मन दे छाले।

मात् मुकुट से मोती छीने,पर्वत नंगे जीर्ण किए।
मानव  घायल होती माता,उन घावों को कौन सिंए।
अमृत मात् के नस नस बहता,सरिताएँ  दूषित कर दी।
मलयागिरि सी पवन धरा पर,क्यूँ  उसे  प्रदूषित कर दी।

मातृशक्ति गौरव अपमाने,ओ मन,भोले अपराधी।
जिस माता को आर्य सभ्यता,देव शक्ति ने आराधी।
मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्,क्यों "वन्य भेड़िये" बनते हो।
अपनी माँ अरु बहिन बेटियां,क्यूँ उनको तुम छलते हो।

माँ की सुषमा नष्ट करे नित,क्यूँ,कंकरीट से उसको भींचे।
मातृ शक्ति की पैदाइश हो,फिर शुभ्र केश क्यों खींचे।
ताल तलैया सागर,नाड़ी,नदियों को मत अपमानो।
क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा,इनसे  मिल जीवन मानो।

माँ तो दुर्लभ अमरित फल है,समझ सको तो कद्र करो।
माँ की सेवा सात धाम फल,भव सागर से पार तरो।



: हरिगीतिका छंद
 विधान.  ११२१२,११२१२ 
.           ११२१२,११२१२
दिव्य-पायलिया-माँ...जानकी

पद पायलें,अनमोल थी,सिय दिव्य-दैव्य प्रमान् की।
हर जानकी दसकंध ने,बाजी लगा कर जान की।
हा,राम,लक्ष्मण आइए,लंकेश रावण पातकी।
मानी न लक्ष्मण आन वे,दोषी बनी निज जानकी।

क्रोधी  जटायू तब भिड़ा,जाने न दे ,माँ जानकी।
सिय मान के,हित जान दे,चिंता नहीं , की जान की।
पथ में लखे,कपि जूथ थे,मग देख शैल निशान की।
पटकी वही पद पायलें, मन सोच वे, तब जानकी।

वन रामलक्ष्मण डोलते, खोजें फिरे सिय मानकी।
बजती, सुने मन मानसी,वे दिव्य पायल जानकी।
हनुमत मिले द्विज वेष में,मनभक्ति,प्रेम प्रमान की।
प्रभु ने कही,सुन ली व्यथा,वन राम लक्ष्मण जानकी।

आकर मिले, सुग्रीव से,दुख मीत के,पहचान की।
हरि दर्श दैवी पायलें,प्रण धारि खोजन जानकी।
प्रभुराम जी,कहि बंधु से,पायल यही ,क्या जानकी।
लक्ष्मण कहे कर जोरि केे,भैया, क्षमा मम जान की।

पद पूज्य वे ,पहचान लूँ,रज पूजता पद जानकी।
पर पायलें, परखूँ  नहीं, पदरज नमन, माँ जानकी।
जग मात है,माँ जानकी,रघुवंश के सन् मान की।
पद पूज के, आशीष लूँ,रघुवर प्रिया माँ जानकी।



 .        माँ
.     ( लावणी छंद )
माँ की ममता मान सरोवर,आँसू सातों सागर हैं।
सागर मंथन से निकली जो,माँ ही अमरित गागर है।
गर्भ पालती शिशु को माता,जीवन निज खतरा जाने।
जन्मत दूध पिलाती अपना,माँ का दूध सुधा माने।

माँ का त्यागरूप है पन्ना,हिरणी भिड़ती शेरों से।
पूत पराया भी अपनाती,रक्षा करती गैरों से।
माँ से छोटा शब्द नहीं है,शब्दकोष बेमानी है।
माँ से बड़ा शब्द दुनियाँ में,ढूँढ़े तो नादानी है।

भाव अलौकिक है माता के,अपना पूत कुमार लगे।
फिर हमको जाने क्यों अपनी,जननी आज गँवार लगे।
भूल रहें हम माँ की ममता, त्याग मान अरमान को।
जीवित मुर्दा बना छोड़ क्यों,भूले मातु भगवान को।

दो रोटी की बीमारी से,वृद्धाश्रम में भेज रहे।
जननी जन्मभूमि के खातिर,कैसी रीति सहेज रहे।
भूल गये बचपन की बातें,मातु परिश्रम याद नहीं।
आ रहा बुढ़ापा अपना भी,फिर कोई फरियाद नहीं।

वृद्धाश्रम की आशीषों में, घर की जैसी गंध नहीं।
सामाजिक अनुबंधो मे भी,माँ जैसी सौगंध नहीं।
माँ तो माँ होती है प्यारी,रिश्तों का अनुबंध नहीं।
सबसे सच्चा रिश्ता माँ का,क्यों कहते सम्बंध नहीं।



 मनहरण घनाक्षरी छंद
.          -  नया वर्ष -
नई साल आती रहे,मन में हो शुभ भाव,
करते  शुभकामना, सभी  हम  प्यार से।
भारत धर्म संस्कृति,आए न कोई विकृति,
मन  में  गुमान  रख, रहना    संस्कार  से।
बार बार प्रयास हो,परिश्रम विश्वास हो,
लक्ष्य पर  हो निगाह, डरो  नहीं हार से।
शीतल स्वभाव रख,सफलता स्वाद चख,
गर्म  लोह  कट जाए , शीतल  प्रहार  से।

पंख लगते वक्त को,दोष नहीं सशक्त को,
वक्त  ही   सिकंदर  है, वक्त  बलवान  है।
समय का सुयोग हो, सदा सदुपयोग हो,
साध  लिया  समय  तो, नर  धनवान है।
नष्ट किया समय व्यर्थ,खो दिया जीवन अर्थ,
समय   चाल   टेढ़ी   है,  करे   अवसान  है।
साथ चले  वक्त धार, श्रम तप  सहे मार,
नई  साल  सोच  यही, मन   अरमान  है।

नया साल नई बात,बीत गई काल रात,
नवज्योति   जलती, नवरात   आई  है।
हर कोई  देव पूजे, देख देख एक दूजे,
पूजते है बालिकाएँ,रीत चलि भाई है।
खेत में किसान रहे,श्रम श्वेद धार बहे,
सींच सींच श्रम श्वेद, फसलें पकाई है।
गेंहूँ चना,तारा मीरा,जौं सरसो और जीरा,
धनिया मेथी  साथ ही, हो  रही  कटाई है।




: तिरंगा
                ( धनाक्षरी )
.                   ---------
भारत  देश  स्वतंत्र,
 चमन है प्रजातंत्र।
है  सबका  अरमान, 
तिरंगा  हाथ  रहे।

चौकस है सैन्य सखे,
सरहदी मान रखे।
करे  शत्रु  का  दलन,
 तिरंगा साथ  रहे।

शासक वर्ग सचेत, 
हौंसले  शत्रुविजेत।
 जनतंत्री  संविधान,
 तिरंगा  नाथ रहे।

देश हित काज सरे
शहीदी  नाज करे।
चाहत है  !  कफन में, 
तिरंगा माथ रहे।
.             (#  नाथ ~..स्वामी)



.         हरिगीतिका-छंद
.             ( १४,१४)
.            'मातु-वंदन'
निज माँ सभी,सबसे भली,प्रभु आपकी, मन भावना।
जग में रहे, हर हाल में,जन मानसी, सद् भावना।
यह फर्ज है, हर पूत का,प्रण मात का, प्रतिपालना।
पद उच्च है, जननी सदा,मन मीत ये,सच जानना।
.    
कर मात के, चरणों नमन,हम सोच लें,भगवान है।
पढ़ सीखलें, तम को मिटा, रख याद माँ,वरदान है।
करना नहीं, अवमानना,मन मान माँ, अरमान है।        
रखना भली, मन भावना, तन मात का,अहसान है।
.     
पथ भान हो, यह ज्ञान हो,गुरु मात है,सच बात है।
हर मात का, उपकार  है,बस मात ही, बस ज्ञात है।
शिशु पालती, तन वारती,यह मात ही, वह गात है।
मन मे सदा,सन मान हो, प्रभु ने रची, सौगात है।
.     
रखना सदा, सुख से सभी,अपना यही, सत धर्म है।
जिसने हमे, निज गर्भ में,रख के किए, नित कर्म है।
करले सखे, यह पुण्य तू,हर तीर्थ का,यह मर्म है।
दुख झेलती,यदि मात तो,अपने लिए, यह शर्म है।



लावणी छंद
मात् शारदे...स्तुति

मात् शारदे सबको वर दे,तम हर ज्योतिर्ज्ञान  दें।
शिक्षा से ही जीवन सुधरे,शिक्षा ज्ञान सम्मान दे।
चले लेखनी सरस हमारी,ब्रह्म सुता अभिनंंदन में।
फौजी,नारी,श्रमी,कृषक के,मानवता हितवंदन में।

उठा लेखनी,ऐसा रच दें,सारे काज सँवर जाए।
सम्मानित मर्यादा वाली,प्रीत सुरीत निखर जाए।
पकड़ लेखनी मेरे कर में,ऐसा  गीत लिखा दे माँ।
निर्धन,निर्बल,लाचारों को,सक्षमता दिलवा दे माँ।

सैनिक,संगत कृषक भारती,अमर त्याग लिखवा दे माँ।
मेहनत कश व मजदूरों का,स्वर्णिम यश लिखवा दे माँ।
शिक्षक और लेखनीवाला,गुरु जग मान,दिला दे माँ।
मानवता से भटके मनु को,मन की प्रीत सिखा दे माँ।

हर मानव मे मानवता के,सच्चे भाव जगा दे माँ।
देश धरा पर बलिदानों के,स्वर्णिम अंक लिखा दे माँ।
शब्दपुष्प चुनकर श्रद्धा से,शब्द  माल में जोड़ू  माँ।
भाव,सुगंध आप भर देना,मै तो दो 'कर' जोड़ूँ माँ।

मातु कृपा से हर मानव को,मानव की सुधि आ जाए।
मानवता  का  दीप जले माँ,जन गण मन का दुख गाएँ।
कलम धार,तलवार बनादो,क्रूर  कुटिलता कटवा दो।
तीखे शब्दबाण से माता,तिमिर कलुषता मिटवा दो।



2  पृष्ठ हेतु
.  ताटंक छंद विधान
१६,१४, मात्रिक छंद,चरणांत में,
 तीन गुरु (२२२) अनिवार्य है।
दो, दो चरण समतुकांत हो।
चार चरण का एक छंद होता है।

 दीप शिखा
.   (रानी झांसी से प्रेरणा )

सुनो  बेटियों  जीना है तो,शान सहित,मरना सीखो।
चाहे, दीपशिखा बन जाओ,समय चाल पढ़ना सीखो।
रानी लक्ष्मी दीप शिखा थी,तब वह राज फिरंगी था।
दुश्मन पर भारी पड़ती पर,देशी राज दुरंगी था।

बहा पसीना उन गोरों को,कुछ द्रोही रजवाड़े में।
हाथों में तलवार थाम मनु,उतरी युद्ध अखाड़े में।
अंग्रेज़ी पलटन में उसने,भारी मार मचाई थी।
पीठ बाँध सुत दामोदर को,रण तलवार चलाई थी।

अब भी पूरा भारत गाता,रानी वह मरदानी थी।
लक्ष्मी, झाँसी की रानी ने, लिख दी अमर कहानी थी।
पीकर देश प्रेम की हाला,रण चण्डी दीवानी ने।
तुमने सुनी कहानी जिसकी,उस मर्दानी रानी ने।

भारत की बिटिया थी लक्ष्मी,झाँसी  की वह रानी थी।
हम भी साहस सीख,सिखायें,ऐसी रची  कहानी थी।
दिखा गई पथ सिखा गई वह,आन मान सम्मानों के।
मातृभूमि के हित में लड़ना,जब तक तन मय प्राणों के।
नत मस्तक मत होना बेटी,लड़ना,नाजुक काया से।
कुछ पाना तो पाओ अपने,कौशल,प्रतिभा,माया से।
स्वयं सुरक्षा कौशल सीखो,हित सबके संत्रासों के।
दृढ़ चित बनकर जीवन जीना, परख आस विश्वासों के।
.    
मलयागिरि सी बनो सुगंधा,बुलबुल सी चहको गाओ।
स्वाभिमान के खातिर बेटी,चण्डी ,ज्वाला हो जाओ।।
तुम भी दीप शिखा के जैसे,रोशन तमहर हो पाओ।
लक्ष्मी, झांसी रानी जैसे,पथ बलिदानी खो जाओ।

बहिन,बेटियों साहस रखना, मरते दम तक श्वांसों में।
रानी झाँसी बन कर जीना, मत आना जग झाँसों  में।
बचो,पढ़ो तुम बढ़ो बेटियों,चतुर सुजान सयानी हो।
अबला से सबला बन जाओ, लक्ष्मी सी मरदानी हो।

दीपक में बाती सम रहना,दीपशिखा, ज्वाला होना।
सहना क्योंं अब अनाचार को,ऐसे बीज धरा बोना।
नई पीढ़ियाँ सीख सकेंगी,बिटिया के अरमानों को।
याद रखेगी धरा भारती,बेटी के बलिदानों को।

शर्मा बाबू लाल लिखे मन,द्वंद छन्द अफसानों को।
बिटिया भी निज ताकत समझे,पता लगे अनजानों को।
बिटिया भी निजधर्म निभाये,सँभले तज कर नादानी।
बिटिया,जीवन में बन रहना,लक्ष्मी जैसी मर्दानी।




: बसंत~बहार
.         (लावणी छंद)

चले मदन के तीर शीत में,तरुवर त्यागे पात सभी।
रवि का रथ उत्तर पथ गामी,रीत प्रीत मन बात तभी।
व्यापे काम जीव जड़ चेतन,प्राकत नव सुषमा धारे।
पछुवा पवन जलद के संगत,मदन विपद विरहा हारे।

बसंत बहार,रीत सृष्टि की,खेत फसल तरु तरुणाई।
हर मन स्वप्न सजे प्रियजन के,मन इकतारा शहनाई।
प्रीत बसंती,नव पल्लव तरु,मन भँवरा इठलाता है
मौज बहारें तन मन मनती,विपद भूल सब जाता है।
ऋतु बसंत पछुवाई चलती,मौज बहारें चलती है।
रीत प्रीत के बंधन बनते,विरहन पीड़ा पलती है।

बासन्ती ऋतु फाग बहारें,क्या गाती कोयल काली।
कुछ दिन तेरी तान सुरीली,ऋतु फिर लू गर्मी वाली।
देख बहारे भरमे भँवरा,समझ रहा क्या मस्ताना।
बीतेगी यह प्रीत बहारें,भूल रहा आतप आना।
फूलों पर मँडराती तितली,मधुमक्खी भी मद वाली।
भूल रही मकरंद नशे में,गर्मी की ऋतु आने वाली।

मानव मन भी मद मस्ती में,करें भावि हित मति भूले।
गान बसंती फाग बहारें,चंग राग तन मन झूले।
अच्छे लगते मन को भाते,बासंती ये फाग फुहारें।
कोयल चातक,तितली भँवरे,अमराई में बौर बहारें।
खुशियाँ भी लाती कठिनाई,मन इसका भी ध्यान रहे।
आगे गर्मी झुलसे तन मन,झोंपड़ियाँ विज्ञान कहे।

चार दिनों की कहे चंद्रिका,राते घनी अमावस वाली।
करें पूर्व तैयारी मानव,मुरझे क्यों कोई डाली।
कहे बसंती यही बहारें,विपद पूर्व तैयारी की।
ऋतु बहार में श्रम कर लेना,महक रहेगी क्यारी की।



लावणी छंद विधान
१६ +१४ मात्रा,पदांत गुरू
दो दो पद सम तुकांत
पदांत गुरू 

  - याद तुम्ही तो आती हो-

रिमझिम वर्षा शोर मचाकर,मानो बीन बजाती हो।
रीत प्रीत की याद सुनहरी,यादें बहुत सताती हों।
गंध सहित शृंगार सभी तुम,जागत सपन सजाती हो।
पुरवाई के संदेशों से,याद तुम्ही तो आती हो।

जब ऋतु ये सावन भावन हो,झूले पींग चढ़ाते हो।
फसल खेत मद झूम रहे हों,मोर पपीह जगाते हों।
तन मन बेचैनी मचल उठे,निंदिया भी उड़ जाती हो।
घर खाली मन मीत चहे तो, याद तुम्ही तो आती हो।

जब पंछी कलरव केलि करे,श्याम मेघ नभ छातें हों।
दामिनी दमकती अम्बर में,तारे भी सो जाते हों।
झींगुर की धीमी स्वर लहरी,पायल सी बहकाती हो।
उस नीरवता मन व्याकुलता में,याद तुम्ही तो आती हो।

जब तितली फूलों पर उड़े फिरे,भँवरे  गुंजन करते हों।
हर पेड़ लताएँ बलखाए,फूल पराग मचलते हों।
तब कोयल बैरिन की बोली,हिय में आग लगाती है।
विरहा मन भाव हिलोर उठे,तब याद तुम्ही तो आती हो।

धरती की चूनर धानी पर,चंदा तारक चमक रहे।
रंग चंग मय फाग बसन्ती,मदन संग सब दमक रहे।
प्राकृत भी तो हर प्राणी पर,मदन रंग सरसाती हो।
कब तक धीर धरूँ मन में प्रिय,याद याद तुम आती हो।

जब फसल झूमती दुल्हन सी,प्रिय किसान से तकतें हो।
तन मन मदन आग में जलते,ढाक पलाश दहकतें हो।
पंछी सब युगल बने गाते,पछुवाई गीत सुनाती हो।
होली जो होनी थी सुनलो,याद तुम्ही तो आती हो।



.
.         संविधान
.               (रोला छंद)
भारत  भू   स्वाधीन,  हुई  कुर्बानी  देकर।
वतन  बाँट दो भाग, घाव गहरा  ये लेकर।
पहले  फूँके   स्वप्न, पूत    हमने  न्यौछारे।
संविधान  अरमान, मिले अधिकार  हमारे।
 
आजादी   पर  हर्ष, मनाए  हमने  भारी।
बँटवारे  के  साथ, स्वदेशी   सत्ता   धारी।
संविधान   निर्माण ,मान गणतंत्र   दुलारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार हमारे।

लोकतंत्र  मजबूत, रहे जनता के  हित में।
मात भारती शान, बसे सब ही के चित में।
सब मिल करें प्रयास,वतन तकदीर सँवारे।
संविधान  अरमान, मिले अधिकार  हमारे।

झगड़ें  धर्म  न  पंथ, सभी  निरपेक्ष  रहेंगे।
विकसित हो यह देश,देश हित कष्ट सहेंगे।
सैनिक और  किसान, देश की दशा सुधारें।
संविधान अरमान, मिले  अधिकार  हमारे।

संविधान का मान,अमर हो विजय तिरंगा।
जब तक सूरज चाँद,हिमालय,पावन गंगा।
लाल  किले  प्राचीर, कभी न हिम्मत  हारे।
संविधान अरमान, मिले  अधिकार  हमारे।

चुने राष्ट्रपति योग्य,नमन अरमान तिरंगा।
इन्द्र धनुष सम्मान, वतन हो यह सतरंगा।
मात भारती शान, सिंधु भी चरण पखारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार  हमारे।


 मत्तगयंद सवैया
.  भगण × ७ + २ गुरु,
.      (२११×७ +२२)
.  १२,११ वर्ण पर यति
( चार चरण सम तुकांत )

.         शहादत 

देश  धरा  पर  संकट हो तब,
रक्षक   वीर  करे   रखवाली।
सैनिक के बल सोय रहे सुख,
जीम  रहे  हम भोजन थाली।
चौकस धीरज धारक सैनिक,
शान   सपूत   रहे  वन माली।
आन निभा कर मान रखे वह,
रीत   शहीद  नई  रच  डाली।
  
बारिश शीत सहे हिम आतप,
शस्त्र  रखे  अरि शूल मिटाए।
देश रखे  निज  वेष  रखे वह,
मान  शहीद   बड़े   कहलाए। 
गर्व करे हम  वीर सभी पर,
धीर  सपूत  धरा पर  जाए।
और सगर्व  रहे  मम भारत,
रक्षक  वीर  शहीद  कहाए।

वीर करे  बलिदान धरा हित,
मात  समान  मही  वह माने।
जन्म मिले इस भारत भू पर,
अंतिम  चाह  शहादत  जाने।
सीम हिमालय पर्वत तीरथ,
रेत नदी सब  चाह  सजाने।
शत्रु मार भगा निज ताकत,
शान  शहादत  रीत  रचाने।



मत्तगयंद सवैया:-
.  भगण × ७ + २ गुरु,
.      (२११×७ +२२)
.  १२,११ वर्ण पर यति
( चार चरण सम तुकांत )

.         मान धरा हित
मान  करे  हम मीत शहादत,
रीत  सु प्रीत  सदा  यश गाएँ।
प्राण दिए उन मात धरा हित,
आज सभी मिल मान बढ़ाएँ।

ईश समान रहे  बन  रक्षक,
मूरत  सुंदर  साज  सजाएँ।
देश धरा यश मान शहादत,
वे परिवार  सभी  अपनाएँ।

पाक अराजकता कर कायर,
मानव  बम्म  दगेे  पुलवामा।
वीर बयालिस भारत भू सुत,
छोड़ गये  परिवार  व वामा।

देश  शहीद  समाज  कहे पर,
वे  भगवान  बसे  सुर  धामा।
आज करे प्रण मान धरा हित,
पावन  मंदिर  मस्जिद जामा।



2  पृष्ठ के लिए     
.               रोला छंद विधान:--
११,१३
 विषम चरण ११ मात्रिक,चरणांत २१ 
सम चरण तेरह मात्रिक, चरणांत २२

अधिकार हमारे

भारत माँ के पूत,नमन हम करते तुमको।
देके अपनी जान,किये आजाद वतन को।
देखें  हम  आकाश, चमकते  दूर  सितारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार  हमारे।

बना देश गणतंत्र, रखें हम इसे  सुरक्षित।  
मिले हमें अधिकार,रहें कर्तव्य सुनिश्चित।
मातृशक्ति सम्मान, बढ़े नित यही विचारें।
संविधान अरमान,मिले अधिकार  हमारे।

हो  विज्ञान  विकास, धरा सोना  उपजाए।
विश्व गुरू सम्मान,देश विकसित कहलाए।
जय जवान बलवान, देश के  अरि  संहारे।
संविधान अरमान, मिले  अधिकार  हमारे।

कर शहीद का मान, मातु बलिवेदी प्यारे।
देश  हेतु  बलिदान, बने है जो  ध्रुव  तारे।
शर्मा  बाबू  लाल,  विधानी   गीत  उचारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार  हमारे।

करे  सुजन  अरदास, देश  में  भाई चारा।
सुजस फैल संसार,वतन हो अपना प्यारा।
करे प्रगति समुदाय,अभी जो दीन बिचारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार  हमारे।

निकट पड़ोसी देश,चीन व पाक सदा से।
करे  हमे  हैरान, आपकी  छुद्र  अदा  से।
बड़ बोले हैं  शंख, शेखियाँ नित्य  बघारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार हमारे।

शिक्षा  हो वरदान, यही अरदास  हमारी।
लेखक, रचनाकार, लगा दे ताकत सारी।
मात भारती  गीत, आरती  नित्य  उतारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार हमारे।

आतंकी  शैतान, नहीं जो सगे किसी के।
गोली या गलफाँस, बने वे योग्य इसी के।
करते रक्तिम बात, टाँग कर चाँद सितारे।
संविधान अरमान, मिले अधिकार हमारे।

सजग निभा कर्तव्य,बनाएँ अपना भारत।
द्वेष दम्भ पाखंड, करें हम इनको  गारत।
उन्हे  दिलाएँ  याद, जिन्हें कर्तव्य बिसारे।
संविधान  अरमान, मिले अधिकार हमारे।



किरीट सवैया-विधान
२११×८    भगण× ८
२४ वर्ण,  १२,१२ पर यति
चार पद समतुकांत

'चाह शहादत मानस भारत'

भारत  देश  महान  बने सब,
लोग  निरोग रहे जन भावन।
मेल  मिलाप  रहे  सब धर्मन,
जाति सबै मिल देश बनावन।
सीम सुरक्ष  करे  बल सैनिक,
शत्रु बिसात पड़े कस आवन।
*लाल*  हमार स्वदेश हिते सब,
मानव  मानस  मान  मनावन।

रीत सु प्रीत निभे अपनी बस,
चाह  शहादत  मानस भारत।
आन निभे अरमान निभे सब,
देश  हितैष  निछावर  चाहत।
आज यही बस है मन मे अब,
काज करूँ  मन मानुष राहत।
मानवता  हित जीवन  अर्पण,
दूर  सभी  कर  भारत आरत।

शान  तिरंग सँभाल सकूँ बस,
मान स्वदेश सदा  अपना पन।
जन्म मिले फिर भारत मानुष,
तो बलिदान करूँ अपना तन।
जीवन ज्योति चले मन में बस,
याद शहीद  यही  जपना मन।
देश समाज सुकाज करूँ नित,
भाव  रचूँ  कविता मन भावन।



2  पृष्ठ के लिए
.   गणतंत्र
.        (लावणी छंद)
पुरा कहानी,याद सभी को, मेरे देश जहाँन की।
कहें सुने गणतंत्र सु गाथा, अपने देश महान की।
सन सत्तावन की गाथाएँ, आजादी हित वीर नमन।
रानी झाँसी नाना साहब, ताँत्या से रणधीर नमन।

तब से आजादी मिलने तक, युद्व रहा बस जारी था।
वीर हमारे नित मरते थे, दर्द गुलामी भारी था।
जलियाँवाला बाग बताता, नर संहार कहानी को।
भगतसिंह की फाँसी कहती, इंकलाब की वानी को।

शेखर बिस्मिल ऊधम जैसे, थे कितने ही बलिदानी।
कितने जेलों में दम तोड़े, कितनों ने काले पानी।

बोस सुभाष व तिलक गोखले, कितने नाम गिनाऊँ मैं।
अंग्रेजों के अनाचार के, कैसे किस्से गाऊँ मैं।
गाँधी की आँधी,गोरों के, आँख किरकिरी आई थी।
विश्वयुद्ध से सबक मिला था, कुछ नरमी तब आई थी।

आजादी हित डटे रहे वे, देशभक्त सेनानी थे।
क्रांति बीज से फसल उगाते, मातृभूमि अरमानी थे।
आखिर मे दो टुकड़े होकर, मिली वतन को आजादी।
हिन्दू मुस्लिम दंगे होकर, खूब हुई थी बरबादी।

संविधान परिषद ने मिलकर, नया विधान बनाया था।
छब्बीस जनवरी सन पचास, यह लागू करवाया था।
बना वतन गणतंत्र हमारा, खुशियाँ मय त्यौहार मने।
राष्ट्रपति व संसद भारत के, मतदाता हर बार चुने।

आज विश्व मे चमके भारत, ध्रुवतारे सा बन स्वतंत्र।
करूँ वंदना जन गण मन की, अमर सदा रहे गणतंत्र।
लोकतंत्र सिरताज विश्व का, लिखित वृहद संविधान है।
लाल किले लहराय तिरंगा, जनगण मन अरमान है।

उत्तर पहरेदार हमारा, पर्वत राज हिमालय है।
संसद ही सर्वोच्च हमारी, संवादी देवालय है।
आज विश्व में भारत माँ के, घर घर मे खुशहाली है।
गणतंत्र पर्व के स्वागत को, सजे आरती थाली है।

सेना है मजबूत हमारी, बलिदानी है परिपाटी।
नमन करें हम भारत भू को, और चूमलें यह माटी। 
गणतंत्र सदा सम्मानित हो, निज तन प्राण रहे न रहे।
ऊँचा रहे तिरंगा अपना, मन में यह अरमान रहे।


. किरीट सवैया-विधान
२११×८    भगण× ८
२४ वर्ण,  १२,१२ पर यति
चार पद समतुकांत
.      
नाचत मोर...

नाचत मोर  धरा  वन सावन,
घोर घटा  नभ  से बरसावन।

बारिश चाहत हो सब के मन,
मोर कहे  बस  मेघ बुलावन।

रंग बिरंग  बिखेर  सु पाँखन,
नाच रहा  मन  मान सुहावन।

देख  रहे  जन  नारि  मयूरिन,
चाहत  है सब  नेह लुभावन।

देखन चाहत  है  सब  के उर,
लागत मोर  सबै  मन भावन।

मोर पखा  अति  सुंदर सोहत,
याद दिलावत कान्ह सुपावन।

आपन   पैर   निहार  मयूरिन,
भावन  अश्रु   रहे  टपकावन।

बूँद  सहेज  पिये  सु  मयूरिन,
प्रीत  सुरीत, सनेह  निभावन।
.



मुक्तक -१६ मात्रिक- हम-तुम

हम तुम मिल नव साज सजाएँ,
आओ अपना देश बनाएँ।
अधिकारों की होड़ छोड़ दें,
कर्तव्यों की होड़ लगाएँ।

हम तुम मिलें समाज सुधारें,
रीत प्रीत के गीत बघारें।
छोड़ कुरीति कुचालें सारी,
आओ नया समाज सँवारें।

हम तुम मिल नवरस में गाएँ,
गीत नए नव पौध लगाएँ।
ढहते भले पुराने बरगद,
हम तुम मिल नव बाग लगाएँ।

मंदिर मसजिद से भी पहले,
मानवता की बातें कहलें।
मुद्दों के संगत क्यों भटके,
हम तुम मिलें भोर से टहलें।

हम तुम सागर सरिता जैसे,
जल में जल मिलता है वैसे।
स्वच्छ रखे जलीय स्रोतों को,
वरना जग जीवेगा कैसे।

देश धर्म दोनो अवलंबन,
मानव हित में बने सम्बलन।
झगड़े टंटे तभी मिटेंगे,
आओ मिल हो जायँ निबंधन।






मुक्तक - अब की बरस दिवाली मे..

खूब मिठाई खाई सबने,
अबकी बरस दिवाली में!
फुलझड़ियाँ भी खूब चलाई,
अबकी बरस दिवाली में!
कितना हुआ प्रदूषण खर्चा,
आज हिसाब लगाओ तो!
कितनों को दी सच्ची खुशियाँ,
अब की बरस दिवाली में!

घर चमकाए,दर चमकाए,
अबकी बरस दिवाली में!
जगमग रोशन और सजावट, 
अबकी बरस दिवाली में!
कितने घर बिन दीप,रोशनी,
रह गये बिना मिठाई के!
किस किस की है जली झोंपड़ी,
अब की बरस दिवाली में!

पाँच दिवस का पर्व मनाया,
खुशियों संग दीवाली में!
रिश्ते नाते खुशी बधाई,
बाँटे लिए दिवाली में!
किस किस घर में मातम पसरा,
खोज खबर क्या ले ली है!
दुर्घटनाएँ भी हुई होंगी,
अब की बरस दिवाली में!





विधाता छंद मय मुक्तक - फूल

रखूँ किस पृष्ठ के अंदर, अमानत प्यार की सँभले।
भरी है डायरी पूरी, सहे जज्बात के हमले।
गुलाबी फूल सा दिल है, तुम्हारे प्यार में पागल।
सहे ना फूल भी दिल भी, हकीकत हैं, नहीं जुमले।

सुखों की खोज में मैने, लिखे हैं गीत अफसाने।
रचे हैं छंद भी सुंदर, भरोसे वक्त बहकाने।
मिला इक फूल जीवन में, तुम्हारे हाथ से केवल।
रखूँगा डायरी में ही, कभी दिल ज़ान भरमाने।

कभी सावन हमेशा ही, दिलों मे फाग था हरदम।
सुनहली चाँदनी रातें, बिताते याद मे हमदम।
जमाना वो गया लेकिन, चला यह वक्त जाएगा।
पढेंगे डायरी गुम सुम, रखेंगे फूल मरते दम।

गुलाबी फूल सूखेगा, चिपक छंदो से जाएगा।
गुमानी छंद भी महके, पुहुप भी गीत गाएगा।
हमारे दिल मिलेंगे यों, यही है प्यार का मकस़द,
अमानत यह विरासत सा, सदा ही याद आएगा।




 विधाता छंद मुक्तक मय विधान
१२२२,१२२२,१२२२,१२२२ = २८ मात्रा
१२२२,१२२२,१२२२,१२२२ = २८ मात्रा
१,७,१५,२२वीं मात्रा लघु अनिवार्य               
.                नारी
बताओ  कौन है ऐसा, मही नारी न हो जाया।
सिखा ईमान भी इनको,सखे बेबात भरमाया।
करे हम मान  नारी का, सदा  इंसान कहलाएँ,
इबादत हो अमानत की, यही संसार में माया।

करें सम्मान जननी का,विरासत ये चलाती है।
सभी दुख झेलने वाली,सुखी संतान भाती है।
गिरेबाँ झाँकले खुद के,इनायत गौर कर लेना,
हमें राहे दिखाकर क्यों,अरे अपमान पाती है।

तलाकों की कहानी में,बहे जज्बात भी जाने।
किए जो  त्याग नारी ने, उन्हे यारों बना गाने।
धरा पे कौन माते सी,बसे आश्रम कहीं रहती,
बताओ किन गुनाहों का, यहाँ ये दंड है मानें।

कहानी नारि की ऐसी, जिसे मानी,जमाने में।
घुली हो दूध में चीनी, यही लायक समाने में।
बने  जो देश के नेता, वही सोचें  विधानों को,
मिले अधिकार नारी के,सँभालेंगी कमानों में।




 विधाता छंद मुक्तक-सपूतों की सदा जय हो

विदेशी, राजतंत्री  निज, फिरंगी  तंत्र  ढोने तक।
गुलामी की निशानी से, वतन आजाद होने तक।
धरा को   लाल  कर दी थी, सपूतों ने लहू से  ही।
नही झिझकी महा माता, करोड़ों पूत खोने तक। 

तिरंगा जा रहा नभ तक,झलक लगती रुहानी है।
शहीदों  की  बदौलत ही, विरासत की कहानी है।
करोडों *लाल* खोए  तब, हुए आजाद हम साथी।
शहादत की  इबादत में, अमानत  यह बचानी है।

सिपाही देश के  सैनिक, जवानों की सदा जय हो।
हमारे अन्न दाता  की, किसानों  की  सदा जय हो।
किये आजाद निज सिर वे,वतन आजाद होने को।
शहीदों  के  पिताओं  की, सपूतों की सदा जय हो।

शहीदों  की  चिताओं  पर, यही सौगंध ले  लेना।
रखें  हम  मान  भारत का, यही सौगात  दे  देना।
पड़ोसी  हो, पराया  हो, नहीं  भू   इंच  भर  देंगे।
जमाने  को  यही साथी, सदा  पैगाम  कह  देना।




 दोहा छंद- मकर  से ऋतुराज बसंत

सूरज जाए  मकर में, तिल तिल बढ़ती धूप।
फसले सधवा नारि का, बढ़ता रूप स्वरूप।।
पशुधन कीट पतंग भी, नवजीवन मम देश।
वन्य जीव पौधे सभी, कली खिले परिवेश।।

तितली भँवरे मोर पिक, करते  हैं  मनुहार।
ऋतु बसंत के आगमन,स्वागत करते द्वार।।
मानस बदले वसन ज्यों,द्रुम दल बदले पात।
ऋतु राजा जल्दी करो, बिगड़ी  सुधरे  बात।।

शीत उतर राहत मिले,होवें शुभ सब काज।
उम्मीदें  ऋतुराज  से, करते हैं  सब  आज।।
ऋतु राजा भी आ रहे,अब तो आओ कंत।
विरहा  के  मनराज हो ,मेरे  मनज  बसंत।।

रथी उत्तरायण चला, अब  तो प्रिय रविराज।
प्रिये मिलन को बावरी,पाती लिखती आज।।
प्रियतम आओ तो प्रिये,ऋतु बसंत के साथ।
सत फेरों  की  याद  कर, वैसे  पकड़ें  हाथ।।

कंचन निपजे देश में,कनक विहग सम्मान।
चाँदी सी  धरती तजी, परदेशी   मिथ शान।।      
आजा प्रियतम  देश  में, खूब  मने संक्रांति।
माटी अपने देश हित,मिटा पिया मन भ्रांति।।

प्रीतम तिल तिल जोड़ती,लड्डू बनते आज!
बाँट  निहारूँ  साँवरे, तकूँ   पंथ    आवाज।।




: .           रुबाई
२१२  २२१  २२२  २२
.               १
होलिका वर्षों जला ली जाएगी।
साल दर ही साल होली आएगी।
द्वेष को साथी जलाएँ आओ तो,
चैन  से  धरती  रंगोली  पाएगी।
.                  २
फाग खेलेंगे  बजें  शहनाई भी।
नाचते  गाते  सजे  तरुणाई भी।
सैनिकों  सीमा  सुरक्षा  मेरी  हो,
दुष्ट  ये  सारे  तजे  परछाई  भी।
.                  ३
पाप  के भागी भगाएँ  आओ तो।
छंद  रच दोहा  बनाएँ  गाओ  तो।
पाप  की  होली  जलानी ही होगी, 
द्वेष की ज्वाला बुझाएँ आओ तो।
.                   ४
होलिका के  गीत  यारों  गाएँगे।
भारती  की  शान  खोई  पाएंगे।
जोर कितना भी करे आतंकी ये,
सैनिकों  के सामने  क्या आएँगे।





 गंगा महिमा- दोहा छंद

सुरसरि पावन  पुण्य  है , भारत  में वरदान।
देवनदी  कहते   सभी, माता सम  सम्मान।।
कहे  त्रिपथगा  कुम्भ में,  मेला भरे विशाल।
रीत जाह्नवी  पुण्य की, भक्ति में,जयमाल।।

भगीरथी भू   पर  बहे, भागीरथी   प्रयास।
देवापगा  सदा रहे, भारत  जन  की  आस।।
मंदाकिनी का नीर तो, अमरित पान समान।
मोक्षदायिनी मातु यह, भारत  का अरमान।।

गंगा  सबका  हित  करे,  अपना भी कर्तव्य।
साफ रखे  इस नीर को, भाग्य  बनेगा भव्य।।
पाप  विनाशी नीर को, कर मत  नर तू  गंद।
स्वार्थ मनुज ये त्याग दे,खुद को रख पाबंद।।

जन जन का सौभाग्य है,इस नदिया के तीर।
न्हाए  पीए  पाप  हर,  और  मिटे मन  पीर।।
विष्णुपगा गंगे सदा, शिव के धारित शीश।
केवट  की  महिमा  बढ़ी, पार   उतारे  ईश।।

ध्रुवनंदा  कहते  जिसे,  पाप  काटती  गंग।
हिमगिरि से आती सदा,निर्मल जल के संग।।
सुरसरिता सुरधुनि कहें,  नदीश्वरी हे  गंग।
 गौराभगिनी हिमसुता, बहिने  दोनो  संग।।

त्रिपथगामिनी सुरनदी, सुरापगा  सब प्रीत।
शर्मा  बाबू  लाल  यह,  लिखे   वंदना  गीत।।




 दोहा छंद :- मतदान

हार जीत के लग रहे, जहाँ, तहाँ अनुमान।
मन से कर मतदान तू,   लोकतंत्र सम्मान।।
जनता के आशीष से, जनमत की सरकार।
जागरूक  मतदान  हो, फैले  नहीं  विकार।।

जनमत का आदर करे, नेता  होय सुजान।
बिना लोभ सद्भाव से, कर  देना  मतदान।।
बहुत कीमती वोट है, सोच समझ कर दान।
परचम पहरे जीत का, वोट  वोट  का मान।।

दल भी चिंतन कर रहे, मिले  जिताऊ लोग।
चिंतन कर मतदान कर, तभी मिटे भव रोग।।
राजनीति  के  खेल  में, लोकतंत्र   वरदान।
लोकतंत्र के हित करो, सभी लोग मतदान।।

श्वेत वसन  धारण करे, तुलसी माला कंठ।
विषय भोग में डूबते, कुछ  नेता  आकंठ।।
मतदाता  कुछ सोचते, नोटा  एक  प्रयोग।
खारिज सबको कर रहे, राजनीति संयोग।।

झंझावत  भी झेलते, होते  लोक  चुनाव।
बागी  रूठे  दलों से, उनके  चले  मनाव।।
स्वस्थ बने सरकार भी, करना एक उपाय।
सबको ही जागृत करो, मत देने को जाय।।




: .                      गज़ल
१२२२       १२२२        १२२२     १२२२

करे क्यों बात समझौते,हमे तकरार करनी है।
चलेंगे साथ सीमा पर, हमे अब रार करनी है।

रहो तैयार सब साथी,सजालो टैंक सब तोपें।
तिरंगा हाथ में लेकर, चढाई  पार  करनी  है।

मिटाएँ आज आतंकी,करें परिवेश निष्कंटक। 
अहिंसा छोड़ के साथी,चलो हूंकार करनी है।

मिटे नापाक नक्शे से,अमन भारतधरा लाना,
पुरानी याद वे करलें, वहीं झनकार करनी है।

हमेशा से रहा भारत,सदा आवाम का रक्षक।
रहेंगे साथ  सेना के, नही  इनकार  करनी है।

सुने संसद कहे 'बाबू',सुनो ऐ हुक्मरानो भी।
सभी सीमा हमारी ये, अभी बेतार करनी है।




 मुक्तक - दीपावली

तुम्हारे हाथ से दीपक, 
हमारे द्वार जल जाएँ!
हमारा फर्ज  हो ऐसा,
 तुम्हारे दर दिया लाएँ!
निभाना रीत अच्छी है, 
हमारे देश के हित में!
परस्पर काम  आते हैं,
मिलें दीपावली  पाएँ!
.                       
मिठाई  भी  पटाखे  भी, 
बहुत  सारे, खरीदें  हम!
नये कुछ  वस्त्र भी ले लें,
 खुशी  में बाँट  लेंगे गम!
अनाथालय,बुजुर्गाश्रम,
सभी को ही करो वितरित!
तभी  दीपावली  मानें,
 रहो  साथी  सभी  के  तुम!




मुक्तक- भूख - २८ मात्रिक(विधाता छंद)

विधाता ने दिए  हमको, सुहाने साज  मानव  तन!
करे  हम  कर्म  हाथों  से, बनाएँ सोच शिक्षा  मन!
मुखों से नाम हरि जपना,सुनें कानों सें प्रभु वाणी!
बना कर पेट यह पापी, जगादी   भूख  कैसी जन!

. चले पैरों से कर दर्शन, लिखें मन छंद कविताई!
. भलाई के लिए सबकी, तजें निज मान प्रभुताई!
. हमारे  देश  हित जीना, मरें हम देश  रक्षा  हित!
. समाजी सोच उपकारी, जगे मन  भूख  जगताई!

मरे न   भूख   से  कोई, प्रभो  इतना  जतन  करना!
दिया क्यूँ पेट  यह पापी, इसे अब आप ही  भरना!
जगा मन भूख शिक्षा की, समाजी सोच हितकारी!
मनुज है आपसे विनती, इसी पथ पर सदा चलना!

मिला है जन्म मानुष का,मिले गुण मानवी हमको!
सितारे चंद्र रवि धरती, नदी सागर, सभी  जन को!
रहें मानव  सदा  मानव, सभी  की सोच  उपकारी!
करे शर्मा प्रभो वंदन, सताए    भूख  क्यों  तन को!

विकासी   भूख  जग व्यापी, बने जग भाव विज्ञानी!
जखीरे  जंग  हित  सारे, विनाशी सोच अभिमानी!
सभी को   भूख  सत्ता की, चाह भगवान बन जाएँ!
 अरे,  शर्मा  भले मानुष, तजो  मन भाव  नादानी!

पिपासा  ज्ञान  की पालो, सनेही  भूख  हो मन में!
बसे मन भाव मानवता, रहे  क्यों भेद जन जन में!
जगत परिवार हो अपना, यही मन भूख  उत्तम है!
मिले भोजन सजीवों को, रहे ये भूख जन तन में!




 गज़ल-१२२२, १२२२, १२२२, १२२२ हज़ज़

शहादत का इबादत कार,भी बे पीर होता है।
दिलो मे गर्व भर जाए,नयन से नीर खोता है।

वतन का मान रखते हैं,मरण ईमान हैं रखते।
जगे जब वीर सीमा पे, मजे से मीर सोता है।

तजे परिवार ये प्यारे,सितारे रोज है गिनता।
जनाजे हर शहीदी पर, मशाने धीर गोता है।

नहीं डरते शहीदी से, शमन आतंक के करने।
शहीदी मान के खातिर,मरण जागीर बोता है।

मुझे मन हूक उठती है,तिरंगे मान चाहत की।
मिला ना ये मुझे मौका, कहे बलबीर रोता है।

शहीदों की शहादत से,यही पैगाम है मिलता।
मरें तो देश के खातिर,व्यर्थ शमशीर ढोता है।

करेंगे होंश की बातें,दिलों में जोश जग जाएँ।
लिखेंगे जोश भरना है, वही तो चीर धोता है।

लिखें भूषण तरीके में,जगादे आग सूरज सी।
बहे जन के पसीने में, वतन तकदीर स्रोता है।

जगादे जोश तन मन में,लगादे आग सीनें में।
शहीदी मान को जिंदा,सलामतगीर जोता है।

चलाओ लेखनी ऐसे,इसे तलवार कर लेना।
लिखे शर्मा सलीके से,शहीदी तीर न्यौता है।




हाइकु छंद-

 १.अमृता लता~
चौके में माँ के हाथ
काढ़ा कटोरी

२.गिलोय वटी~
बेटी के भाल पर
गीला कपड़ा

३. चैत्र वासर~
रोटी पे सहजन 
फूलों की भाजी 

४.चैत्र प्रभात~
सर्पगंधा पुष्प पे
भ्रमर दल

५.ईसबगोल~
काँच के गिलास में
दही की लस्सी

६.मातृ दिवस~
चिता पे चीरा धात्री
शव का पेट

७.अशोकारिष्ट~
चूल्हे पर खौलते
पानी में छाल

८.सुहाग सेज~
दुल्हन की गोद में
हंँसी बालिका




 सुन्दर पावन धरा भारती - मुक्तक (१६,१४ )

जहाँ वतन हो प्राण से प्यारा, कफन तिरंगा चाहत है।
जगत गुरू की पदवी वाला, स्वर्ण पखेरू भारत है।
ज्ञान धर्म संदेश अहिंसा,  दूर देश तक जाता है।
सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।

आओ साथी वंदन करलें, भारत की इस माटी का।
देश धरा पर प्राण समर्पित, करती मन परिपाटी का।
इंकलाब के गीत जहाँ पर, बच्चा बच्चा गाता है।
सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।

सूरज पहले किरणे देता, मातुल चन्द्र चमकता है।
देश प्रेम मे भरकर सबका, यौवन तेज दमकता है।
दिशा दिखाने ध्रुव तारा भी, उत्तर नभ में आता है।
सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।

सागर चरण वंदना करता, पल पल धोता चरणों को।
पावन नदियाँ याद दिलाती, मानव शुभ आचरणों को।
धरती गौ नदियों से अपना, माँ से बढ़कर नाता है।
सुंदर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।

जिस रज को हम चंदन माने, पूजें पर्वत जलधर को।
अनदाता हम कह सम्माने, भारत के प्रिय हलधर को।
वरुण देव की कृपा जहाँ पर, इन्द्र मेघ बरसाता है।
सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।

वन वृक्षों का आदर करते, सब जीवों में रब मानें।
संसकार मर्यादा अपने, कर्तव्यों को पहचाने।
संविधान का मान यहाँ पर, हर अधिकार दिलाता है।
सुन्दर पावन धरा भारती, वीर सपूती माता है।
.




दोहा मुक्तक  -  मेरा देश मेरा मान

अपना भारत अमर हो, अमर तिरंगा मान।
संविधान की भावना,  राष्ट्र  गान  सम्मान।
सैनिक  भारत देश के, साहस रखे अकूत।
कहते हम जाँबाज है, जय हो वीर जवान।

रक्षित  मेरा   देश  है,  बलबूते    जाँबाज।
लोकतंत्र  सिरमौर है, बने  विश्व  सरताज।
विविध मिले हो एकता, इन्द्रधनुष सतरंग।
ऐसे  अनुपम  देश  में, रखें  तिरंगा  लाज।

जय जवान की वीरता,धीरज वीर किसान।
सदा सपूती  भारती, आज  विश्व  पहचान।
संविधान  है  आतमा, संसद  हाथ  हजार।
मात भारती  चरण जो, धोता  सिंधु महान।

मेरे  प्यारे   देश  के,  रक्षक  धन्य  सपूत।
करे चौकसी  रात दिन, मात  भारती पूत।
रीत प्रीत  सम्मान की, बलिदानी  सौगात।
निपजे सदा सपूत ही, भारत मात अकूत।

वेदों में  विज्ञान है, कण कण में भगवान।
सैनिक और किसान से, मेरा  देश महान।
आजादी  गणतंत्र की, बनी  रहे  सिरमौर।
लोकतंत्र फूले फले, हो विकास सद् ज्ञान।

मेरे  अपने  देश  हित,  रहना  मेरा  मान।
जीवन अर्पण देश को, यही सपूती आन।
मिले  तिरंगे का कफन, चाहूँ मान शहीद।
लोकतंत्र  पर गर्व हो, संविधान  अरमान।




विधाता छंद मुक्तक  -  बाल भिक्षु

झुकी पलके निहारें ये, बनाये गोल रोटी को।
अभावों की कहानी में, सहेजे जो कछौटी को।
अनाथों ने,भिखारी नें, तुम्हारा क्या बिगाड़ा है,
दया आती नहीं देखो, निठुर दैवी कसौटी को।

बना लाचार जीवन को, अकेला छोड़ कर इनको।
गये माँ बाप जाने क्यों, गरीबी खा गई जिनको।
सुने अब कौन जो सोचे, पढाई या ठिकाने की,
मिला खैरात ही जीवन, गुजर खैरात से तन को। 

गरीबी मार ऐसी है, कि जो मरने नहीं देती।
बिचारा मान देती है, परीक्षा सख्त है लेती।
निवाले कीमती लगते, रुपैया चाक के जैसा,
विधाता के बने लेखे, करें ये भीख की खेती।

अनाथों को अभावों का,सही से साथ मिल जाता
विधाता से गरीबी का, महा वरदान जो पाता।
निगाहें ढूँढ़ती रहती, कहीं दातार मिल जाए,
व्यथा को आज मैं उनकी, सरे बाजार में गाता।

किये क्या कर्म हैं ऐसे, सहे फल ये बिना बातें।
न दिन को ठौर मिलती है, नही बीतें सुखी रातें।
धरा ही मात है इनकी, पिता आकाश वासी है,
समाजों की उदासीनी, कहाँ मनुजात जज्बातें।

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